उत्तर प्रदेश में जहां मुस्लिम वोट के लिए जंग जारी है, वहीं दलों का दलितों के प्रति दुलार जगा है। यही वजह है कि बसपा 88, सपा 85, भाजपा 85 और कांग्रेस ने 87 विधानसभा सीटों पर अपने-अपने प्रत्याशी उतारे हैं। मायावती ने जिन 88 दलितों को उम्मीदवार बनाया है, उनमें से 78 खुद उनकी अपनी जाटव जाति के हैं, जबकि उन्होंने पासियों को 4, धोबियों को 2 और धानुक, नट व वाल्मीकि जातियों को 1-1 टिकट ही दिया हैं। दलितों की एक अन्य जाति कोरी भी प्रदेश के कई हलकों में ताकतवर मानी जाती है, लेकिन मायावती ने इसके एक भी प्रतिनिधि को प्रत्याशी नहीं बनाया है। ज्ञातव्य है कि प्रदेश में दलितों की कुल 66 जातियां निवास करती हैं और गाहे-बगाहे उनमें सुगबुगाहट चलती रहती है कि मायावती सिर्फ अपनी जाति के दलितों को आगे बढ़ाने में विश्वास रखती हैं। इसीलिए उनकी सत्ता में मुश्किल से चार दलित जातियों की ही भागीदारी रहती है।
आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश में कुल दलित मतदाता 35148377 हैं। यह प्रदेश की कुल आबादी का 21.15 प्रतिशत है। इस आबादी का करीब 16.2 दलित मतदाता गांवों में निवास करता है। उत्तर प्रदेश में कांशीराम के दलित उत्थान ने कांग्रेस को बौना बनाकर रख दिया। कांशीराम के बाद बसपा की दलितों की रहनुमा बसपा नेत्री मायावती बन गईं। उन्होंने दलित महापुरुषों के नाम पार्कों की स्थापना की। उनमें दलित महापुरुषों की मूर्तियां लगवाकर दलितों के साम्राज्य स्थापना की एक बड़ी लकीर खींच दी। फिर बाद में इन्हीं पार्क स्थलों पर दलितों को बुलाकर उनके जमीर को जगाने का काम किया। अपार भीड़ ने मायावती के हौंसले को और बढ़ा दिया। लेकिन बसपा नेत्री इस मुग्धता में यह भूल बैठीं कि केवल महापुरुषों की मूर्तियां व अपनी मूर्तियां बनवाने से किसी दलित का विकास नहीं हो जाता, उसे जमीनी तौर पर विकास की धारा में लाना चाहिए। राजनीतिक पंडित कहते हैं कि मायावती ने सिर्फ अपने को विकसित किया है। यहां तक कि उन्होंने अपनी मूर्ति बनवाकर पार्कों में जिन्दा रहते लगवा दी। दो दशकों में मायावती का कद सौ गुना बढ़ गया।
2007 के चुनाव सोशल इंजीनियरिंग के बल पर जीती बसपा सरकार में दलितों में असंतोष का गुबार तब फूटने लगा, जब मायावती ने सत्ता में आते ही अपनी नई ब्राहमण-दलित सोशल इंजीनियरिंग के तहत अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण कानून पर अमल रोक दिया। उनका तर्क था कि इस कानून का बहुत दुरुपयोग हो रहा है। परिणाम यह हुआ कि खास वर्ग चरित्र वाली प्रदेश की पुलिस ने इस तर्क के संकेतों को अपनी खास शैली में समझा और दलितों के विरूद्ध अत्याचारों की प्रथम सूचनाएं दर्ज करने से ही परहेज शुरू कर दिया। गौरतलब यह भी है कि मायावती ने अपने समूचे कार्यकाल में जिन दर्जनों मंत्रियों को बर्खास्त किया, उनमें सें एक बड़ी संख्या ऐसों की रही जो दलित उत्पीड़न में अपनी लिप्तता के कारण बदनाम हुए। उनके विरुद्ध कार्रवाई भी मायावती ने अपनी इच्छा से नहीं बल्कि बढ़ते दबाव में मजबूर होकर ही की। अति दलितों में इस बात को लेकर भी अवसाद व्याप्त हुआ कि दलित विधायकों ने उनकी समस्याओं पर कतई गौर नहीं किया और सामंतो जैसे शोषण पर ही उतारू रहे। प्रदेश में ऐसे दलितों की