विनोद शुक्ला और घनश्याम पंकज जैसों के पापों को पत्रकारों की कई पीढियां भुगतेंगी

दयानंद पांडेय: ऐसे लोग सूर्य प्रताप जैसे जुझारू पत्रकारों को दलाली में पारंगत करते रहेंगे : और अब तो प्रणव राय जैसे लोग भी बरखा दत्त पैदा करने ही लगे हैं : पहले संपादक नामक संस्था के समाप्त होने का रोना रोते थे, आइए अब पत्रकारिता के ही खत्म हो जाने पर विधवा विलाप करें : आंखें भर आई हैं सूर्य प्रताप उर्फ जय प्रकाश शाही जी की तकलीफों को याद कर, उनको नमन :

बिरहा भवन से लौट कर : देख नयन भरि आइल सजनी

दयानंद पांडेयआज ही बिरहा भवन से लौटा हूं. शोक, कोहरा और धुंध में लिपटा बिरहा भवन छोड़ कर लौटा हूं. शीत में नहाता हुआ. बिरहा भवन मतलब बालेश्वर का घर. जो मऊ ज़िले के गांव चचाईपार में है. कल्पनाथ राय रोड पर. बालेश्वर की बड़ी तमन्ना थी हमें अपने बिरहा भवन ले जाने की. दिखाने की. मैं भी जाना चाहता था. पर अकसर कोई न कोई व्यवधान आ जाता. कार्यक्रम टल जाता.

शीघ्र पढ़ेंगे दनपा का उपन्यास ‘लोक कवि अब गाते नहीं’

: स्वर्गीय जय प्रकाश शाही की याद में लिखा गया है यह उपन्यास : स्वर्गीय बालेश्वर के जीवन के कई दुख-सुख हैं इसमें : ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ सिर्फ भोजपुरी भाषा, उसकी गायकी और भोजपुरी समाज के क्षरण की कथा भर नहीं है बल्कि लोक भावनाओं और भारतीय समाज के संत्रास का आइना भी है।

मंत्रीजी मुख्यमंत्री के पैरों पर गिर गिड़गिड़ाए

दयानंद पांडेय: उपन्यास-  ”वे जो हारे हुए” : भाग (अंतिम) : ”वह तुमको थप्पड़ नहीं सैल्यूट मार रहा है, समझे!” इतना सुनने के बाद मंत्री जी थरथराते हुए ट्रेन से नीचे उतरे :  एक बार क्या हुआ कि मंत्री जी के कुछ पियक्कड़ दोस्तों ने जब तीन चार पेग पी पिला लिया तो उनको चढ़ा दिया :

सुनता हूं कि मैडम टिकट में ही पैसे ले लेती हैं

दयानंद पांडेय: उपन्यास-  ”वे जो हारे हुए” : भाग (7) : इसी डिप्रेशन में रात ज़्यादा पी ली : ज्योतिष और संतई भी डूब गई है जनाब इन चैनलों के बाज़ार में : आनंद ने मोबाइल का स्विच आन किया, फ़ोन का रिसीवर फ़ोन पर रखा और अख़बार पढ़ने लगा। अख़बारों में चुनावी गहमा गहमी ही ज़्यादा थी, ख़बर कम। प्रायोजित ख़बरों की जैसे बाढ़ आई हुई थी अख़बारों में। अंदर के एक पन्ने में उस के ज्ञापन वाली ख़बर भी दो पैरे की थी और क़ासिम का इनकाउंटर करने वाले दारोग़ा के सस्पेंशन की ख़बर भी थी।

शराब, सिगरेट, सुलगन और जिमखाना!

दयानंद पांडेय: उपन्यास-  ”वे जो हारे हुए” : भाग (6) : तो समझो बच्चा कि गांव में गांधीपना मत झाड़ो, गांधी पाकिस्तान को पोसते-पोसते हे राम! बोल गए थे, अब तुम भी गांव में पाकिस्तान बना पोस रहे हो, यह ठीक नहीं है : वह सोया ही था कि फ़ोन की घंटी बजी। उधर से जमाल था, ‘बधाई हो आनंद जी, बहुत-बहुत बधाई!’ ‘कौन?’ वह नींद में ही बोला। उधर से आवाज आई…‘अरे जमाल बोल रहा हूं।’

पहले रिपोर्टर पैसा लेकर ख़बर छापते थे तो हमको लगा कि सीधे हम ही क्यों न पैसा ले लें

दयानंद पांडेय: उपन्यास-  ”वे जो हारे हुए” : भाग (5) : वह गांव गया भी। दो दिन बाद। यह सोच कर कि अब तक क़ासिम को दफ़ना दिया गया होगा। पर अजब संयोग था कि जब वह गांव पहुंचा तो एक घंटे पहले ही क़ासिम का शव शहर से गांव आया था। गांव में सन्नाटा पसरा था। ख़ामोश नहीं, खौलता सन्नाटा। अम्मा उसे देखते ही चौंक गईं। सिर्फ़ चौंकी ही नहीं डर भी गईं। यह पहली बार था कि गांव जाने पर उसे देखते ही अम्मा चौंक कर डर गईं।

इस मिनिस्टर को एक करोड़ रुपए का भाव किसने बताया?

