: स्व नियमन की आड़ में सत्तानुकुल बन गया है बीईए : अगर ब्राडकास्ट एडिटर एसोशियसेशन [बीईए] की चलती तो बलात्कार की त्रासदी का वह सच सामने आ ही नहीं पाता जो लड़की के दोस्त ने अपने इंटरव्यू में बता दिया। दिल्ली की लड़की के बलात्कार के बाद जिस तरह का आक्रोश दिल्ली ही नहीं समूचे देश की सड़को़ पर दिखायी दिया उसे दिखाने वाले राष्ट्रीय न्यूज चैनलों ने ही स्वयं नियमन की ऐसी लक्ष्मण रेखा अपने टीवी स्क्रिन से लेकर पत्रकारिता को लेकर खिंची कि झटके में पत्रकारिता हाशिये पर चली गई और चैनलों के कैमरे ही संपादक की भूमिका में आ गये। यानी कैमरा जो देखे वही पत्रकारिता और कैमरे की तस्वीरों को बड़ा बताना या कुछ छुपाना ही बीईए की पत्रकारिता।
जरा सिलसिलेवार तरीके से न्यूज चैनलों की पत्रकारिता के सच को बलात्कार के बाद देश में उपजे आक्रोश तले स्वय नियमन को परखे। लड़की का वह दोस्त जो एक न्यूज चैनल के इंटरव्यू में प्रगट हुआ और पुलिस से लेकर दिल्ली की सड़कों पर संवेदनहीन भागते दौड़ते लोगों के सच को बताकर आक्रोश के तौर तरीकों को ही कटघरे में खड़ा कर गया। वह पहले भी सामने आ सकता था।
पुलिस जब राजपथ से लेकर जनपथ और इंडिया गेट से लेकर जंतर-मंतर पर आक्रोश में नारे लगाते युवाओं पर पानी की बौछार और आंसू गैस से लेकर डंडे बरसा रही थी, अगर उस वक्त यह सच सामने आ चुका होता कि दिल्ली पुलिस तो बलात्कार की भुक्तभोगी को किस थाने और किस अस्पताल में ले जाये, इसे लेकर आधे घंटे तक भिडी रही तो क्या राजपथ से लेकर जंतर मंतर पर सरकार में यह नैतिक साहस रहता कि उसी पुलिस के आसरे युवाओं के आक्रोश को थामने के लिये डंडा, आंसू गैस या पानी की बौछार चलवा पाती। या फिर जलती हुई मोमबत्तियों के आसरे अपने दुख और लंपट चकाचौंध में खोती व्यवस्था पर अंगुली उठाने वाले लोगों का यह सच पहले सामने आ जाता कि सड़क पर लड़की और लड़का नग्न अवस्था में पडे़ रहे और कोई रुका नहीं। जो रुका वह खुद को असहाय समझ कर बस खड़ा ही रहा।
अगर यह इंटरव्यू पहले आ गया होता तो न्यूज चैनलों पर दस दिनों तक लगातार चलती बहस में हर आम आदमी को यह शर्म तो महसूस होती ही कि वह भी कहीं ना कही इस व्यवस्था में गुनहगार हो गया है या बना दिया गया है। लेकिन इंटरव्यू पुलिस की चार्जशीट दाखिल होने के बाद आया। यानी जो पुलिस डर और खौफ का पर्याय अपने आप में समाज के भीतर बन चुकी है उसे ही जांच की कार्रवाई करनी है। सवाल यही से खड़ा होता है कि आखिर जो संविधान हमारी संसदीय व्यवस्था या सत्ता को लेकर चैक एंड बैलेस की परिस्थियां पैदा करना चाहता है, उसके ठीक उलट सत्ता और व्यवस्था ही सहमति का राग लोकतंत्र के आधार पर बनाने में क्यों लग चुकी है और मीडिया इसमें अहम भूमिका निभाने लगा है।
यह सवाल इसलिये क्योंकि मीडिया की भूमिका मौजूदा दौर में सबसे व्यापक और किसी भी मुद्दे को विस्तार देने वाली हो चुकी है। इसलिये किसी भी मुद्दे पर विरोध के स्वर हो या जनआंदोलन सरकार सबसे पहले मीडिया की नब्ज को ही दबाती है। मुश्किल सिर्फ सरकार की एडवाइजरी का नहीं है सवाल इस दौर में मीडिया के रुख का भी है जो पत्रकारिता को सत्ता के पिलर पर खड़ा कर परिभाषित करने लगी है। बलात्कार के खिलाफ जब युवा रायसीना हिल्स के सीने पर चढ़े तो पत्रकारिता को सरकार की धारा 144 में कानून उल्लंघन दिखायी देने लगा। लोगों का आक्रोश जब दिल्ली की हर सड़क पर उमड़ने लगा तो मेट्रो की आवाजाही रोक दी गई, लेकिन पत्रकारिता ने सरकार के रुख पर अंगुली नहीं उठायी बल्कि मेट्रो के दर्जनों स्टेशनों के बंद को सुरक्षा से जोड़ दिया। जब इंडिया-गेट की तरफ जाने वाली हर सड़क को बैरिकेट से खाकी वर्दी ने कस दिया तो न्यूज चैनलों की पत्रकारिता ने सरकार की चाक-चौबंद व्यवस्था के कसीदे ही गढे़।
