”वीरेंद्र को कानपुर बुला लीजिए वह डेस्क के लायक ही है”

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घूमने का शौक कम लोगों को होता है। खासकर रिस्क लेकर घूमने का शौक। बात २००४ की है तब मैं कानपुर में अमर उजाला का संपादक था। हमारे समूह संपादक शशि शेखर कानपुर के दौरे पर आए तो बोले कि मैं कानपुर से कवर होने वाले सारे जिलों के संवाददाताओं, वहां के दफ्तरों को मैं रूबरू देखूंगा। बुंदेलखंड के चार जिले तब कानपुर से ही कवर होते थे। बांदा, हमीरपुर, महोबा, चरखारी, जालौन और चित्रकूट।

उन दिनों इन सभी जिलों में न तो सड़कें थीं न ही वहां कोई ठहरने की व्यवस्था थी। मैंने मना भी किया तो वे नहीं माने। हम लोग बांदा के आफिस में मीटिंग करने के बाद शाम छह बजे के आसपास चित्रकूट पहुंचे। वहां कर्वी दफ्तर में मीटिंग की और ठहरने के लिए व्यवस्था सीतापुर के एक रेस्ट हाउस में थी, इसलिए वहां का संवाददाता हमें वहां तक पहुंचाने आया। रेस्ट हाउस में सामान रखने के बाद हम लोग सीतापुर देखने के लिए निकले। पास में ही हनुमान धारा है। लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए कोई पांच सौ सीढिय़ां चढऩी पड़ती हैं। संवाददाता वीरेंद्र श्रीवास्तव घबड़ा गया। जबकि वह यंग था।

बोला- सर डकैतों का डर है अब लौट चलें। मैंने कहा अरे अभी सात बजे हैं चला जा सकता है। आठ बजे तक हम लौट आएंगे, चलिए। शशिजी भी राजी हो गए। उन्हें अच्छा लगा कि मैं ५० का होते हुए भी ५०० सीढिय़ां चढऩे को राजी था। हम लोग हनुमानधारा गए और सीता रसोई भी। वीरेंद्र तो भाग खड़ा हुआ लेकिन कर्वी आफिस का आपरेटर राजेश्वर प्रसाद हमारे साथ लगा रहा। शशिजी ने मुझसे कहा कि राजेश्वर को आप यहां का इंचार्ज बनाइए वीरेंद्र को कानपुर बुला लीजिए वह डेस्क के लायक ही है। सात बजे हम नीचे आ गए। फिर पयस्वनी नदी के रामघाट पर गए और करीब घंटे भर वहां रुके। अगले रोज मैने पाया कि शशि जी कुछ उनींदे से लग रहे हैं। मैंने पूछा तो बोले कि रात कमरे का एसी खराब था इसलिए सो नहीं पाया। मैंने कहा कि मुझे फोन कर देते मैं कोई दूसरा कमरा अरैंज करवा देता। बोले- यार फिर तुम्हें भी सोने नहीं देता। जेठ की लू भरी रात उन्होंने पंखे की उमस भरी हवा में काटी। उसके अगले रोज हम महोबा निकलने की तैयारी करने लगे।

वरिष्‍ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्‍ल के फेसबुक वॉल से साभार.

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