दयानंद पांडेय: उपन्यास-  ”वे जो हारे हुए” : भाग (4) : हम तो समझे थे कि राजनीति में ही पलीता लगा है, पर पत्रकारिता वाले तो राजनीति से भी कहीं आगे निकल रहे हैं : हालांकि काफ़ी हाउस की न वो गंध रही, न वो चरित्र, न वो रंगत। फिर भी कुछ ठलुवे, कुछ थके नेता, बुझे हुए लेखक और कुछ सनकी पत्रकारों के अलावा कुछ एक दूसरे का इंतज़ार करते लोग अब भी ऊंघते-बतियाते, दाढ़ी नोचते दिख जाते हैं। कुछेक जोड़े भी। काफ़ी का स्वाद पहले भी तीखा था, अब भी है।

एक लोहिया थे, जाति तोड़ो, दाम बांधो का पहाड़ा पढ़ाते थे…

दयानंद पांडेय: उपन्यास-  ”वे जो हारे हुए” : भाग (3) : एक थे विनोबा भावे, इमरजेंसी के पोषक संत बन कर वह ख़ुद ही सो गए! :  एक थे जे.पी., जैसे वह जीवन भर सत्ता से दूर रहे वैसे ही उन के अनुयायी सत्ता की छाल देह पर लपेटे बिना सांस नहीं ले पाते : सन्नो जब वकील साहब से छुट्टी पाती तो उनके चचेरे भाई दबोच लेते, बाद में नौकर भी दबोच ले ते :

आप बाहर तो बहुत डेमोक्रेटिक बनते हैं, पर घर में इस क़दर तानाशाही?

दयानंद पांडेय: उपन्यास-  ”वे जो हारे हुए” : भाग (2) : डाक्टर कमरे से निकल कर अंदर हाल में गया जहां लाइन से लाशें रखी हुई थीं। एक स्वीपर को पकड़ कर लाया। जो मुंह पर कपड़ा बांधे हुए था, पर उस की आंखें बता रही थीं कि वह शराब में धुत है। डाक्टर बग़ल के कमरे में बेटी की बाडी दिखाते हुए उसे बताने लगा कि कहां-कहां से क्या-क्या काटना है। उसने डाक्टर की बात को ग़ौर से सुना और बेटी का शव ले कर हाल में चला गया।

चले गए बालेश्वर

[caption id="attachment_19156" align="alignleft" width="107"]स्वर्गीय बालेश्वरस्वर्गीय बालेश्वर[/caption]: स्मृति-शेष : सुधि बिसरवले बा हमार पिया निरमोहिया बनि के :  अवधी की धरती पर भोजपुरी में झंडा गाड़ गया यह लोक गायक : जैसे जाड़ा चुभ रहा है देह में वैसे ही मन में चुभ रहा है आज बालेश्वर का जाना। इस लिए भी कि वह बिलकुल मेरी आंखों के सामने ही आंखें मूंद बैठे। बताऊं कि मैं उनको जीता था, जीता हूं, और शायद जीता रहूंगा।

ह्वेन आई टाक तो आइयै टाक, ह्वेन यू टाक तो यूवै टाक! बट डोंट टाक इन सेंटर-सेंटर

दयानंद पांडेय: उपन्यास-  ”वे जो हारे हुए” : भाग (1) : रात वह सो गया था कि मोबाईल की घंटी बजी। एक बार की घंटी वह आलस में टाल गया। पर जब दुबारा बजी तो रज़ाई में से निकल कर उठना पड़ा। दूसरी तरफ़ से सादिया थी। बोली, ‘आनंद जी मैं सादिया बोल रही हूं।’

संडे से पढ़िए, नया उपन्यास, वे जो हारे हुए

: साफ सुथरी राजनीति और समाज का सपना देखने वाले तमाम-तमाम लोगों के नाम : भारतीय राजनीति और समाज में हो रही भारी टूट-फूट और उथल-पुथल की आह, अकुलाहट और इस की आंच का तापमान भर नहीं है, वे जो हारे हुए। ज़िंदगी की जद्दोजहद का, जिजीविषा और उसकी ललक का आकाश भी है। मूल्यों का अवमूल्यन, सिद्धांतों का तिरोहित हो जाना, इन का अंतर्द्वंद्व और इस मंथन में हारते जा रहे लोगों के त्रास का अंतहीन कंट्रास्ट और उन का वनवास भी है।