इलाहाबाद। भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक ने उत्तर प्रदेश में औने-पौने दाम में चीनी मिलें बेचने के मामले में कई हजार करोड़ रूपये के घोटाले की पुष्टि की है। अनुमानत: 25 हजार करोड़ रुपये के इस घोटाले में मूल्यांकित किये गये मूल्यों में कटौती करने के कारण जहां 864.99 करोड़ रुपये राजस्व की क्षति हुई वहीं जो चीनी मिलें बेची गयीं उनके मूल्यांकन में सर्किल रेट की अनदेखी करने के कारण 600.18 करोड़ रुपये राजस्व की क्षति हुई। दरअसल सारा घोटाला और घपला मूल्यांकन के दौरान ही किया जाता है। इस तरह कुल 35 सरकारी चीनी मिलों को मायावती सरकार ने अपने चहेते शराब माफिया पोंटी चड्ढा ग्रुप को लाभ पहुंचाने के लिए गैरपारदर्शी ढंग से बेचा और सरकारी राजस्व को लगभग 25 हजार करोड़ का चूना लगाया।
महालेखापरीक्षक की रिपोर्ट में चीनी मिलों के मूल्यांकन में हेराफेरी, मनमाने ढंग से मूल्यांकित मूल्य में कमी करने, मूल्यांकन में सर्किल रेट के आधार पर आगणन न करने, गुपचुप लेनदेन, गैरपारदर्शी तरीके से नीलामी तथा टेंडर प्रक्रिया में हेराफेरी से हजारों करोड़ रुपये के राजस्व हानि की पुष्टि की है। उत्तर प्रदेश राज्य चीनी निगम लिमिटेड (यूपीएसएससीएल) की स्थापना 1971 में हुई। वर्ष 1971 से 1989 में 29 चीनी मिलों को अधिग्रहित किया गया। वर्ष 1978 से 1988 तक छह चीनी मिलें स्थपित की गयी। इन 35 चीनी मिलों में पांच मिले चीनी निगम की सब्सिडियरी के प्रबंधन में दी गयी, जिनमें किच्छा चीनी मिल, नंदगंज और सिरोही चीनी मिलें, छाता चीनी मिल तथा घाटमपुर चीनी मिल शामिल हैं। शेष 30 कंपनियां चीनी निगम के सीधे नियंत्रण में थीं।
मई 1995 में चीनी निगमों को भारी घाटा होने के कारण बीआईएफआर में चली गयीं। जिसके सुझाव के आधार पर चीनी निगम 11 स्वस्थ अच्छी चलने वाली मिलें चलाने का निर्णय लिया गया तथा दस बंद मिले (इसमें बाराबंकी, बरेली, छितौनी, घुघली, हरदोई, मोहाली, मेरठ, मुंडेरवा, नवाबगंज तथा रामपुर शामिल है) तथा आठ बीमार चीनी मिलों (भटनी, भूरवल, देवरिया, रामकोला तथा साहदगंज, बैतालपुर, लक्ष्मीगंज और पिपराइच) को मई 2002 में गठित उत्तर प्रदेश राज्य चीनी एवं गन्ना विकास निगम
लिमिटेड को दे दी गयी। डोईवाला और किच्छा चीनी मिलें 2002 में उत्तराखंड को दे दी गयीं तथा चार चीनी मिलें नंदगंज, छाता, घाटमपुर और रायबरेली चीनी निगम की सब्सिडियरी के पास रह गयीं। वर्ष 2009 से चीनी मिलों के विनिवेश के लिए इनके मूल्यांकन की प्रक्रिया शुरू की गयी।उत्तर प्रदेश में तीन प्रकार की चीनी मिलें हैं सरकारी, प्राइवेट, कोआपरेटिव। शुगर कारपोरेशन की 35, शुगर फेडरेशन की 28 और 93 प्राइवेट मिलें हैं। शुगर कारपोरेशन तब अस्तित्व में आया जब काफी चीनी मिलें घाटे में थीं। सन 1971 से 1989 के बीच में उन्हें राष्ट्रीयकृत किया गया। अभी पिछले कई सालों से यूपी शुगर कारपोरेशन की चीनी मिलें घाटे में चल रही थीं। बसपा सरकार ने इसमें अपना निजी स्वार्थ साधने की नियत से और अवैध लाभ कमाने के लिए इन चीनी मिलों को औने-पौने दामों में बेचना शुरू कर दिया। शुरुआती बोली का दौर दिल्ली में पिछले साल सम्पन्न कराया गया। उस दौर में चीनी उद्योग से जुड़े कुछ बड़े नाम जैसे बिरला शुगर, डालमियां ग्रुप, सिम्बोली शुगर, धामपुर शुगर, द्वारिका शुगर, उत्तम शुगर, त्रिवेणी शुगर और मोदी शुगर ने बोली में भाग लिया। लेकिन इण्डियन पोटास और वेव इण्डस्ट्री को छोड़कर बाकी शेष बड़े नामों ने खुद को बोली से अलग कर लिया।
गौरतलब है कि सरकार ने सुनियोजित तरीके से अपने चहेते उद्यमी पोंटी चड्ढा जिसके पास इससे पहले तक केवल एक चीनी मिल थी, उसी की फ्रंट कम्पनीज के पक्ष में नीलामी स्वीकार की। जो नीलामी की गयी, उसमें जो बोली लगायी गयी या लगवायी गयी वह दिखावा मात्र थी क्योंकि चीनी मिलों की जमीन की कीमत से भी कम बोली लगी थी। आरोप है कि बाकी बोली लगाने वाले जिन्होंने पहले हिस्सा लिया था उनको नीलामी में भाग लेने से रोका गया। जरूरत से कम दामों में बोली लगाने से कुछ खास चहेतों को लाभ पहुंचाकर बोली के न्यूनतम मूल्य से कम की बोली लगवायी गयी। जमीन का दाम न के बराबर लगाया गया। उस मील की मशीनें, भवन, रॉ-मेटेरियल्स, आवासीय परिसर की सुविधाओं को भी ध्यान में नहीं रखा गया। उनका मूल्य भी नहीं के बराबर लगाया गया। डिस्काउंट कैश फ्लो मेथड के जरिए इनके मूल्य का आंकलन किया गया। इस तरीके से बोली की शुरुआत ही कम कीमत से हुई।
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जेपी सिंह द्वारा लिखी गई यह खबर लखनऊ-इलाहाबाद से प्रकाशित अखबार डीएनए में छप चुकी है, वहीं से साभार लिया गया है.