लखनऊ की पत्रकारिता का सबसे बड़ा दलाल?

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लखनऊ। उत्तर प्रदेश में इन दिनों पत्रकारिता की एक नई बयार बह रही है। जिसे दलाली का बयार कहा जाये तो गलत नहीं होगा। आज उसी दलाली की पत्रकारिता में राजधानी लखनऊ के कई तथाकथित पत्रकार जो ईमानदारी का डंका पीटते और नौकरशाही को उसी तथाकथित ईमानदारी के दम पर डरा कर ब्लैकमेलिंग कर रहे है। ब्लैकमेलिंग के इस रंग में रंग कर कभी नौकरशाही इन पर हावी होकर इनका इस्तेमाल करती है तो कभी ये नौकरशाही पर हावी होकर उसे ब्लैकमेल करते हैं।

इसी कड़ी में उत्तर प्रदेश शासन के कुछ नौकरशाहों और और इन नौकरशाहों की दलाली और ब्लैकमेलिंग करने वाले पत्रकारों की असलियत प्रकाश डाल रहा हूं। राजधानी की पत्रकारिता इन दिनों दो भागों में विभाजित प्रतीत हो रही है। पहले भाग में वे पत्रकार हैं जो वास्तव में पत्रकारिता करते हैं और दूसरे वह जो पत्रकारिता को अपना सर्वस्व मानते हुए अपने कर्तव्‍य का निर्वहन करते हैं। वही कुछ ऐसे भी पत्रकार हैं जो नौकरशाहों को ब्लैकमेलिंग करने का कार्य करते हुए शासन सस्ता में अपनी साख जमाये हुए हैं। जिन्हें न तो जनहित की फिक्र है और नहीं पत्रकारिता से कुछ लेना देना। ये पत्रकारिता को मात्र पैसे उगलने वाली एटीएम मशीन के रूप में इस्तेमाल करते हैं।

इसी प्रकार का हाल शासन के कुछ नौकरशाहों का भी है, जो अपनी तनख्वाह से अपने परिवार का पेट पालने में अपनी तौहीन समझते हैं और जनता के पैसों का गबन करते और आपस में मिल बांट कर खा जाते हैं। इन भ्रष्ट पत्रकारों और अधिकारियों की सूची में पहला नाम यदि सबसे पहले किसी की आता तो वह नाम हेमंत तिवारी, शरत प्रधान, और राजेन्द्र गौतम और नवनीत सहगल का है। राजेन्द्र गौतम अपनी पत्नी के नाम से दिव्य संदेश अखबार का संचालन करते हैं। इस अखबार के माध्यम से उन्होंने तथाकथित पत्रकारिता के एक दो दलालों और नौकरशाहों, जैसे – बिजली विभाग के पूर्व अध्यक्ष नवनीत सहगल और अन्य अधिकारियों की करतूतों पर्दाफाश किया। उन दिनों उनके कार्यों से ऐसा लगा कि वास्तव में उत्तर प्रदेश की पत्रकारिता एक बार फिर जीवंत हो उठी।

इन्‍होंने समाजवादी पार्टी के मुखिया के खिलाफ एक गुप्त रिपार्ट पाई। जिसको इन्होंने छापने का प्रयास किया, मगर बीच में समाजवादी के पदाधिकारियों से समझौता हो गया और इन्हें गिफ्ट के रूप में एक मकान एलाट कर दिया गया। इसी प्रकार कृषि विभाग, मंडी परिषद, बिजली विभाग, एलडीए में भी इन्होंने अधिकारियों के कुकृत्‍यों को छिपाने के बदले में सौदेबाजी की। जिससे लाखों रुपये की इन्होंने कमाई की। इसी ब्लैकमेलिंग के दम पर इन्होंने अपने अखबार की सूचीबद्धता और अपनी मान्यता करा ली। इनके अखबार का राजधानी में वास्तविक रूप में कुल सर्कुलेशन 500 प्रति है। मगर सूचना विभाग में इन्होंने फर्जीवाड़ा करते हुए अपना सर्कुलेकशन 25000 से 50000 के बीच में दिखाया है।

इनका पारिवारिक बैक ग्राउन्ड भी ठीक-ठाक नहीं है। मगर तीन साल की अवधि में इन्होंने कैसे अपने अखबार का संचालन किया, यह भी कहीं न कहीं इनकी ईमानदारी पर अंगुली तो उठा ही रही है। इनको आज तक एक भी प्राईवेट विज्ञापन नहीं मिला है। फिर इनका अखबार रंगीन पेज के रूप में नियमित 500 प्रतियां छपती रही है। वह कैसे अखबार निकालते हैं यह समझ से परे है। अभी तक तो जो बातें की गई वह इनकी संदेहास्यपद ईमानदारी के बारे में कही गई हैं। अब इनके ऊपर नौकरशाही की किस प्रकार नजरें इनायत रहीं, वह इस प्रकार है।