एक बड़ी संख्या है। जो बसपा का नाम लेते ही बिफर पड़ते हैं। वे कहते सुने जाते हैं कि बसपा सरकार ने उन्हें क्या दिया। वे पहले भी लूट का शिकार होते थे, अब भी हो रहे है। एक बिस्वा भूमि का पट्टा भी घूस दिए बिना नहीं मिलता। इन दलितों को घूस देने पर भी आवास व पेंशन न मिलने की भी शिकायते हैं। यहां ताकि उन्हें मनरेगा में सौ दिनों के रोजगार की गारंटी में घूसखोरों से उलझना पड़ा। राशन की दुकानों से लाल कार्ड की सुविधा नहीं मिली। डॉ अंबेडकर और कांशीराम के नाम पर शुरू की गई विकास योजनाओं से अंबेडकर गांवों में आवासों, सड़कों, स्कूलों, बिजली, सफाई और जलापूर्ति के हालात थोड़े सुधरे हैं, लेकिन इसका ज्यादा लाभ उन्हें नहीं मिल पाता, जो दलित गांव के बाहर हैं उनकी समस्या जैसी की तैसी बनी हुई हैं।
अनुसूचित वर्ग की आबादी में सबसे अधिक 13 प्रतिशत जाटव हैं, जिन पर बसपा एकछत्र राज मानती है। दलितों की शेष पांच दर्जन से अधिक छोटी-बड़ी जातियों व उपजातियों पर उसकी पकड़ अपेक्षाकृत हल्की मानी जाती हैं। इसी कमजोरी को अपनी ताकत बनाने के लिए भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस ने अपनी नजर दलित वर्ग की जिन बिरादरियों पर लगायी है, उसमें 8.34 प्रतिशत वाल्मीकि, 3.5 फीसदी पासी, तीन प्रतिशत कोरी, दो फीसदी धोबी व सोनकर व एक-एक प्रतिशत धुनिया, खरवार व बेलदार प्रमुख हैं। दलित बाहुल्य जिलों पर नजर डालें तो उनमें सीतापुर, हरदोई, इलाहाबाद, आजमगढ़, उन्नाव, रायबरेली, खीरी, गोरखपुर, जौनपुर, आगरा, लखनऊ बाराबंकी, सुलतानपुर, कानपुर नगर, और बिजनौर हैं, जहां दलितों की संख्या अधिक है। इसी के चलते सभी राजनीतिक दलों की निगाह इन जनपदों पर दलित वोट बटोरने की लगी रहती है। इन दलित जातियों में अगरिया, बधिक, बदी, बेहलिया, बैगा, बैसवार, बजनिया, बजगी, बलहार, वाल्मीकि, बंगाली, वनमानुष, बंसफोर, बरवार, बसोर, बावरिया, बेलदार, बेड़िया, भंतू, भुइयां, भुइहार, चर्मकार, छेरो, दबगर, धांगर, धानुक, धरकार, धोबी, डोम, डोमार, दुसाध, घरमी, घसिया, गोंड, गुआल, हबुरा, हरी, हेला, कलाबाज, कंजड़, कपनिया, करवल, खैरहा, खैरवार, खटिक, खरोट, कोल, कोरी, कोरवा, लालबेगी, मझवार, मजहबी, मुसहर, नट, पांखा, परहिया, पासी, पटारी, रावत, सहरिया, सनौरिया, सासिंया, शिल्पकार और तुरहिया जातियां शामिल हैं।
बहरहाल कोई भी विपक्षी दल जिसके पास इससे आगे के भरासेमंद आश्वासन हों प्रदेश के दलित उसी के साथ जुड़ने को तत्पर दिखाई देते हैं, लेकिन मुश्किल इस बात की है कि मायावती के बनवाए पार्कों व स्मारकों पर धन के अपव्यय का सवाल उठाती पार्टियों के पास इस सवाल का जवाब तक नहीं है कि वे सत्ता में आएंगी तो इन स्मारकों व पार्कों का क्या करेंगी? मुलायम की पार्टी तो उन्हें ढहाकर दलित दुश्मनी की हद तक जाने को तैयार दिखती है। मुलायम सिंह का कहना है कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आयी तो पार्कों की जगह अस्पताल खुलेंगे। जबकि कांग्रेस इस बारे में अपना मुंह सीये है। एक अकेली भाजपा है, जिसने अपने एजेंडे में दलितों के महापुरुषों को विशेष स्थान दिया है। भाजपा के नेता कहते हैं कि अगर भाजपा सत्ता में आती है, तो इन स्मारकों व पार्कों की पुनर्रचना करेगी और उनमें सूरदास, कबीरदास, तुलसीदास, मीरा, मलिक मोहम्मद जायसी और संत रविदास की भी मूर्तियां स्थापित करेगी। लेकिन दलितों को चाहे वह भाजपा हो, सपा हो, या कांग्रेस किसी पार्टी पर यकीन नहीं हो रहा है कि वह दलितों की पहचान को उत्तरोत्तर कायम रख पायेंगे।