न्यूज चैनलों की स्वयं नियमन की पत्रकारीय समझ ने न्यूज चैनलों में काम करने वाले हर रिपोर्टर को यह सीख दे दी की सत्ता बरकार रहे। सरकार पर आंच ना आये। और सड़क का विरोध प्रदर्शन हदों में चलता रहे यही दिखाना बतानी है, और लोकतंत्र यही कहता है। इसलिये सरकार की एडवाइजरी से एक कदम आगे बीईए की गाईंडलाइन्स आ गई। सिंगापुर से ताबूत में बंद लडकी दिल्ली कैसे रात में पहुंची और सुबह सवेरे कैसे लड़की का अंतिम सस्कार कर दिया गया। यह सब न्यूज चैनलों से गायब हो गया क्योंकि बीईए की स्वयंनियमन पत्रकारिता को लगा कि इससे देश की भावनाओ में उबाल आ सकता है या फिर बलात्कार की त्रासदी के साथ भावनात्मक खेल हो सकता है। किसी न्यूज चैनल की ओबी वैन और कैमरे की भीड़ ने उस रात दिल्ली के घुप्प अंधेरे को चीरने की कोशिश नहीं की जिस घुप्प अंघेरे में राजनीतिक उजियारा लिये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर सोनिया गांधी और दिल्ली की सीएम से लेकर विपक्ष के दमदार नेता एकजुट होकर आंसू बहाकर ताबूत में बंद लड़की की आखरी विदाई में शरीक हुये।
अगर न्यूज चैनल पत्रकारिता कर रहे होते तो 28 दिसबंर की रात जब लड़की को इलाज के लिये सिंगापुर ले जाया जा रहा था, उससे पहले सफदरजंग अस्पताल में लड़की के परिवार वाले और लड़की का साथी किस अवस्था में में रो रो कर लड़की का मातम मना रहे थे, यह सब तब सामने ना आ जाता जो सिंगापुर में 48 घंटे के भीतर लड़की की मौत को लेकर दिल्ली में 31 दिसबंर को सवाल उठने लगे। आखिर क्यों कोई न्यूज चैनल उस दौर में लड़की के परिवार के किसी सदस्य या उसके साथी लड़के की बात को नहीं दिखा रहा था। जबकि लड़का और उसका मामा तो हर वक्त मीडिया के लिये उपलब्ध था। परिवार के सदस्य हो या लड़की का साथी। आखिर सभी को अस्पताल में दिल्ली पुलिस ने ही कह रखा था कि मीडिया के सामने ना जाये। मीडिया से बातचीत ना करें। केस बिगड़ सकता है।
वहीं जिस तरह बलात्कार को लेकर सड़क पर सरकार-पुलिस और व्यवस्था को लेकर आक्रोश उमड़ा उसने ना सिर्फ न्यूज चैनलों के संपादकों को बल्कि संपादकों ने अपने स्वयं नियमन के लिये मिलकर बनायी ब्राडकास्ट एडिटर एसोसियेशन यानी बीईए के जरिये पत्राकरिता को ताक पर रख सरकारनुकुल नियमावली बनाकर काम करना शुरू कर दिया। मसलन नंबर वन चैनल पर लड़के के मामा का इंटरव्यू चला तो उसका चेहरा भी ब्लर कर दिया गया। एक चैनल पर लड़की के पिता का इंटरव्यू चला तो चैनल का एंकर पांच मिनट तक यही बताता रहा कि उसने क्यों लड़की के पिता का नाम, चेहरे, जगह यानी सबकुछ गुप्त रखा है। जबकि इन दोनों के इंटरव्यू लड़की की मौत के बाद लिये गये थे। यानी हर स्तर पर न्यूज चैनल की पत्रकारिता सत्तानुकुल एक ऐसी लकीर खिंचती रही या सत्तानुकुल होकर ही पत्रकारिता करनी चाहिये यह बताती रही। यानी ध्यान दें तो बीईए बना इसलिये था कि सरकार चैनलों पर नकेल ना कस लें। और जिस वक्त सरकार न्यूज चैनलों पर नकेल कसने की बात कर रही थी तब न्यूज चैनलों का ध्यान खबरों पर नहीं बल्कि तमाशे पर ज्यादा था।
इसिलिये स्वयं नियमन का सवाल उठाकर न्यूज चैनलों के खुद को एकजुट किया और बीईए बनाया। लेकिन धीरे धीरे यही बीईए कैसे जड़वत होता गया संयोग से बलात्कार की कवरेज के दौरान लड़की के दोस्त के उस इंटरव्यू ने बता दिया जो ले कोई भी सकता था, लेकिन दिखाने और लेने की हिम्मत उसी संपादक ने दिखायी जो खुद कटघरे में है और बीईए ने उसे खुद से बेदखल कर दिया है। इसलिये अब सवाल कहीं बड़ा है कि न्यूज चैनलों को स्वयं नियमन का ऐलान बीईए के जरिये करना है या फिर पत्रकारिता का मतलब ही स्वयं नियमन होता है, जो सत्ता और सरकार से डर कर संपादकों का कोई संगठन बना कर पत्रकारिता नहीं करते। बल्कि किसी रिपोर्टर की रिपोर्ट भी कभी कभी संपादक में पैनापन ला देती है। संयोग से न्यूज चैनलों की पत्रकारिता संपादकों के स्वंय नियमन पर टिक गयी है, इसलिये किसी चैनल का कोई रिपोर्टर यह खड़ा होकर भी नहीं कह पाया कि जब लड़की को इलाज के लिये सिंगापुर ले जाया जा रहा था, उसी वक्त उसके परिजनों और इंटरव्यू देने वाले साथी लड़के ने मौत के गम को जी लिया था।
वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी के ब्लॉग से साभार.