कुछ साल पहले यह पावर कारपोरेशन में विज्ञापन मांगने जाते थे। मगर उन्हें एमडी के आफिस में घुसने नहीं दिया जाता था, जिससे चिढ़ कर उन्होंने उस समय के एमडी नवनीत सहगल, जिनकी बेईमानी की चर्चा आम थी और जो उस समय ट्रांसफार्मरों की खरीद फरोख्त में काफी चर्चा में थे, के खिलाफ अपने अखबार में खूब लिखा। मगर इनकी दाल नहीं गली। संयोग की बात थी कि एक दिन इनके गुरु उनका नाम नहीं लूंगा वह किसी मुद्दे पर एमडी का वर्जन लेने के लिए बैठै थे, उसी वक्त राजेन्द्र गौतम भी विज्ञापन के सिलसिले में वहां आये, मगर कर्मचारियों ने उन्होंने बाहर निकाल दिया, मगर उनके गुरु से रहा नहीं गया। उन्होंने कर्मचारियों को हड़काते हुए इन्हें अन्दर आने को कहा, वह अंदर आये। इनके गुरु ने इनका परिचय एमडी से कराया और इनके विज्ञापन के लिए सिफारिश भी की।

अब सबसे मजेदार बात यह है कि राजेन्द्र गौतम जानते थे कि नवनीत सहगल बेईमान हैं, मगर इन्होंने ईमान से समझौता करते हुए नवनीत सहगल का पालतू कुत्ता बन गये। जब कि इनका परिचय कराये वाले इनके गुरु को वास्तविक रूप में अपना सर्वस्व जीवन पत्रकारिता को समर्पित कर दिया, उनको सैकड़ों बार नवनीत सहगल और अन्य अधिकारियों ने लोभ लालच दिया। मगर आज तक उन्होंने अपने कर्म, धर्म और सिद्धांत से समझौता नहीं किया। मगर आज यही राजेन्द्र गौतम अपने ही गुरु को तथाकथित पत्रकार की संज्ञा दिये हैं। संज्ञा देने से पहले इन्होंने अपने गुरु के एहसानों का भी ख्याल नहीं रखा। नौकरशाही की दलाली करते हुए इनका जमीर इतना मर गया कि वह अपनी इंसानियत को भी भूल गये।

इसी क्रम में पत्रकारिता की दलाली का दूसरा नाम शरत प्रधान है। इनके बारे थोड़ा बख्‍श दे रहा हूं। इनको ये पता नहीं है कि पत्रकारिता किसके लिए की जाती है। प्रेस क्लब में एक महिला अपने बेटी की मौत को लेकर प्रेस कांन्फ्रेंस कर रही थी। इस घटना में डा. अखिलेश दास का नाम आ रहा था। इसलिए शरत प्रधान और कुछ तथाकथित पत्रकार जो अखिलेश दास के तलवे चाटते हैं। वह भीड़ में उस महिला को अपनी बात कहने के बजाय प्रेस क्लब से भगा दिये। यह कहने के लिए पत्रकार हैं। मगर चलते सफारी से हैं। रही बात इनकी प्रापर्टी की तो शुरू से तो भिखारी थे, मगर नेताओं के तलवे चाटते हुए इन्होंने तीन-तीन मकान और करोड़ों रुपये के बैंक बैलेंस बना रखे हैं।

अब रही हेमंत तिवारी की इनके बारे में विस्तृत रूप से अगले भाग में कहूंगा। हेमंत तिवारी कहने के लिए पत्रकारों के नेता हैं। यह पत्रकारों के हक की लड़ाई लड़ते हैं। मगर यह पत्रकारों के हक को खाते-खाते अपना तोंद कब बढ़ा लिये इसके बारें में शायद ही कोई जानता है। गत वर्ष जुमे की नमाज के दौरान एक समुदाय द्वारा माहौल बिगाड़ने की कोशिश की गई थी। उस घटना में पुलिस ने मीडिया कवरेज करने के दौरान पत्रकारों और कैमरामैनों को ही पीट दिया। उनके कैमरे तोड़ दिये गये। किसी तरह प्रमुख सचिव को बहला फुसला कर पत्रकारों को कैमरा देने के लिए नाम पर शांत करा दिया गया। कैमरे खरीदने के लिए पीडि़त कैमरामैनों को और घायल कैमरामैन और पत्रकारों को 20 हजार से लेकर 50 हजार तक रुपये दिये जाने की बात कही गई, जिसमें हेमंत तिवारी कुछ कैमरामैनों को पैसे दे दिये बाकी के हस्ताक्षर करा कर उनके पैसे अपनी तोंद में डकार गये। अब सवाल यह उठता है कि पत्रकारिता के नाम पर दलाली किसने की, राजेन्द्र गौतम के गुरु, शरत प्रधान, नवनीत सहगल या फिर हेमंत तिवारी?

विनीत राय का यह लेख लखनऊ के तेजतर्रार पत्रकार अनूप गुप्‍ता के फेसबुक से साभार लेकर प्रकाशित किया गया है।

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