Jagadishwar Chaturvedi : दो दिन की हड़ताल के बाद मीडिया में जनता बनाम मजदूरवर्ग के हितों के सवाल को खड़ा किया जा रहा है। बार-बार यह दिखाया जा रहा है हड़ताल के कारण बीमार को अस्पताल पहुँचने में तकलीफ हुई, बच्चे स्कूल नहीं जा पाए, आदि सामान्य जीवन के त्रासद दृश्यों को मजदूरों की हड़ताल को जनविरोधी साबित करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। सच यह है कि अपनी मांगों की सुनवाई के लिए मजदूर सालों-साल इंतजार करते रहे हैं, कोई उनकी बात नहीं सुन रहा। औने-पौने मेहनताने पर काम कर रहे हैं। अधिकांश मजदूर अकल्पनीय शारीरिक कष्ट में रहकर काम कर रहे हैं। मीडिया में मजदूरों के कष्टों को न बताना मजदूरों के मानवाधिकारों का उल्लंघन है। यह उल्लंघन हमारा तथाकथित लोकप्रिय मीडिया रोज करता है। वे साल में एक भी दिन मजदूर की बस्ती में नहीं जाते।
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मजेदार बात यह है कि प.बंगाल की ममता सरकार और केरल की कांग्रेस के नेतृत्ववाली राज्य सरकार ने हड़ताल करने के अधिकार पर सीधे हमला बोला है। दोनों राज्यों में सरकारों ने बंद विरोधी फैसला लिया और हड़ताल को अवैध घोषित किया है।
Rising Rahul : वाकई ये समय बरबरता और सपनों की हत्या का ही समय है। समाचार चैनलों की सुबह की चीख सिर्फ सुबह घर से निकलकर टैक्सी या ऑटो का महंगा भाड़ा चुकाने वालों के लिए तेज हो रही है। और अब शाम को काम से सीधे घर लौटकर जाने वालों के लिए। क्या फर्क पड़ता है अगर हड़ताल में शामिल लोग अपने सपनों को बचाने की गंभीर जद्दोजहद में लगे हैं। क्या फर्क पड़ता है अगर कर्मचारी विदेशी निवेश का विरोध कर रहे हैं। क्या फर्क पड़ता है कि हड़ताल में शामिल 10 करोड़ से भी ज्यादा लोगों ने आज दिन का खाना नहीं खाया है। क्या फर्क पड़ता है कि उनमें से कई ऐसे थे, जो दो दिन बाद कमाएंगे, तब खाएंगे। महत्वपूर्ण तो बरबरता और क्रूरता है। कोई भी समाचार चैनल लगाइये और देखिए, कैसे ये चवन्नी चोर पत्रकार सपनों की हत्या करते हैं। न न, ये मत कहिए कि हाथ बंधे हैं। दम नहीं है आपमें लत्तरकार ब्ंधुओं।
जगदीश्वर चतुर्वेदी और राहुल पांडेय के फेसबुक वॉल से.