: देश पर वोट बैंक भारी : जी हां, लगभग सभी दल, सामाजिक तनाव के कारोबारी हैं. धर्म, जाति और गोत्र के रूप में ‘वोट बैंक’ विकसित करना, इसी राजनीति की कड़ी है. इसका ही प्रतिफल है, दंगा, जातीय-क्षेत्रीय संघर्ष. आप लगातार धर्म, जाति, द्वेष, घृणा, पक्षपात, ‘फेवर’ की राजनीति-रणनीति पर चलेंगे, तो समाज में नफरत, घृणा, द्वेष की ही फसल लगायेंगे. दंगे, जातीय संहार, आपसी कटुता, वैमनस्य तो इसी फसल की स्वाभाविक उपज हैं.
ऊपर से ‘गद्दी’ (किसी सिद्धांत या आदर्श के लिए नहीं, महज पैसा कमाने के लिए और राजनीति को परिवार की स्थायी विरासत बना लेने के लिए) की राजनीति ने हुकूमत का प्रताप, राज्य का रसूख और कानून का भय ही खत्म कर दिया है. फिर दंगे-फसाद या अराजकता तो इसी दम तोड़ चुकी गवर्नेस-संस्कृति की देन हैं न! फिर नेता किससे सहानुभूति पाने के लिए छाती पीटते हैं?
मुजफ्फरनगर दंगे से ही शुरुआत करें. ताजा प्रकरण है. इसे रोक पाना कैसे असंभव था? जो सूचनाएं मिली हैं, उनके अनुसार घटना की शुरुआत छेड़खानी से हुई. दो भाई, अपनी बहन के साथ एक गांव से गुजर रहे थे. बहन के साथ छेड़खानी हुई, तो भाइयों ने हमला किया और छेड़खानी करनेवाला मारा गया. फिर गांव की भीड़ ने खदेड़ कर गांव में ही, लगभग उसी जगह उन दोनों भाइयों को मार डाला. अगर दोनों पक्षों पर तत्काल एफआइआर और निष्पक्ष कार्रवाई हुई होती, तो बात आगे बढ़ती?
पर इसके बाद दोनों समुदायों को जातीय पंचायत की इजाजत दी गयी. इसी बीच दो सीनियर अफसरों (जिनमें से एक हिंदू और एक मुसलमान थे) का तबादला कर दिया गया. सूचनानुसार दोनों ईमानदार और इफीशिएंट (कुशल) अफसर थे. पर उन्हें समाजवादी पार्टी के हुक्मरानों ने कार्रवाई नहीं करने को मजबूर कर दिया. दोनों गुटों का ‘वोट बैंक’ मैनेज करने के लिए. अफसर अगर अपनी कांपिटेंस, निष्पक्षता और ईमानदारी के लिए बदले जाने लगें, तो क्या होगा? आज देश में इसी प्रशासनिक विफलता की देन है, अराजकता, दंगे, तनाव वगैरह.
घटना के बाद 14 दिन बिना कार्रवाई की स्थिति रही. भावना की आग को सुलगने और दहकने की इजाजत दी गयी. इसी बीच मुजफ्फरनगर और आसपास उत्तेजना, भावना, जातीय-सांप्रदायिक उद्वेग की फसल बोयी जाती रही. दोनों समूहों से तीन जातीय पंचायतें हुईं. इस उत्तेजना के माहौल में इन पंचायतों को बुलाने की छूट किसने दी? हुकूमत किसके हाथ में थी? एक पंचायत के दौरान तो एक समूह ने दूसरे समूह पर आने-जाने के दौरान हमला किया.
टीवी पर दिखाये दृश्य के अनुसार एक नहर के पुल पर दोनों ओर से घेर कर उसी पंचायत से लौटते लोगों पर हमला हुआ. सात-आठ ट्रैक्टर फूं के गये. लोग नहरों में कू दे. जान बचाने के लिए. सामने उत्तर प्रदेश की पुलिस ‘पीएसी’ खड़ी थी. हमलों से डर-भाग रहे लोगों ने पुलिस से जान बचाने की भीख मांगी. पर, पुलिस का जवाब था कि ऊपर से आदेश है कि कुछ न करें. यह कल्पनातीत स्थिति है! पुलिस-प्रशासन सरकार की प्रतिनिधि या प्रतीक हैं! उस राजसत्ता के सामने निर्दोष लोगों पर हमले हों और सरकार के नुमाइंदे कहें कि हम कुछ नहीं कर सकते? यह अकल्पनीय स्थिति देश में हो गयी है.
