: कष्टों को ईश-प्रसाद में बदल डाला : जैसे गेहूं की खेती होती है, फिर उसे काट कर गेहूं निकाला जाता है और फिर उसका आटा तैयार कर हम अपनी भूख शांत करते हैं। या फिर जैसे अंगूर की बेल से उसके फल तोड़कर उसकी उम्दा शराब बनाते हैं जो हमें प्रसन्न और मस्त कर देती है, ठीक वैसे ही इस शरीर के कष्ट हमें वह नायाब शराब का नशा देती है जिसे हम ईश्वर कहते हैं। दर्द से तड़पते और जीवन से हार चुके लोगों के लिए किसी के इन शब्दों का माखौल बनाया जा सकता है, लेकिन जब यह बात एक ऐसी महिला कहे, जो जीवन-पर्यंत केवल दारूण दुख को ही ईश्वर का वरदान मानती रही हो, तो बात गंभीर हो जाती है।
सिस्टर अन्नाकुट्टी अल्फोंसा ने यही तो किया। वे न चल सकती थीं और न अकेले दम पर कोई काम ही कर सकती थीं। दूसरों को जीवन देने के लिए बने आश्रम में वे खुद किसी बेसहारा की तरह अपनी जिन्दगी का ज्यादातर वक्त काटती रहीं। लेकिन न तो वे कभी किसी पर भार रहीं, और न ही किसी ने उन्हें बोझ समझा। खासियत, भयंकर शारीरिक कष्टों में जूझते रहने के बावजूद कभी किसी ने उन्हें रोते या कराहते नहीं देखा। न ही उन्होंने अपने घाव कभी किसी को दिखाये। अपने दुख-दर्द को अपने चेहरे की मुस्कुराहट और आवाज की मिठास में बदल कर दूसरों के दुखों को खींच ले जाने की अप्रतिम क्षमता वाली सिस्टर अन्ना केवल 16 साल बाद ही मदर अल्फोंसा बन गयीं। पोप बेनेडिक्ट-16 ने उन्हें संत की उपाधि देकर पूजा और इस तरह मदर अन्ना अल्फोंसा भारत की पहली महिला इसाई संत बन गयीं।
दैहिक कष्ट विकसित होते हुए किसी को भी मानसिक असंतुलन पर ला खड़ा कर देते हैं। लेकिन अन्ना के साथ ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने इसे न केवल खुद हंस कर जिया, बल्कि कराहती मानवता को भी उसका आनंद लेते हुए प्रभु तक पहुंचने का मार्ग बता दिया। दक्षिण में कोट्टायम जिले के अर्पूकारा गांव में पिता जोसेफ और मां मेरी के बेहद गरीब परिवार 16 अगस्त 1910 में अन्ना का जन्म हुआ। केरल का यह इलाका तब त्रावणकोर कहलाता था। नाम रखा गया अन्नाकुट्टी। एक साल की होते-होते ही इनकी मां का देहांत हो गया लेकिन चाची ने इन्हें पाला-पोसा। तीन साल में ही पिता भी चल बसे। पांच साल की उम्र ही उन्हें अकौता हो गया जिसे एग्जिमा कहा जाता है। अकेले इंग्लैंड में इस भयंकर बीमारी से 58 लाख लोग पीडित हैं लेकिन ग्रीक भाषा में बाहर उबल आने के अर्थ वाली यह बीमारी अन्ना को आध्यात्मिक तौर पर उबाल गयी। एग्जिमा तो ठीक हो गया, लेकिन अब अन्ना के भीतर ईश-प्रेम की भावना उबलने लगी।
छह साल की उम्र से शुरू हुई पढ़ाई बहुत जल्द ही धर्म की ओर मुड़ गयी। लेकिन अभी तो और भी बहुत कुछ होना बदा था। अचानक ही एक दिन उनका पैर आग से दहकते गड्ढे में पड़ गया और इस भयंकर आग ने उनके घुटनों तक को पूरी तरह भस्म कर दिया। किसी तरह जान बची और बीस साल की उम्र में अन्ना धर्मसेवा के लिए नन बन गयीं। व्यवहार में मिठास, वाणी में ओज और खुद को दर्द से उबार कर दूसरों को जिन्दगी देने का जज्बा उन्हें जल्दी ही आश्रम के शीर्ष तक पहुंचा गया। लेकिन नौ साल बाद ही वे निमोनिया की गिरफ्त में आ गयीं जिसने उन्हें बुरी तरह तोड़ कर रख दिया। इसके बाद जीवन भर में बिस्तर पर से तो नहीं उठ सकीं, लेकिन उनकी मानसिक शक्ति और अटल विश्वास को यह रोग प्रभावित नहीं कर सका। अगले ही साल उन्हें एक जोरदार दिमागी अटैक हुआ।
