दिवाली : रावण के दीये में ज्यादा तेल

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जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये। पूरी धरती से अंधेरा मिट जाये, ऐसी महत कल्पना कोई आदर्शकामी कवि मन ही कर सकता है लेकिन अंधेरा और घना न हो, कम हो, इतना तो सभी चाहते हैं। मगर केवल चाहने भर से कुछ नहीं होता। चाहने भर से सूरज नहीं उगा करता, उसे उगाना होता है। चाहने भर से नदियां अपनी धारा नहीं बदलतीं, उन्हें मोड़ना होता है। चाहने से नहीं, करने से कुछ भी हो सकता है, सब कुछ हो सकता है। हम हर साल दीवाली मनाते हैं, दीये जलातें हैं।

घर साफ करते हैं, नये कपड़े पहनते हैं, जगमग-जगमग रौशनी में नहा लेते हैं। सोचते हैं, सब उजाला हो गया, सारा अंधेरा मिट गया, पर जैसे ही रंग-विरंगी झिलमिलाती झालरें चौखट से उतरतीं हैं, जैसे ही पटाखों की आवाजें धीमी पड़ती हैं, आंखों में फूलझड़ियों का फूटना मद्धम होता है, फिर से अंधेरा छा जाता है। हमारे नये कपड़ों पर दाग दिखायी पड़ने लगते हैं, हमारे घरों में गंदगी बढ़ने लगती है। और वैसे ही हमारे दिलों में भी।

दरअसल हम सब केवल अपने घरों में उजाला चाहते हैं, हम उजाले को भी कैद कर रखना चाहते हैं, उसे बांट कर देखते हैं। इस तरह हम दूसरों की अंधेरी जिंदगियों में और घने कंटीले जंगल बोने के अलावा कुछ और नहीं करते। उनके हिस्से की रौशनी छीनकर अपने घर में उजाला देखने की ख्वाहिश का अंजाम और क्या होगा। एक परंपरा भर रह गयी है दीवाली। किसी के लिए राम 14 साल के वनवास के बाद अयोध्या लौटता है, किसी के लिए कृष्ण नरकासुर का वध करके आतंक के संत्रास से मुक्ति देता है, किसी के लिए विष्णु नरपशु के रुप में हिरण्यकश्यप का वध करके दुखहरण की भूमिका में खड़ा दिखता है पर क्या सचमुच उन लोगों के लिए इस राम, कृष्ण या विष्णु के विजयोत्सव का कोई मतलब है, जिनकी जिंदगियों के दीये में न बाती है, न तेल, जिनके दीये भी टूट चुके हैं, उसमें तेल ठहरने तक की गुंजाइश नहीं बची है। ऐसे लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है। उनसे बहुत ज्यादा जो दीवाली मनाते हैं, जो अपने घर में रौशनी देखकर खुश होते हैं।

सबकी अपनी-अपनी दीवाली है, अपनी-अपनी रौशनी है। अब तो रावण, नरकासुर और हिरण्यकश्यप भी दीवाली मना रहे हैं। उनके दीये में ज्यादा तेल है, उनके घर पर लटकी झालरें ज्यादा चमकीली हैं। उनका आततायीपन, उनका पाप, उनका छल इस चुंधियाती रौशनी में किसी को दिखायी नहीं पड़ता। इस तरह वे आसानी से राम को, कृष्ण को, विष्णु को छल सकते हैं, छल भी रहे हैं। वे न्याय को, कानून को धता बता रहे हैं, वे स्वयं न्याय करने लगे हैं, वे शासक बन बैठे हैं। पर वे उन राक्षसों से भिन्न हैं, जो राक्षस थे तो वैसे दिखते भी थे। अपने कर्म में, अपने व्यवहार में, अपनी वाणी में। उन्हें मारना बहुत आसान था क्योंकि उन्हें पहचान लेना सरल था। आज की राक्षसी ताकतें ज्यादा क्रूर और दुस्साहसी हैं। वे वाणी में और व्यवहार में अति विनम्र, मृदु, कुशल और उदार दिखती हैं लेकिन अपने लाभ के लिए अत्यंत कुटिल क्रूर, कठोर और लंपटता की हद तक जाने में तनिक संकोच नहीं करतीं।

यही ताकतें हैं, जो दूसरों का हक मारकर उनकी जिंदगियों में अंधेरा फैलाती हैं, जो दूसरों की पीड़ा के गारे पर अपना महल खड़ा करती हैं, जो जघन्य से जघन्य कार्रवाई करने में भी नहीं हिचकिचातीं। दीवाली आम हिंदुस्तानियों के जीवन का एक पारंपरिक उत्सव जरूर है लेकिन इसके रूढ़ अर्थ से बाहर निकलने की जरूरत है। बाजार ने दीवाली का रुप बदल दिया है। वह रौशनी बढ़ाने के नाम पर हमारे जीवन का रस सोखने में जुटा हुआ है। वह चाहता है कि हिंदुस्तानी पागलपन की तरह उत्सवाकुल रहें ताकि वे अपने सामाजिक जीवन के असली दर्द को भूले रहें। इसीलिए वह दीवाली के लिए अलग-अलग तरह के कीमती रौशनी के जाल फेंकने वाले बम-पटाखे, महंगे और सुंदर उपहार, घर को खूबसूरत बनाने वाले सजावटी सामान गढ़ने और बेचने में जुटा हुआ है। हम उन्हें खरीदते हैं और अपने ही घरों में, अपने पड़ोस में, समाज में और देश में बारूद की गंध भरकर खुश हो जाते हैं।

रुपया जेब से निकलता है और एक ज्यादा अंधेरा करने वाली रौशनी के रुप में पल भर चमक कर नष्ट हो जाता है। समाज में, देश में असल रौशनी तो तब होगी जब देश का कोई नागरिक भूखा न रहे, कोई इलाज के बिना न मरे, कोई न्याय में देर के चलते अन्याय की पीड़ा सहन करने को मजबूर न हो, किसी का हक न मारा जाय, मेहनत करने वाला भी अपने बच्चों को पढ़ा सके, अपनी बीवी को ठीक-ठाक कपड़े पहना सके, जब किसी को अपने जंगल के लिए बंदूक न उठानी पड़े, अपनी जमीन के लिए दर-दर न भटकना पड़े। इसके लिए दीवाली को नया अर्थ देना होगा, इसके लिए दीयों की लपट तेज करनी होगी, उन्हें अपने भीतर जलाना होगा। भीतर कुछ जलेगा तो बाहर अपने-आप आग पैदा होगी और यही आग जनता के मन के अंधेरे से लड़ सकेगी, उसके जीवन में दीवाली ला सकेगी।    

सुभाष राय

संपादक

जनसंदेश टाइम्स, लखनऊ

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