पहली गलती हुई कि छेड़खानी के तत्काल बाद एक एफआइआर नहीं हुआ. दोनों पक्षों के खिलाफ एफआइआर होता, कार्रवाई होती, तो सरकारी निष्पक्षता, सक्रियता का संदेश सभी वर्गो में जाता. पर लखनऊ में सत्ता में बैठे लोगों को लगा कि त्वरित कार्रवाई या एफआइआर से दोनों समुदायों के वोट प्रभावित होंगे. शासन के इकबाल-प्रताप की जहां जरूरत हो, वहां वोट बैंक की चिंता होगी, तो स्थिति कैसे संभलेगी? भारतीय समाज के साथ एक और बड़ी दुर्घटना हुई है. चाहे हिंदू हों या मुसलमान या कोई अन्य, घर-समाज में पहले बड़े-बुजुर्ग होते थे, पंचायतें होती थीं, वे ही ऐसी छेड़खानी वगैरह की स्थिति संभाल लेते थे. पर अमेरिका या आधुनिक संस्कृति के प्रभाव ने बड़े-बुजुर्ग या गांव-पंचायतों को बेअसर कर दिया है. पहले के सामाजिक मूल्य होते, तो छेड़खानी का यह मामला भी गांव में ही लोग बैठ कर सुलझा लेते. आज समाज टूट गया है, और शासन संभाल नहीं पा रहा, यह स्थिति है.
केंद्र सरकार का गृह मंत्रलय कहता है कि अखिलेश राज में सौ से अधिक छोटे-बड़े दंगे हो चुके हैं. कैसे बार-बार दंगे हो रहे हैं? क्या कर रही है, राज्य सरकार? और अगर राज्य सरकार विफल है, तो केंद्र क्यों चुप व असहाय है? क्या केंद्र और राज्य सरकार की जिम्मेदारी महज इससे खत्म हो जाती है कि विपक्ष को दोषी बता दो. अगर विपक्ष दोषी है, तो कार्रवाई से किसने रोका है? केंद्र के गृहमंत्री यह सूचना दे रहे हैं कि अभी और दंगे होंगे. गृहमंत्री का काम सूचना देना है या कार्रवाई करना? दरअसल पेच यही है. सांप्रदायिक राजनीति चुनाव के दौरान सबको सुहाती है. क्यों कांग्रेस ने राजीव गांधी के कार्यकाल में अयोध्या मंदिर का ताला खुलवाया? क्या यह सब बोफोर्स और अन्य प्रकरणों से ध्यान हटाने के लिए था?
याद रखिए शाहबानो प्रकरण. इसके बाद अयोध्या में ताला खुलना. एक समूह को खुश करने के लिए आप कानून बदलेंगे, तो कल दूसरा समूह भी मांग करेगा. क्या ऐसी रणनीति से देश चलता है? एक वर्ग शाहबानो प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से नाराज हुआ, तो दूसरे वर्ग को खुश करने के लिए आपने अयोध्या में मंदिर का ताला खुलवा दिया. इस रणनीति से तात्कालिक सत्ता या गद्दी भले ही मिले, पर दीर्घकाल में देश-समाज एक नहीं रह सकते. इससे पहले लौट कर देखें, तो 1964 में राउरकेला का दंगा, 1967 में रांची दंगा, 1969 में अहमदाबाद दंगा, 1970 में भिवंडी दंगा, 1979 में जमशेदपुर दंगा, 1980 में मुरादाबाद दंगा, 1983 में असम के नेल्ली का दंगा, 1984 के दंगे, 1984 में भिवंडी दंगा, 1985 में गुजरात के दंगे, 1986 में अहमदाबाद के दंगे, 1987 में मेरठ के दंगे, 1989 में भागलपुर के दंगे, 1990 में हैदराबाद के दंगे, 1992 में मुंबई के दंगे, अलीगढ़ के दंगे, सूरत के दंगे, बाबरी मस्जिद प्रकरण, गोधरा प्रकरण, 2002 के गुजरात के दंगे और अब उत्तर प्रदेश में लगातार हो रहे दंगे.