लोग समझे कि अन्ना मर गयीं, लेकिन अब तक सिस्टर अल्फोंसा बन चुकीं अन्ना उससे उबर आयीं और मस्तिष्क-वाणी पहले से भी ज्यादा विकसित हो गया। मगर जीवन तो जैसे कष्टों के हमलों के लिए बना था। चार साल बाद ही फिर हमला हुआ। इस बार यह पेट पर था। इस हमले ने करीब छह मास तक उन्हें न तो कुछ खाने दिया और न ही पानी पीने की इजाजत। जो कुछ खातीं-पीतीं, फौरन ही उल्टी कर देतीं। लेकिन अल्फोंसा तो जैसे कष्ट को पूरी तरह पकाकर ही ईश्वर की आराधना का संकल्प लिये थीं। उनपर मलेरिया का हमला हुआ, निमोनिया ने फिर धर-दबोचा और फिर आखिरकार तपेदिक ने उनका शरीर निचोड़ लिया। शुरूआती दौर में तो कुछ लोगों ने उनकी हालत को आश्रम के कामकाज में बाधक मानते हुए उन्हें कहीं और भेजने की बात कही, लेकिन ज्यादातर लोग इसके खिलाफ खड़े हो गये। आश्रम के संचालक ही नहीं, बल्कि वहां मौजूद पीडित लोग अल्फोंसा की सेवा में दिनरात जुटे रहे। उनकी मदद करना जैसे हर किसी का अपना निजी काम हो गया।
28 जुलाई 1946 को उनकी हालत बेहद खराब थी, लेकिन चेहरे पर गजब की मुस्कुराहट। बिस्तर के चारों ओर आश्रम के लोग ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे। अन्ना ने आंखें खोलीं। चारों ओर देखने की कोशिश की। सबका अभिवादन स्वीकार किया। मुस्कुरायीं और आशीर्वाद में होटों के साथ ही साथ हाथ भी हिलाने की कोशिश की। फिर वहां पास ही मौजूद अपनी सहयोगी सिस्टर गैब्रियल से पूछा: क्या तुम दैवीय संगीत की धुन सुन पा रही हो।
गैब्रियल का जवाब था: नहीं।
अन्ना ने गैब्रियल को अपने पास बुलाया, एक लम्बी सांस लेकर उसे पूरे विस्तार में छोड़ा और बोलीं: यही तो है ईश्वर का बनाया वह दिव्य संगीत, जो पूरी सृष्टि को जीवंत किये रहता है। जितनों में भी हो सके, इसे बनाये रखना।
इतना कह कर भारत की कैथोलिक सिस्टर अन्नाकुट्टी अल्फोंसा ईश्वर के बेहद करीब उस अभिन्न स्थान तक पहुंचने के लिए रवाना हो गयीं, जिसे इसाई समुदाय में संत कहा जाता है। उनके सम्मान में भारतीय रिजर्व बैंक ने इसी साल एक सिक्का भी जारी किया है। भरन्नगणम में उनकी याद में स्मारक तक बना हुआ है जहां भारी तादात में विभिन्न सम्प्रदायों के लोग आते हैं।
बस एक बात और। कहा जाता है कि शादी से बचने के लिए उन्होंने अपने पैर खुद ही जला लिये थे। लेकिन सन 86 में कोट्टायम आये पोप जॉन पाल द्वितीय ने इन चर्चाओं को अफवाह और नासमझी करार दिया। वे बोले: अल्फोंसा ने जितनी शिद्दत से अपने भयंकर कष्टों को जिया, उतनी ही तीव्रता से ईश-आराधना भी की। उस समय उन्होंने अन्ना को धन्य बताते हुए उनका बीटीफिकेशन भी किया था। वैसे इस सम्मान पर तरह-तरह की चर्चाएं खूब हुईं। यह तक कहा गया कि मदर टेरेसा के बजाय यह पुरस्कार भारत की अन्ना को इसलिए दिया गया ताकि भारत जैसे देश में इसाइयों पर हमलों का जवाब दिया जा सके। एक हद तक यह तर्क कंदमाल जैसी घटनाओं के संदर्भ में उचित भी लगता है जहां ननों को निर्वस्त्र करके सरेआम पीटा गया और पीटर फ्रांसिस व उसके दो बच्चों को आग में भस्म कर दिया गया। लेकिन चमत्कारों से अलग जो जीवन अन्ना ने जिया, वह तो वास्तव में कोई संत ही खुद जी कर दूसरों का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। मौजूदा पोप ने 12 अक्तूबर 08 को उन्हें संत की उपाधि से सम्मानित किया।
लेखक कुमार सौवीर यूपी के वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनका यह लिखा जनसंदेश टाइम्स, लखनऊ में ''शाहन के शाह'' सिरीज के तहत प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है.
One comment on “भारत की पहली इसाई संत अन्ना मुत्ताथुपाडिथु अल्फोंसा”
अतिसुन्दर अभिव्यक्ति, साधुवाद…