शराबी के प्रवचन पर अपुन का प्रवचन

: मृत्यु है क्या, जीवन का अंत, या प्रारंभ, या कि स्वयं शाश्वत जीवन? : हमारे रोने में एक आह थी, एक प्रार्थना थी, जो सभी ईश्वरों से थी : यश जी प्रणाम, आपका आलेख पढ़ा. पढ़ के आनंद हुआ. मैं ये कहूँगा कि दुःख स्थायी भाव नहीं है. सुख भी नहीं. कोई भाव स्थायी हो ही नहीं सकता. सिर्फ वे भाव जो हमारी कल्पना में हैं, वे ही हमारी प्रतीति में स्थायी हो सकते हैं.

दुख को स्थायी भाव बना चुके एक शराबी का प्रवचन

यशवंत: एक शराबी मित्र मिला. वो भी दुख को स्थायी भाव मानता है. जगजीत की मौत के बाद साथ बैठे. नोएडा की एक कपड़ा फैक्ट्री की छत पर. पक रहे मांस की भीनी खुशबू के बीच शराबखोरी हो रही थी. उस विद्वान शराबी दोस्त ने जीवन छोड़ने वाली देह के आकार-प्रकार और पोस्ट डेथ इफेक्ट पर जो तर्क पेश किया उसे नए घूंट संग निगल न सका… :

मैं फिर न सो सका, वो सरेराह खूब सोता मिला

आंख खुलने – जगने से ठीक पहले चेतना लौटने के क्रम में अवसाद का भाव मन-मस्तिष्क में था. दिल-दिमाग रो-रो कर कह रहा था, सक्रिय हो रही चेतना-चैतन्यता से, कि तुम, प्लीज, यूं ही कुछ मिनटों पहले जैसे निष्क्रिय पड़े रहो, चुपचाप रहो, सक्रिय न हो, पड़े ही रहने दो,  वो जो भी अवस्था थी, ठीक इससे पहले, अर्द्धमूर्छित-मूर्छित, कथित सोया हुआ, मुझको, मेरे नश्वर शरीर को, बेतुके दिमाग-दिल को, उसी मोड में रहने दो.