…और टूट गई इन पत्रकारों की सूचना आयुक्‍त बनने की उम्‍मीद

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यूपी में सूचना आयुक्‍तों के खाली पड़े पदों पर नियुक्ति की जा चुकी है. इसमें आधे से ज्‍यादा पत्रकार हैं. इनके बारे में कहा जाता है कि ये लोग नेताजी और सपा के दरबारी हुआ करते थे. अखिलेश सरकार में भी ये लोग कलम बेचकर लगे हुए थे, लिहाजा उनको इसका प्रतिफल मिल चुका है. पर अब भी वे पत्रकार इस बात को पचा नहीं पा रहे हैं, जो किसी की भी सरकार रहे, मलाई जरूर खाते थे और इस सरकार में भी सूचना आयुक्‍त बनने के लिए जी जान से जुटे हुए थे. ऐसे कई लोग इस सदमे को बरदास्‍त कर पाने की स्थिति नहीं हैं.

शुरुआत सरकारी चैनल में काम कर चुके एक पत्रकार से. ये पत्रकार भी सूचना आयुक्‍त बनकर बची खुची जिंदगी आराम से काटना चाहते थे. दिन भर विधानसभा की प्रेस रूम में बैठकर सूचना आयुक्‍त बनने के सपने देखा करते थे. पर लिस्‍ट जारी होने के बाद इनकी उम्‍मीदों का दीवान टूटकर जमीन पर गिर गया.

दूसरे पत्रकार भी लखनऊ में लंबे समय से कार्यरत हैं. भोकाल में कोई कमी नहीं है. भाजपा की सरकार रही हो, सपा की सरकार रही हो या फिर बसपा की, सबमें इनकी दाल गली. इस बार ये भी सूचना आयुक्‍त बनने की कोशिश में जुटे हुए थे. लेकिन बसपा से नजदीकी इनके खिलाफ चली गई. आजकल एक चैनल से जुड़े हुए हैं. इनको सूचना आयुक्‍त बनवाने का ठेका पत्रकारों ने नेता 'विक्रमादित्‍य' ने ले रखी थी. लेकिन सफलता नहीं मिली. सूचना आयुक्‍त बनने की ख्‍वाहिश में इन्‍होंने अपने शादी के नाम पर होटल ताज में पार्टी दी थी, लेकिन सारे किए धरे पर पानी फिर गया.

एक और जनाब थे सूचना आयुक्‍त की दौड़ में. पिछले बीस सालों से किसी अखबार में नौकरी नहीं की या मिली नहीं, इसकी जानकारी नही है, लेकिन यह अपने पूर्व अखबार, जो उस दौरान बंद होने के बाद पांच-छह महीना पूर्व नए सिरे से लांच हुआ है, का नाम लेकर परिचय देकर जगह बनाने की कोशिश करते रहते हैं. ये भी सूचना आयुक्‍त की दौड़ में बड़ी तल्‍लीनता से लगे थे, लेकिन सपा सरकार ने इन्‍हें भी बाबा जी का ठुल्‍लू थमा दिया.

देश में तीसरे पायदान पर खड़े हिंदी अखबार के एक पूर्व संपादक भी इस रेस में लगे थे. नेताजी का गुणगान भी अक्‍सर अपने अखबार के माध्‍यम से करते रहते थे. इन्‍हें पूरी उम्‍मीद थी कि नेताजी उनका उपकार जरूर चुकाएंगे, लेकिन जब नवीन सूचना आयुक्‍तों की घोषणा हुई तो इनका जोश खतम हो गया. इनके अलावा एक अंग्रेजी अखबार की संपादक भी इस रेस में खुद को मान रही थीं, उन्‍होंने प्रदेश के मुखिया पर किताब भी लिखी थी, लेकिन लिखा-पढ़ी और किताब कापी कोई काम नहीं आया. ऐड़ा बनकर सूचना आयुक्‍त पद का पेड़ा कोई और खा गया.

लखनऊ के एक और बड़े पत्रकार, जो अपने ज्ञान का सार्वजनिक प्रदर्शन के अलावा नैतिकता का लबादा भी ओढ़े रहते हैं, भी इस दौड़ में लगे हुए थे. हालांकि कुछ लोगों ने उनके नैतिकता की पोल उस समय सार्वजनिक कर दी, जब खुद सरकारी मकान में रहने और अपने मकान का कामर्शियल इस्‍तेमाल करने की कहानी लखनऊ की गलियों में सुनाने लगे. इनकी भी नेताजी से खास जमती थी, लेकिन आखिरी मौका पर गच्‍चा खा गए. हालांकि यह कहा जा सकता है कि दावेदारों में ये सबसे काबिल जरूर थे.

लखनऊ से छपने वाले एक पुराने अखबार के पत्रकार भी इस दौड़ में शामिल थे. वे पत्रकारिता भले कम करते थे, लेकिन नेताजी का पैर छूने में कभी कोई कमी नहीं की थी. पर नतीजा सामने आने के बाद यह सदमे में हैं. स्‍वतंत्र भारत देश इन्‍हें रास नहीं आ रहा है.

इन लोगों के अलावा अल्‍पसंख्‍यक कोटे से एक वकील कम पत्रकार भी इस रेस में शामिल थे. इन्‍हें सूचना आयुक्‍त बनवाने की सुपारी जौनपुर वाले एक पत्रकार ने ले रखी थी. हालांकि ठेका देने के बाद भी पत्रकार महोदय वकील साहब को सूचना आयुक्‍त बनने की राज्‍य स्‍तरीय मान्‍यता नहीं दिला सके. इनके अलावा भी दर्जनों पत्रकारों के अरमान भी सरकार ने तोड़ दिए. वे न तो हंस पा रहे हैं और ना रही रो पा रहे हैं. (कानाफूसी)

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