लखनऊ। राजधानी में खुद को सूरमा पत्रकार समझने वालों की कोई कमी नहीं हैं। गलत सही सारे धंधे करते हैं, लेकिन दिखावा ऐसा करते हैं कि इनसे ईमानदार कोई नहीं है। यहां से प्रकाशित एक अंग्रेजी के हिंदी दैनिक संस्करण के एक ऐसे ही तथाकथित ईमानदार और डेस्क पर काम करने वाले एक अखबार कर्मी अपनी इसी स्वनिर्मित छवि की बदौलत नई पारी शुरू करने की तैयारी कर रहे हैं। हालांकि जब तक वो स्वतंत्र भारत और वायस आफ लखनऊ में रहे तब अपने काम की कोई छाप नहीं छोड़ नहीं पाए। लेकिन उन्हें लगता है कि वे ईमानदारी की बात लिखकर टॉप के तीन में से किसी अखबार में जाकर अपने फन का लोहा मनवा लेंगे।
लखनऊ वाले इनके बारे में बताते हैं कि जब भी उन्हें कुछ करने-दिखाने का मौका मिला वे बुरी तरह फ्लाप रहे। जिस अखबार में इस समय कार्यरत हैं उस अखबार को मीडिया की दुनिया में बुलंदियों पर ले जाने का सपना दिखा रहे थे। जब खुद कुछ नहीं कर पाए तो अब अपनी असफलता का ठीकरा अपने सहयोगियों पर फोड़ दिया। जो लोग उन्हें जानते हैं वो यह भी जानते हैं कि अगर उन्हें अमर उजाला क्या हिन्दुस्तान में भी ले मौका मिल गया तो वे उसे भी वही बना देंगे जो अब तक अन्य अखबारों को बनाते आए हैं। हालांकि नवीन जोशी के दर पर एक बार गए थे लेकिन उन्होंने इन्हें डेस्क पर रखना तो दूर संवाद सूत्र बनने लायक नहीं पाया और उल्टे पांव लौटा दिया था।
ये महाशय अपने आप भले कुछ न कर पाए लेकिन आइडिया देने के मामलें में बड़े-बड़े दार्शनिकों को पीछे छोड़ देते हैं। अब अमर उजाला या किसी दूसरे अखबार में अगर जाएं और कुछ ढंग का लिख पढ़ लें तो यह बड़ा करिश्मा ही होगा। जब तक स्वतंत्र भारत और बाकी अखबारों में रहे तो तब लोकल हेल्थ ही देखते रहे। आगे बढऩा का मौका भी मिला लेकिन खुद को महान मानने की सनक में आगे बढ़ नहीं पाए। किसी ने ठीक ही कहा है कि गधे को ठोंकपीट कर खच्चर तो बनाया जा सकता है, लेकिन उसे घोड़ा कभी नहीं बनाया जा सकता। (कानाफूसी)