दरअसल, इन दंगों के पीछे राजनीतिक दलों का खेल है. दंगों का सामाजिक ध्रुवीकरण अगर भाजपा के पक्ष में जाता है, तो कांग्रेस को भी इससे लाभ है. इसी तरह अब क्षेत्रीय दलों का भी इसमें गहरा स्वार्थ है. कांग्रेस का एक वर्ग बेचैन था कि भाजपा जल्द नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करे, ताकि चुनावी लाभ के लिए पूरे देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया जाये. इसका तात्कालिक लाभ यह होगा कि कांग्रेस के शासन में जो स्तब्ध कर देनेवाले भ्रष्टाचार हुए हैं, अर्थव्यवस्था जिस दुर्दिन में है, नौकरियां जिस तरह खत्म हो रही हैं, महंगाई की मार से जिस तरह लोग तबाह हैं, ऐसे सवाल चुनावी मुद्दे न बनें.
दरअसल, देश में सांप्रदायिकता का सवाल नासूर बन गया है. अब यह जन-पहल से ही ठीक हो सकता है. दुनिया के बड़े विचारक आज भी यह मानते हैं कि हिंदुस्तान अगर धर्मनिरपेक्ष है, तो यह बहुसंख्यक उदारवादी हिंदुओं के ही कारण है. हिंदू धर्म की सबसे बड़ी खूबी है कि यह अत्यंत उदार धर्म है. आप आस्तिक या नास्तिक होकर भी हिंदू रह सकते हैं. आप कर्मकांडी या धर्मविरोधी हैं, तब भी आप इसी धर्म में हैं. अपनी उदारता के कारण ही यह धर्म, सनातन है. यह सौंदर्य किसी कीमत पर बना रहना चाहिए. अगर हम पाकिस्तान और बांग्लादेश की श्रेणी में शरीक होकर, वहां की तरह अल्पसंख्यकों को तबाह करनेवाली छवि बना लें, तो भारत का सत्व दावं पर लग जायेगा. इसी तरह भारतीय मुसलमानों (कुछेक अपवादों को छोड़ कर, जो हर जगह हैं) में भी बड़ा तबका, देश की जमीन से जुड़ा है, वैसे ही जैसे कोई अन्य.
हां, मुसलमानों के बीच भी सूफियों की परंपरा, हामिद दलवई जैसे चिंतकों की धारा और बलवती हो, आज यह देश के लिए जरूरी है. डॉ लोहिया ने यह सपना देखा था कि भारत तभी एक आदर्श देश होगा, जब हिंदुओं की रहनुमाई मुसलमान नेता करेंगे और मुसलमानों की रहनुमाई हिंदू नेता करेंगे. पर आज हो क्या रहा है? सभी नेता अपनी-अपनी जाति, धर्म, गोत्र के प्रवक्ता बन गये हैं. इस रास्ते भारत फिर खंड-खंड होगा. क्षेत्रीय दल तो वोट बैंक बनाने के लिए इस तरह आगे बढ़ गये हैं कि वे स्थापित आतंकवादियों के खिलाफ भी कार्रवाई नहीं कर रहे. उन्हें लगता है कि इससे उनका वोट बैंक बन रहा है. हकीकत यह है कि 99.9 फीसदी अल्पसंख्यक भी इन आतंकवादियों से वैसे ही तबाह और परेशान हैं, जैसे अन्य लोग.
