Om Thanvi : राजेंद्र यादव तब हमारे बीच थे। उन्होंने मुझे फोन किया कि 'कुख्यात पप्पू यादव' की किताब पर हम लोग चर्चा करेंगे। नामवरजी तैयार हैं, आप भी आइए। मैं बिना हर्ष तैयार हो गया। लिखने का अधिकार सबको है। कोई "कुख्यात" शख्स किताब जैसी पवित्र चीज पर हाथ आजमाए, क्या यह उसका कायांतरण है? मुझे लगा कि जरूर यह किताब पढ़नी चाहिए; अपने को और दुनिया को यह व्यक्ति अब कैसे देखता है, लेखकों-पाठकों के बीच इसकी चर्चा करने में हर्ज क्या है?
राजेंद्रजी के देहावसान के बाद, स्वाभाविक है, वह कार्यक्रम स्थगित हो गया। दुबारा जो तय हुआ, उसमें नेताओं का पलड़ा भारी हो गया था। इसमें मेरी सहमति न थी, पर यह कार्ड देखकर ही जाना और अंततः नहीं गया।
पर इस पर आपत्ति उठी है कि मैंने स्वीकृति ही क्यों दी? क्यों साहब, यह कैसी स्वाधीनता है जहां लिखने, छपने, आने-जाने पर भी नजर रखी जाती है? मैं पप्पू यादव से कभी नहीं मिला। लेकिन उन्हें अपनी बात कहने का हक है। और मुझे अपनी। नहीं है? अगर नेताओं की भीड़ न हो (उस भीड़ से मुझे कोफ्त होती है) और इस किताब पर चर्चा हो तो मैं अब भी जाने को तैयार हूं। अपने निर्णय पर मुझे न कोई पछतावा है, न कोई सफाई देने की जरूरत। अनेक निरपराध लेखकों की बक-झक हम रोज देखते-पढ़ते हैं, अपराधी (हाल-फिलहाल तो जिस पर कोई अपराध भी नहीं) का लिखा पढ़कर देखने में कौन गुनाह घटित हो जाता है? [बाय द वे, कोई यह भी समझाए कि आवाजाही पर जब-तब सफाई मांगने वाली पवित्र आत्माएं हमारे-आपके बीच कहाँ से और किस हक से आ टपकती हैं?]
जनसत्ता अखबार के संपादक ओम थानवी के फेसबुक वॉल से.