कोलकाता में हिंदी पत्रकारिता वैसे ही दुर्दिन में चल रही है, उस पर खुद को देश का नंबर एक अखबार बताने वाले दैनिक जागरण की हालत भी खराब हो गई है. जनसेवा के नाम पर पत्रकारिता की दुकानदारी चलाने वाला जागरण अब अपने पत्रकारों को ठीक से वेतन भी नहीं दे रहा है. पहले ही यहां के पत्रकारों से कम वेतन पर काम करवाया जा रहा है. दूसरे कुछ पत्रकारों को अपना तनख्वाह बाजार से ही उठाने का निर्देश दे दिया गया है. यानी विज्ञापन से लाओ चाहे मार्केट से किसी को ब्लैकमेल करके के उठाओ इससे जागरण को कोई मतलब नहीं है.
कोलकाता में दैनिक जागरण समेत हिंदी के पत्रकारों की इस दशा को देखने वाला कोई नहीं रह गया है. कोलकाता प्रेस क्लब में भी हिंदी के पत्रकारों को वैसे ही दूसरे दर्जे की मान्यता प्राप्त है. बड़े-बड़े हौसले और आश्वासन देने वाले यहां आते जरूर हैं, मगर हिंदी की गर्दन पर कुर्सी रखकर बैठे कुछ दलालों के चंगुल में फंस जाते हैं, जिसके कारण हिंदी के पत्रकारों को न तो ढंग के पैसे मिल पाते हैं और ना ही वो सम्मान, जिसके वे हकदार होते हैं. यहां सिर्फ कुछ मठाधीश अपनी दुकानदारी चलाए जा रहे हैं. कोलकाता में जन्मी पत्रकारिता कब मर गई पता ही नहीं चला! अब तो हिंदी के पत्रकारों की दशा बहुत बुरी है, खासकर दैनिक जागरण के पत्रकारों की. पत्रकार भुखमरी के कगार पर हैं, अगर कोई बचा सकता है तो बचा ले. हालांकि इसके आसार दूर दूर तक नजर नहीं आ रहे. यहां संवाददाताओं और बंधुआ मजदूरों में कोई ज्यादा अंतर नहीं है. नाम स्ट्रिंगर, काम पूरा और वेतन, मत पूछिए हुजूर यह अंदर की बात है.
एक पत्रकार द्वारा भेजे गये पत्र पर आधारित.