रिपोर्ट देने वाली प्रेस परिषद की कमिटी का अतीत कितना स्‍वच्‍छ रहा है?

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बेशक बिहार एक अति संवेदनशील राज्य है। वहां के नेता किसी भी मुद्दे पर बोलने का मादा रखते हैं। इस मीडियाकरण के दौर में भी यदि प्रेस परिषद के एक टीम की इस रिपोर्ट पर कि यहां की सरकार मीडिया खास कर प्रिंट मीडिया की अपने पक्ष में गर्दन दबाये है तो विपक्षी नेताओं का खुला शोर-गुल मचाना काबिले तारिफ है। अब स्वतंत्र राज्य विज्ञापन आयोग की बात भी उठने लगी है। ऐसे भी बिहार को लेकर प्रेस परिषद के अध्यक्ष माननीय काटजू जी की कटार शुरू से ही तेज रही है।
 
मुझे अच्छी तरह याद है कि वर्ष 1995 के आम बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान पटना से प्रकाशित एक सर्वाधिक प्रसार वाले एवं कुछ उसके पिछलग्गे अखबारों ने लालू प्रसाद को टारगेट में ले लिया था। तब उन्होंने अपने चुनावी भाषणों में अखबार नहीं पढ़ने और उसे सांमतवादियों का पुलिंदा कहना शुरु कर दिया। इसके बाद अखबारों की घिग्गी बंधने लगी थी। आज भी बिहार में शायद ही ऐसा कोई अखबार होगा, जिसने अपने प्रसार और विज्ञापन में घोटाला न किये हो। 
 
एक राष्ट्रीय दैनिक के तो आला संचालकों-संपादकों पर न्यायायिक जांच कार्रवाई तक चल रही है। जिसकी जद में और कई राष्ट्रीय अखबार के नुमाइंदे बेनकाव होते जा रहे हैं। अब रहा सवाल बिहारी मीडिया के सच दिखाने-पढ़ाने की तो, वह कब ऐसा करती रही है? मुझे तो अपनी 22 वर्षों की पत्रकारीय याद में ऐसा कुछ भी दिखाई नहीं दिया। यहां इस बात पर भी ध्यान देना जरुरी है कि प्रेस परिषद की जो कमिटी हाले बयां कर रही है.. उनका अतीत कितना स्वच्छ रहा है?
 
लेकिन दुर्भाग्य कि काटजू जी या उनके प्रेस परिषद की किसी टीम की नजर झारखंड जैसे प्रांतों की ओर नहीं उठती है? यहां की हालत तो और भी बदतर है। कहीं भी देखिये। मीडिया को जमीन दलालों, बिल्डरों, खनन माफियाओं, सत्तासीन नेताओं ने पूर्णतः रौंद डाला है। पिछले वर्ष भाजपा के सीएम अर्जुन मुंडा ने सत्ता से जाते-जाते मीडिया के मुंह विज्ञापनों से ही सील गये। वर्ष 2011-12 में प्रायः मीडिया हाउसों के विज्ञापन मद की राशि 4-5 गुणी कर दी गई। वर्ष 2012-13 में विज्ञापन आबंटन के जिस तरह के आकड़ें सामने आ रहे हैं, उस आलोक में शायद ही झारखंड की मीडिया श्री मुंडा के किसी भी “क्रिया” पर कभी कोई “प्रतिक्रिया” व्यक्त कर सके।
 
झारखंड सूचना एवं जन संपर्क विभाग में सरकारी विज्ञापन की आड़ में सिर्फ लूट का खेला होता है। यहां के अधिकारियों और मीडिया की गठजोड़ की जांच की जाये तो समूचे भारत में एक नया कीर्तिमान स्थापित करेगा। सरकारी चाकरी करने वाली कुक्कुरमुत्ते छाप से लेकर बड़े-बड़े मीडिया घरानों की बात तो अलग है, इस विभाग का शायद ही कोई अधिकारी होगा, जो विज्ञापन के नाम पर लूट खसोट मचा करोड़पति-अरबपति न हो गया होगा। क्या इन लोगों के साथ यहां के मुठ्ठी भर स्वंभू मीडिया हाउस के मालिक-संपादक-पत्रकारों के खिलाफ किसी को कोई जांच की आवश्यकता महसूस नहीं होती। बिहार की तरह यहां आवाज़ क्यों नहीं।
 
दूसरी तरफ जो मीडिया हाउस या छोटे-बड़े पत्र-पत्रिकायें सत्ता-मीडिया माफियाओं से इतर थोड़ी सी भी नैतिकता की राह अपनाई, उसे ऐसी की तैसी कर दी गई। उसे कोई रोवनहारा तक नहीं मिला। इसका एक बड़ा कारण यह है कि यहां कोई भी नेता ऐसा नहीं है कि मीडिया को लेकर चिल्लाना तो दूर, फुस्सफुसा भी सके। क्योंकि सबकी दुखती रग मीडिया के तथाकथित कद्दावरों ने दबा रखी है। प्रेस परिषद या उसके किसी भी टीम की नजर बिहार के चारों ओर खासकर झारखंड जैसे प्रदेशों की ओर क्यों नहीं जाती? जहां के हालात गंभीर ही नहीं वीभत्स हो चला है।
 
लेखक मुकेश भारतीय पत्रकार तथा राजनामा के संपादक हैं.

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