पर हद तो तब हो गयी कि यासीन भटकल को लेकर भी विवाद खड़ा किया गया. असल खबर यह है कि यासीन भटकल, उत्तर प्रदेश में रहता था. वहीं से पकड़ा गया. उत्तर प्रदेश की सरकार ने कहा कि उसकी गिरफ्तारी यहां से न दिखायें. तब उसकी गिरफ्तारी नेपाल से दिखायी गयी. दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में से एक द इकनॉमिस्ट (07.09.2013, पेज-27) में इससे जुड़ी खबर छपी है. उसे पकड़ने का श्रेय आइबी (इंटेलिजेंस ब्यूरो) को है. एक आदमी, जो दर्जनों विस्फोटों और सैकड़ों निर्दोषों की जान लेने का अपराधी है, वह उत्तर प्रदेश में रहे और वहां की सरकार की पुलिस न पकड़े, ऐसे राज चलता है?
इसी तरह दूसरे नंबर के बड़े आतंकवादी के रूप में जिस लड़के का नाम आया, वह आजमगढ़ का है. पुलिस और आइबी ने उसके खिलाफ सबूत देकर देश को बताया कि वह कितना बड़ा मोस्ट वांटेड आतंकवादी है. उसके घर जाकर कांग्रेस के एक बड़े नेता ने उसे निदरेष घोषित कर दिया. ऐसा क्यों? हकीकत यह है अपराधियों की जाति या धर्म नहीं होता. इसी तरह दंगाई हैं. वे कोई भी हों, कानून व मानवता के विरोधी हैं. आज जरूरत है कि हर भारतीय मन में यह बात साफ कर ले कि आतंकवादी हिंदू हो या मुसलमान, दोनों समाजों की बहुसंख्यक जनता ऐसे लोगों को पसंद नहीं करती है.
सच यह है कि आज राजसत्ता ने अपना धर्म छोड़ दिया है. सरकारों में बैठे लोग, अपना फर्ज भूल गये हैं. भारत कभी हमलावर नहीं रहा. यह उसका सौंदर्य है, साथ ही उसका सौंदर्य है, उसकी विविधता. यह विविधता ही इसका सौंदर्य और सनातनता है. हर कीमत पर इसे बचाने की कोशिश होनी चाहिए. इसके लिए एक ही रास्ता है कि हिंदू-मुसलमान या अन्य समुदायों के समझदार लोग सामने आयें और समाज के स्तर पर भारत को मजबूत बनाने का अभियान चलायें.
देवगौड़ा ने प्रधानमंत्री के तौर पर संसद में अयोध्या के हल के संबंध में कहा था. फिर नरसिंह राव ने भी अयोध्या प्रकरण पर अपनी पुस्तक (जो उनकी मृत्यु के बाद छपी) में लिखा था. दोनों ने ऑन रिकार्ड कहा कि चंद्रशेखर सरकार रहती, तो अयोध्या का हल निकल गया होता. गुजरात सरकार ने भी यह माना था. यह बहुत कम लोग जानते हैं कि अयोध्या के लिए बातचीत का माहौल कैसे बना? पहले दोनों पक्ष एक साथ बैठने के लिए तैयार नहीं थे. चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने. दस दिनों के अंदर ही उन्होंने दोनों पक्षों को संदेश भिजवाया कि हल निकालने का रास्ता बताइए. दोनों ने बातचीत से दूरी दिखायी. विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने संदेश भेजा कि उन्हें प्रधानमंत्री के यहां मिलने में संकोच है. बहुत सुरक्षा वगैरह रहती है. कुछ ऐसी ही टालू बात बाबरी मस्जिद पक्ष के लोगों ने भी की.
चंद्रशेखर ने फिर विहिप को संदेश भेजा. उन लोगों ने सूचना दी कि हमारी बैठक हो रही है, हम उसमें व्यस्त हैं. यह बैठक दिल्ली में विजयराजे सिंधिया के घर हो रही थी. विहिप के बड़े नेता जमा थे. चंद्रशेखर ने कहा, आप नहीं आ रहे, तो मैं ही आपकी बैठक में आ जाना चाहता हूं. विहिप के नेता भौचक. उस बैठक में वह लगभग अकेले पहुंचे. बड़े-बड़े नेताओं के उत्तेजक भाषण चल रहे थे. बैठ कर कुछ देर चंद्रशेखर ने उन्हें सुना. फिर प्रधानमंत्री से अनुरोध हुआ कि कुछ बोलें. चंद्रशेखर ने कहा, आपकी बातें और भावनाएं मैंने सुनी. पर थोड़ा-बहुत इतिहास मुझे भी पता है. इतिहास में कितने मंदिरों की सुरक्षा के लिए कितने पुजारियों ने रक्त बहाये, यह भी हमें मालूम है. यह समझ लीजिए कि हमने संविधान के तहत शपथ ली है. संविधान और उस ढांचे की रक्षा के लिए हजारों लोगों को कुरबान करना होगा, तो सरकार फर्ज से पीछे नहीं हटेगी.
