किस को पार उतारा तुम ने किस को पार उतारोगे
मल्लाहों तुम परदेसी को बीच भँवर में मारोगे,
मुँह देखे की मीठी बातें सुनते इतनी उम्र हुई
आँख से ओझल होते होते जी से ही बिसारोगे।
बहुत कुछ निहित है इन लाइनों में। कर्कश भाषा में तथाकथित मुहिम और तुरही का बखान करूं तो बस इतना ही कि सुहाग के लुटेरे तो बारातियों के अगुआ बने हुए हैं। अपनी गिरेबां में झांककर भी देखो। मीडिया से भ्रष्टाचार मिटाने के स्वयंभू ठेकेदार जी…आप दो दर्जन से ज्यादा लोगों का निवाला छीनने के आरोपी हैं। हद है… आपने तो नेताओं की भी लोमड़ी मानसिकता को मात दे दी।
दोस्तों, उपरोक्त पंक्तियों में व्यक्त की गई मेरी ये प्रतिक्रिया एक स्वनामधन्य अखबार और बड़े वाले संपादक की मुहिम के इश्तहार के संदर्भ में है। महानुभाव ने घोषणा की है कि वे जमीर और खबर नहीं बेचते। उन्हें चुनावी सीजन में महसूस हुआ है कि पेड न्यूज के कारण भारतीय मीडिया की बड़ी छीछालेदर हुई है। मालिक मलाई काट रहे हैं और पत्रकार की दशा दयनीय हो चली है। ऐसे घनघोर संकट की दशा में नाम के 'दीन' समाधान का 'प्रभात' बनकर अवतार ले चुके हैं।
संपादक महोदय ने जिस सलीके से पत्रकारिता और पत्रकारों की आबरू संभाल लेने की घोषणा की है उससे यही संदेश जाता है कि मानो आकाशवाणी हुई हो कि –हे भक्तजनों अब चिंता मत करो, पाप का समूल नाश करने के लिए ईश्वर एक संपादक के रूप में अवतार ले चुका है। इतना सुनना था कि चापलूसों का कुनबा भावविभोर हो गया। फेसबुक पर अपनी भावना भी व्यक्त की। भक्तों के मुंह से अचानक हर्षघ्वनि निकली और कह बैठे कि हे संपादक स्वरूप प्रभो…आपने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में अपनी अवतार स्थली तय कर बड़ी कृपा की है। लीला रास करने के लिए घोषणापत्र जारी कर आपने मानो नियामत पेश की है।
मैं आपको बताना चाहता हूं कि फेसबुक पर मैने कमेंट के खांचे में जब अपनी प्रतिक्रिया पोस्ट की तो उसे सुधी संपादक ने हटा दिया। वजह ये कि खुद को पत्रकारिता की पहली किरण समझने वाले संपादक जी तारीफ और चापलूसी सुनने के लती हो चुके हैं। उन्हें भी अब किसी मुखौटेदार नेता की तरह असलियत सुनना नागवार लगता है। यही कारण है कि उनके हर हर्फ पर स्तुतिगान होता है और भक्त फल की इच्छा में पानी पी-पीकर गुणगान करते रहते हैं। व्यवहारिक भी है कि जब बिना प्रसन्न हुए भगवान-फलदान नहीं करते तो फिर कोई दीन-दानवान कैसे हो सकता है।
असल तो ये है कि तथाकथित स्वयंभू बड़े पत्रकार उर्फ संपादक ऊंची कुर्सी पर बैठकर भी अपने दिल की दीन-हीनता से ऊपर नहीं उठ पाए हैं। जिस पत्रकारिता में वे भ्रष्टाचार और धनलोलुपतावाद के उन्मूलन और कानून का राज स्थापित करने की बात कर रहे हैं, दरअसल वो इमोशनल अत्याचार-2 की स्क्रिप्ट सी लगती है। हकीकत तो ये है व्यवस्था और हक की बात करने वाले इसी बरगद ने
पत्रकारिता की कई नई पौध को कलम करने का अपराध किया है। कुर्सी का लोभी ये शख्स अपनी सुविधा के लिए पत्रकारिता के नौनिहालों की जड़ में गरम पानी डालने में संकोच नहीं करता। इसका उदाहरण भी हाल का ही है। तकरीबन 28 लोगों को इस ओछे व्यक्ति ने अपनी क्षुद्र स्वार्थ पूर्ति के लिए बलि चढ़ा दिया।
पहले तो चेहरे पर मुखौटा डालकर दुःख में साथ होने का ढांढस बंधाया फिर पीठ में छुरा घोंप कर एक नहीं कई प्रतिभाओं को निस्तेज करने का प्रयास किया। आज वही महात्मा बनने की कोशिश कर रहा है। मैं इसलिए ये सब लिखने पर मजबूर हो रहा हूं कि जिस भ्रष्टाचार, अवसरवाद और भेदभाव के खिलाफ नकली मुहिम में वो लोगों को साथ लाना चाहता है, उसी कार्य के लिए मैं दिल की आवाज को अल्फाजों में ढाल रहा हूं। अगर आप सहमत हैं तो फिर नकली लोगों को नकाबपोश करने में साथ दें। लोमड़ी, हिरन और शेर, तीनों को जीने का अधिकार है। मेरी मंशा बस इतनी है कि यदि कोई लोमड़ी है तो वो शेर या फिर हिरन का मुखौटा पहन कर लोगों को गुमराह करने की चेष्टा हरगिज न करे। सादर वंदे।
लेखक महेंद्र सिंह इरुल युवा पत्रकार हैं. पिछले दिनों वॉयस ऑफ मूवमेंट के साथ जुड़े हुए थे, लेकिन नई संपादकीय टीम ने अपने लोगों को सेट करने के लिए इन समेत कई लोगों की नौकरियां लील ली. महेंद्र आई नेक्स्ट, कानपुर की शुरुआती टीम के हिस्से रहे हैं.