कुछ टीवी चैनलों पर बातचीत के लिए आमंत्रण और फिर न बात होना न चीत, यह तो मेरी निजी समस्या रही। मित्रों ने अख़बारों का ज़िक्र किया है। विज्ञापनों के मामले में उनका हाल और बुरा है। हाल में भोपाल और जयपुर की यात्राओं में देखा कि प्रादेशिक अख़बारों में विज्ञापन के अनुपात का कोई क़ायदा आयद नहीं है। कुछ पन्नों पर तो ऊपर तक चढ़े विज्ञापनों के गिर्द ख़बरों को जैसे खुर्दबीन लेकर ढूंढ़ना पड़ता है। आम तौर पर पहले 60:40 का क़ायदा होता था, यानी 60 प्रतिशत पठन-सामग्री और 40 प्रतिशत विज्ञापन। अजीबोगरीब बात यह है कि देश में कोई ऐसा संगठन भी नहीं है जो अख़बारों या टीवी पर विज्ञापन का अनुपात नियंत्रित कर सके।
वरिष्ठ पत्रकार एवं जनसत्ता के संपादक ओम थानवी के फेसबुक वाल से साभार.