मैं ब्यूरो देखता था जब सीधा सादा कुछ अनाड़ी सा दिखने वाला एक लड़का आया मेरे पास. उसके पास भाषा नहीं थी, उच्चारण भी गड़बड़. स्ट्रिंगरों के साथ होने वाले शोषण से भी अनजान. उसके कपड़े-जूते, हाथ में एक छोटा सा पुराना (शायद किसी से माँगा हुआ) कैमरा और हालत देख कर तरस भी आ रहा था. शुरुआती बातचीत में ही मैं समझ गया था कि पत्रकार होने की उसकी ललक ने एक बार उसे बेगारी और बेरोज़गारी के दुष्चक्र में फंसाया तो बांह पकड़ के बाहर निकालने वाला भी उसके परिवार में कोई नहीं. तर्क-वितर्क का जोड़-घटाव लगातार कह रहा था कि उसे साहिर साहब के गुमराह वाले शेर की तरह कोई अच्छा सा मोड़ देकर छोड़ दूं. लेकिन दिल था कि दिमाग की मानने को तैयार नहीं था. मुझसे मिल-सी नहीं पा रहीं थीं पर, उसकी उन छोटी छोटी आँखों के भीतर बहुत भीतर तक दिख रहा एक आत्मविश्वास था.