चंद्रशेखर आमतौर से मध्यम सुर में ही बोलनेवाले नेता थे. वह न उत्तेजक भाषण देते थे, न भावनात्मक बातें कहते थे. समतल-सपाट स्वर में साफ बातें करना उनकी खूबी थी. उनकी बात सुन कर वहां मौजूद विहिप के नेता स्तब्ध हो गये. चुप्पी टूटी, जब विहिप के ही एक बड़े नेता ने पूछा कि फिर रास्ता क्या है? चंद्रशेखर ने कहा कि हम सबके ऊपर संविधान-कानून है. उसके तहत जो व्यवस्था है, वही रास्ता है. बातचीत करें, हल निकालें. हमसे नही हो, तो पुरातत्व विभाग की मदद ले. न्यायपालिका की मदद लें. यही रास्ता है. इस तरह विहिप के लोग राजी हुए कि बातचीत करेंगे.
इसी तरह दूसरा पक्ष भी डटा हुआ था, वहां भी कुछ दकियानूसी व कट्टर विचारवाले लोग प्रभावी थे. तब शाही इमाम का हस्तक्षेप और प्रभाव अलग था. वह पक्ष भी तैयार नहीं था. उन्हें भी इसी सुर में संदेश गया कि बातचीत के अलावा क्या रास्ता है? या तो आप बतायें, नहीं तो देश के गांव-गांव तक अगर तनाव फैलता है, तो इसकी जिम्मेदारी से आप भी नहीं बचेंगे. उन्हें यह भी बताया गया कि आमतौर से दंगे, शहरों तक सीमित रहते हैं. पर अगर गांवों तक फैलते हैं, तो इसकी जिम्मेदारी, इस समस्या का हल ढूढ़ने के लिए बात नहीं करनेवालों पर भी होगी. उस समूह में भी समझदार लोगों की काफी संख्या थी. समझदार लोगों को यह तथ्य समझ में आया. यह तबका सक्रिय हुआ. तब अयोध्या पर बातचीत शुरू हुई. वह संकट हल होने के करीब था कि सरकार गिरा दी गयी, ताकि इस समस्या के हल का श्रेय किसी को न मिल सके. दरअसल, यह राजनीतिक संस्कृति है, जो देश तोड़ती है. समाज तोड़ती है. यह राजनीतिक संस्कृति अपनी गद्दी को देश से ऊपर रखती है. आज यही राजनीतिक संस्कृति दिल्ली से लेकर देश के जिलों-पंचायतों तक पहुंच गयी है. कथित राष्ट्रीय दल और सभी क्षेत्रीय दल इस राजनीतिक संस्कृति के खिलाड़ी हो गये हैं.
कुछ महीने पहले की घटना है. जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ में दंगे हुए. वहां भी ऐसी ही स्थिति हुई. हद तो तब हुई, जब कमाल फारूकी ने उत्तर प्रदेश में मंत्री पद पर रहते हुए यासीन भटकल जैसे आतंकवादी की तरफदारी की. जब केंद्र सरकार की एजेंसियों द्वारा जघन्यतम अपराधों (कई बम विस्फोटों द्वारा देश के सैकड़ों लोगों की हत्या) का आरोपी पकड़ा जाता है, तो उसकी तरफदारी एक मंत्री कैसे कर सकता है? संविधान की शपथ के अनुसार मंत्री या सरकार, हर जाति, धर्म, वर्ग, समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है. मंत्री बनते ही वह संविधान, कानून का प्रहरी बन जाता है. उसके लिए जाति, धर्म सब बेमतलब. गरीब-अमीर सब एक. उसके लिए हर इंसान सिर्फ भारतीय है. पर राजनीति में कैसे-कैसे नेता प्रश्रय पा रहे हैं.