दलित सियासत का रूप बदलने की कसरत 2007 के विधानसभा चुनाव के बाद शुरू हुई, क्योंकि बसपा ने प्रदेश की 62 आरक्षित सीटों पर कब्जा कर अन्य दलों को काफी पीछे छोड़ दिया था। सन 1991 में 61 आरक्षित विस सीटों पर केसरिया फहराने वाली भाजपा मात्र सात सीटों पर सिमटकर रह गई थी। सपा के 11 व कांग्रेस के पांच दलित विधायक जीत दर्ज कर सके। कोशिशों का असर वर्ष 2009 में नजर आया और लोस की सुरक्षित सीटों पर बसपा के एकाधिकार को कड़ी चुनौती मिली थी। प्रदेश के 17 आरक्षित संसदीय क्षेत्रों में सपा के दस और बसपा व कांग्रेस के दो-दो सांसद जीते। दलित सियासत में लगी बदलाव की उम्मीद को कैश करने को भाजपा ने अपना एजेंडा बदलते हुए गैर जाटवों का प्रतिनिधित्व बढ़ाया है।
बसपा के वोट बैंक में हिस्सेदारी सुनिश्चित करने को नए एक्शन प्लान के तहत भाजपा नेतृत्व ने अन्य राज्यों के दलित नेताओं को मैदान में उतारा हैं। भाजपा अनुसूचित मोर्चा के राष्ट्रीय महामंत्री दिवाकर सेठ का कहना है कि दलितों को बांटने की कोई योजना नहीं है। क्षेत्रीय जातीय गणित को ध्यान में रखकर ही पार्टी ने उम्मीदवार तय किए है। बसपा के कुशासन के खिलाफ दलितों में भी बेहद नाराजगी है और जिसका लाभ भाजपा को ही मिलेगा। इसे फोकस करते हुए ही नणनीति तय की है। 2012 की कामयाबी को भाजपा ने 85 आरक्षित विधानसभा सीटे ‘टारगेट‘ कर चुनावी रणनीति तय की है। प्रदेश को तीन जोन में विभक्त कर केंद्रीय पदाधिकारियों को प्रभारी बनाया है।
इंडियन जस्टिस पार्टी के मुखिया उदित राज का कहना है कि दलितों को आज भी वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया जाता हैं। आजादी के बाद से वाकई अगर दलितों के लिए प्रयास होते तो यह शब्द ही समाप्त हो गया होता। यह परिवर्तन जरूर आया है कि यह वर्ग आज भी अपने किसी नेता या अफसर को बड़े गर्व की दृष्टि से देखता है। राजनैतिक पार्टियों की गलत नीतियों से दलितों का जितना विकास होना चाहिए था नहीं हुआ। अभी भी चेतना की जरूरत है कि राजनीति में दलितों को भागदारी हो।
भाजपा अनुसूचित जाति मोर्चा पदाधिकारियों के राष्ट्रीय अध्यक्ष दुष्यंत गौतम की अध्यक्षता में आयोजित बैठक में वर्ष 1991 के विस चुनाव में आरक्षित सीटों पर पार्टी के प्रदर्शन को दोहराने का संकल्प लिया गया। तब भाजपा के 61 विधायक अनुसूचित वर्ग से चुनकर आए थे, लेकिन 2007 के विधानसभा चुनाव में संख्या घटकर मात्र सात ही रह गई। प्रभारी रामनाथ कोविंद ने दावा किया कि बसपा के तेजी से गिरते ग्राफ को लाभ आरक्षित सीटों पर भाजपा को ही मिलेगा। करीब 51 आरक्षित विस क्षेत्रों पर भाजपा काफी बेहतर स्थिति में है। लेकिन सवाल यह है दलों का दलितों के प्रति दुलार तो बढ़ा है, दलों की दलित जंग में दलित जाएं तो कहा जाए।
लखनऊ से वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार की रिपोर्ट. अजय ‘माया’ मैग्जीन के ब्यूरो प्रमुख रह चुके हैं. वर्तमान में ‘चौथी दुनिया’ और ‘प्रभा साक्षी’ से संबद्ध हैं.