जेसी नगर के तीन मंजिला फ्लैट में एक कमरा हमारा भी था। 35 सौ रुपये किराए के उस कमरे में हम पांच दोस्तों का एक घर बस चुका था। अल सुबह उठना, दफ्तर भागना, दिनभर काम करना और शाम को लौटकर घर आना ही हमारा रूटीन था। घर लौटने के बाद हम खाना और अगले दिन का अजेंडा बनाने में जुट जाते और फिर अगली सुबह की दस्तक होती। जैसे पांच वक्त का नमाजी अपनी इबादत को लेकर पाबंद होता है, हम भी उसी पाबंदी से अपनी जिंदगी को गढ़ने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन 29 अगस्त 2012 की रात ने हमें तोड़कर रख दिया।
उस वक्त रात के तकरीबन नौ बज रहे थे, जब मजबूत कद-काठी के कई लोग हमारे कमरे में दाखिल होते हैं। बिना किसी बातचीत के हमें जबरन पुलिस वैन में ठूंस दिया जाता है और चंद मिनटों के भीतर हम सभी पुलिस कस्डटी में थे। पूछताछ से पहले तक हमें हमारा जुर्म नहीं पता था, सख्ती क्यों बरती जा रही है, यह भी नहीं मालूम था, लेकिन इससे पहले कि हमे कुछ मालूम चलता, हम पहले से तैयार पुलिसिया थ्योरी का शिकार हो चुके थे।
पुलिस ने गगनचुंबी इमारतों वाले हाईटेक शहर से कई खतरनाक आतंकवादी ढूंढ निकाले थे। लश्कर-ए-तय्यबा और जैश-ए-मोहम्मद से हमारा नाम जोड़ने का काम मीडिया ने कर दिया था। कहो कि तुमने पत्रकारों-नेताओं की हत्या करने की तैयारी की है। कहो कि तुम बंगलुरू में बम धमाके करना चाहते थे। कहो कि तुम बागीचों के शहर बंगलुरू को नफरत की आग में झोंक देना चाहते थे, यह सबकुछ पुलिस हमसे 29 अगस्त की रात की कबूल करवा लेना चाहती थी। बंगलुरू पुलिस बेहद जल्दबाजी में थी। शहर को तबाह करने के लिए हमारे और क्या-क्या प्लान थे, पुलिस यह भी उसी रात जान लेना चाहती थी।
इस हादसे ने मेरी जिंदगी के कुल 181 दिन लील लिए। मेरी रिहाई के लिए घरवालों ने लाखों रुपए लगा दिए। अब्बा के बाद इत्र का कारोबार भाई संभाल रहे थे, वह ठप्प चुका था। गिरफ्तारी की खबर सुनकर बदहवास बड़ी बहन बीमार हो गई थी और उनकी दवाईयां शुरू हो चुकी थीं। जिस वक्त घरवालों को इस हादसे की खबर मिली, वे छुट्टियां मनाने हुबली से बीजापुर की ओर जा रहे थे। घरवालों ने किसी तरह रात बीजापुर में रात काटी और अगली सुबह सब बंगलुरू में थे। मैंने 30 दिन पुलिस कस्टडी में बिताए, बाकी के 151 दिन बंगलुरू सेंट्रल जेल में।
घर के सारे लोग कारोबार या दूसरी नौकरी में हैं, लेकिन मैं पत्रकार बनना चाहता था। मैं पढ़ने में ठीक था और 2009 में भारतीय विद्या भवन से पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के साथ-साथ मैंने राष्ट्रीय सहारा उर्दू के लिए डेढ़ साल काम किया। पढ़ाई खत्म होने के साथ ही मुझे डेक्कन हेराल्ड में नौकरी मिली और बतौर क्राइम रिपोर्टर मैंने करियर की शुरुआत की। लेकिन एक शानदार करियर को पुलिस और खुफिया महकमे की भूल-चूक ने तहस-नहस कर दिया और पत्रकारिता ही मेरे लिए मुसीबतों का पहाड़ बन गई।
जांच एजेंसियां मुझसे बार-बार कह रही थीं कि तुम आतंकवादियों की मदद अपने पेशे के जरिए कर रहे थे। तुम आसानी से पता लगा सकते थे कि कौन-से अखबार का संपादक फिलहाल कहां है। नेताओं की लोकेशन भी पता लगाना तुम्हारे लिए मामूली बात थी। इन सारी पूछताछ के दौरान मैं सिर्फ बेबस होकर उनकी बातें सुनता और मना कर देता। मुझे यह डर भी सताने लगा था कि क्या मैं अब जिंदा बचूंगा या फिर मार दिया जाऊंगा। हालांकि उन्होंने मेरे साथ कोई मारपीट नहीं की, लेकिन दोस्तों को टॉर्चर किया। पिटाई के अलावा उनके जेनाइटल पार्ट्स में इलेक्ट्रिक शॉक दिए गए और पेट्रोल का इस्तेमाल किया। जब कई राज्यों की पुलिस और खुफिया एजेंसियां हमारे खिलाफ कोई सबूत जुटा पाने में नाकाम रहीं, तो केस एनआईए (नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी) को सौंप दिया गया और एनआईए नें हमें अपनी जांच में बेकसूर करार दिया।
इस हादसे के पहले तक मैं उन खुशनसीब मुसलमानों में से था जो कभी किसी पूर्वाग्रह का शिकार नहीं हुआ। स्कूल, सोसायटी, वर्क प्लेस समेत हर जगह मुझे मेरे व्यवहार और काबिलियत के लिए जाना जाता था, लेकिन आखिरकार अपनी धार्मिक पहचान के कारण अब जिंदगी भर इस दाग को लेकर जीना पड़ेगा। दुख इस बात का भी है कि जिन लोगों की वजह से मुझे इस त्रासदी का शिकार होना पड़ा, उनमें से किसी ने माफी नहीं मांगी। कोई मुआवजा देने की बात भी नहीं उठी। हां, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की ओर से राजदीप सरदेसाई ने जरूर अफसोस जाहिर किया। लेकिन क्या आप मानते हैं कि फिर कभी इस तरह की धरपकड़ होने के बाद मीडिया सरकार और जांच एजेंसियों का भोंपू नहीं बन जाएंगी?
नोटः बंगलुरू में पुलिस ने अगस्त 2012 में 15 मुस्लिम लड़कों को उठाया था। उन पर पत्रकारों-नेताओं की हत्या की योजना समेत कई आरोप लगे थे। उन 15 लोगों में डेक्कन हेराल्ड के पत्रकार मुती-उर-रहमान और उनके चार दोस्तों को भी उठाया गया था। मुती-उर-रहमान और उनके एक दोस्त मोहम्मद युसूफ को एनआईए जी जांच के बाद 25 फरवरी को रिहा किया गया है। उनके अन्य रूम मेट डीआरडीओ में जूनियर रिसर्च फेलो एजाज अहद मिर्जा, एमसीए कर रहे छोटे भाई शोएब अहमद मिर्जा और रियाज अहमद अभी भी जेल में हैं, लेकिन जल्द रिहाई की उम्मीद हैं।
(जेल से रिहा होने के बाद हिल्ले ले को मुती-उर-रहमान की दी गई विशेष टिप्पणी)
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