दरअसल हम रोज-रोज के जीवन में शुरू से ही यह एक-दूसरे के प्रति नफरत पाल रहे हैं. समाज में वह राजनीतिक ताकतें कहां हैं, जो अलग-अलग समुदायों के मन को जोड़ें? जब रोज-रोज नफरत की बात होगी, द्वेष की बात होगी, तो उसके प्रतिफल दंगे और तनाव ही होंगे. पर जब समाज में शुरू से ही एक-दूसरे के साथ सह-अस्तित्व पर अच्छे, सुखद पहलुओं पर बात होगी, तो उसका परिणाम एक बेहतर समाज के जन्म के रूप में होगा. भारतीय राजनीति में खासतौर से पिछले बीस वर्षो से हर दल ने वोट की तिजारत की है. जाति-धर्म के आधार पर. याद रखिए, आजादी की लड़ाई की पीढ़ी ने क्या सपना देखा था? सीमांत गांधी को याद करिए. मौलाना अबुल कलाम को याद करिए. नेहरू, पटेल, जेपी, लोहिया जैसे लोगों को याद करिए. इन नेताओं की एक लंबी फेहरिस्त है, जिनके श्रम, कर्म, उदारता और त्याग से बेहतर हिंदुस्तान का जन्म हुआ. ये किस जाति, समुदाय या क्षेत्र के नेता थे?
बंटवारे के समय भारत चाहता तो वह भी पाकिस्तान की तरह धार्मिक मुल्क बन सकता था. पर उसके महान नेताओं ने एक बड़ा सपना देखा. विविधताओं का देश बने ‘भारत’, तभी इसका सौंदर्य रहेगा. आज उन महापुरुषों की विरासत को बचाने की जिम्मेदारी हर भारतीय पर है. चाहे वह किसी धर्म या जाति का हो. डॉ लोहिया ने हिंदू-मुसलमान संबंधों पर गहराई से लिखा. उन्होंने कहा था कि भारत के हर बच्चे को सिखाया जाये कि रजिया, शेरशाह, जायसी वगैरह हम सबके पुरखे हैं. हिंदू-मुसलमान दोनों के. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि हममें से हरेक आदमी यह कहना सीख जाये कि गजनी, गोरी और बाबर लुटेरे थे. हमलावर थे. इस तरह डॉ लोहिया ने पिछले सात सौ वर्षों के इतिहास को देखने की नजर विकसित करने की बात की, जिससे दोनों (हिंदू और मुसलमान) एक-दूसरे को समझें. जोड़नेवाली ताकत को अपनायें.
आज इस तरह की दृष्टि किसी राजनीतिक दल में कहीं है, जो समाज के विभिन्न अंगों को जोड़ने की बात करे? आज ऐसी बातों से सत्ता नहीं मिलती. कुरसी या गद्दी मिलती ही है, एक दूसरे को लड़ाने से. अब जरूरत है कि समाज के स्तर पर हम हिंदू-मुसलमान व अन्य एक-दूसरे की खूबियों-कमियों को समझने की बात करें. एक-दूसरे की खूबियों को अपनाने की बात करें. कमियों के बारे में साथ मिल कर दूर करने की पहल करें. जब यह संस्कृति विकसित होगी, तो मामूली झगड़ों के बाद भी दंगे और फसाद नहीं होंगे. दंगे और फसाद तो बाहरी अभिव्यक्ति हैं. इसकी जड़ में नफरत और द्वेष है, जो
दशकों से राजनीति मन में भर रही है. इसे मिटाने की कोशिश कहां हो रही है? यह काम राजनीति का है. पर राजनीति, वोट बैंक के व्यापार में वोटों का सौदागर बन गयी है. जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर. फिर समाज में सौहार्द और आपसी प्रेम कहां से पनपेंगे?लेखक हरिवंश देश के जाने-माने पत्रकार हैं. वे झारखंड-बिहार के लीडिंग न्यूजपेपर प्रभात खबर के प्रधान संपादक हैं. उनका यह लिखा प्रभात खबर में प्रकाशित हो चुका है.