लखनऊ अजब गजब पत्रकारों की नगरी है. जो पत्रकारों के नेता हैं वो नेताओं के यहां चाटुकारिता करते हैं और जो पत्रकार हैं वह दूसरे भौकाली पत्रकारों के चिंटू बने रहते हैं. यानी यहां अजीब सी स्थिति है, पत्रकारिता के नाम पर दलाली होती है और ज्यादातर दलाल पत्रकार हैं. स्वार्थ में जितना गिरा जा सकता है तमाम पत्रकार गिरने को हर समय तैयार रहते हैं. ऐसे ही एक मनीषी पत्रकार हैं राजधानी से पांच-छह महीना पहले शुरू हुए एक अखबार में.
यह अखबार लखनऊ को लोगों को दस रुपए महीने में अखबार पढ़वा रहा है. अब जितना अखबार का दाम कंटेंट भी उसी हिसाब का है. हालांकि अखबार में बेहतर टीम बनाने के लिए सारे प्रबंध किए गए, लेकिन अखबार का स्वाद ऐसा है कि अच्छे लोगों के हाथ भी बांध दिए गए. कटे हाथ वालों को अखबार में लिखने की आजादी दे दी गई. इस टीम में एक ऐसे मनीषी पत्रकार भी हैं, जिन्हें लोकल पत्रकारिता का पुरोधा माना जाता है. वास्तव में इस मनीषी पत्रकार के आगे श्री लगा दिया जाए तो भी इनकी पूरी महिमा का बखान कर पाना संभव नहीं है.
लखनऊ के कई प्रमुख दैनिक अखबारों में काम करने के बावजूद ये प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के कुछ बड़े लोगों के सामने चिंटू बने रहते हैं. अब यह इनकी मजबूरी है या शौक कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन अपनी इसी आदत के चलते परेशान हैं. सत्ता वाली पार्टी देखते हैं इसके बावजूद पहचान का बड़ा संकट है. मान्यता से लेकर मकान पाने तक में इस मनीषी पत्रकार को बड़े पत्रकारों को तेल लगाया. सफलता मिली फिर भी तेल लगा रहा है, लेकिन चिंटू की कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है.
लखनऊ में लंबे समय तक 'उजाला' फैलाया, लेकिन पहचान का संकट हमेशा हावी रहा. अब राजनीतिक और प्रशासनिक हलकों में ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों तक पहुंच बनाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं. इनकी एक बड़ी खासियत यह है कि जब शादी-विवाह का मौसम आता है तो यह वीआईपी और वीवीआईपी शादियों का कार्ड जुगाड़ करने में जुट जाते हैं. ऐसे समारोहों में शामिल होने के लिए सारे जतन कर डालते हैं. या फिर किसी बड़े पत्रकार का चिंटू बन जाते हैं ताकि विशिष्टजनों वाले समारोहों में पहुंच सकें.
लखनऊ में इनके बारे में कहा जाता है कि मुफ्त की चाय और मुफ्त की सवारी करना इनकी कमजोरी है. हालांकि कुछ लोग इसे इनके शौक का नाम भी देते हैं. बताने वाले यहां तक बताते हैं कि यह इतने बड़े मनीषी हैं कि अगर पता चल जाए कि चाय मिलने वाला है तो घंटों वहीं बिता देते हैं चाहे जितना भी जरूरी काम हो. इस संस्थान में आने के बाद इन्हें मान्यता और मकान दोनों मिल गया फिर भी अपने संपादक से संतुष्ट नहीं हैं. अपने सहयोगियों के बीच अपने संपादक के बारे में ऐसी 'धीर' गंभीर बात कर जाते हैं कि सुनने वाले दांतों तले उंगली दबा लेते हैं. सुनने वाले भी इन्हें चाय पिलाकर संपादक जी की कहानी का रस लेते रहते हैं. (कानाफूसी)