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48 लाख करोड़ का थोरियम घोटाला (भाग चार)

संसद का मानसून सत्र समाप्त हो चुका है. कोयले घोटाले की आंच ने सरकार को संसद में बैठने नहीं दिया. 1.86 लाख करोड़ के घोटाले ने हर भारतीय के दिमाग की नसें हिला दी है. पहली बार किसी ने इतने बड़े घोटाले के बारे में पढ़ा है. इस बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है और जनमानस भी इससे काफी वाकिफ हो चुका है. लेकिन इन सबके बीच एक और घोटाला ऐसा हुआ है जिसके बारे में व्यापक जनमानस अब तक अनजान ही है. ये एक ऐसा घोटाला है जिसमें हुई क्षति वैसे तो लगभग अमूल्य ही है लेकिन कहने के लिए द्रव्यात्मक तरीके से ये करीबन 48 लाख करोड़ का पड़ेगा. प्रो कल्याण जैसे सचेत और सचेष्ट नागरिकों के प्रयास से ये एकाधिक बार ट्विट्टर पर तो चर्चा में आया लेकिन व्यापक जनमानस अभी भी इससे अनजान ही है. 

संसद का मानसून सत्र समाप्त हो चुका है. कोयले घोटाले की आंच ने सरकार को संसद में बैठने नहीं दिया. 1.86 लाख करोड़ के घोटाले ने हर भारतीय के दिमाग की नसें हिला दी है. पहली बार किसी ने इतने बड़े घोटाले के बारे में पढ़ा है. इस बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है और जनमानस भी इससे काफी वाकिफ हो चुका है. लेकिन इन सबके बीच एक और घोटाला ऐसा हुआ है जिसके बारे में व्यापक जनमानस अब तक अनजान ही है. ये एक ऐसा घोटाला है जिसमें हुई क्षति वैसे तो लगभग अमूल्य ही है लेकिन कहने के लिए द्रव्यात्मक तरीके से ये करीबन 48 लाख करोड़ का पड़ेगा. प्रो कल्याण जैसे सचेत और सचेष्ट नागरिकों के प्रयास से ये एकाधिक बार ट्विट्टर पर तो चर्चा में आया लेकिन व्यापक जनमानस अभी भी इससे अनजान ही है. 

 
ये घोटाला है थोरियम का-परमाणु संख्या 90 और परमाणु द्रव्यमान 232.0381.इस तत्व की अहमियत सबसे पहले समझी थी प्रो भाभा ने. महान वैज्ञानिक होमी जहागीर भाभा ने 1950 के दशक में ही अपनी दूर-दृष्टि के सहारे अपने प्रसिद्ध-“Three stages of Indian Nuclear Power Programme” में थोरियम के सहारे भारत को न्यूक्लियर महा-शक्ति बनाने का एक विस्तृत रोड-मेप तैयार किया था. उन दिनों भारत का थोरियम फ्रांस को निर्यात किया जाता था और भाभा के कठोर आपत्तियों के कारण नेहरु जी ने उस निर्यात पर प्रतिबन्ध लगाया. भारत का परमाणु विभाग आज भी उसी त्रि-स्तरीय योजना द्वारा संचालित और निर्धारित है. एक महाशक्ति होने के स्वप्न के निमित्त भारत के लिए इस तत्व (थोरियम) की महत्ता और प्रासंगिकता को दर्शाते हुए प्रमाणिक लिंक निचे है-
 
 
 
अब बात करते है थोरियम घोटाले की. वस्तुतः बहु-चर्चित भारत-अमेरिकी डील भारत की और से भविष्य में थोरियम आधारित पूर्णतः आत्म-निर्भर न्यूक्लियर शक्ति बनने के परिपेक्ष्य में ही की गयी थी. भारत थोरियम से युरेनियम बनाने की तकनीक पर काम कर रहा है लेकिन इसके लिए ३० वर्षों का साइकिल चाहिए. इन तीस वर्षो तक हमें यूरेनियम की निर्बाध आपूर्ति चाहिए थी. उसके बाद स्वयं हमारे पास थोरियम से बने यूरेनियम इतनी प्रचुर मात्र में होते की हम आणविक क्षेत्र में आत्म-निर्भरता प्राप्त कर लेते. रोचक ये भी था की थोरियम से यूरेनियम बनने की इस प्रक्रिया में विद्युत का भी उत्पादन एक सह-उत्पाद के रूप में हो जाता (http://www.world-nuclear.org/info/inf62.html). एक उद्देश्य यह भी था कि भारत के सीमित यूरेनियम भण्डारों को राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से आणविक-शश्त्रों के लिए आरक्षित रखा जाये जबकि शांति-पूर्ण उद्देश्यों यथा बिजली-उत्पादन के लिए थोरियम-यूरेनियम मिश्रित तकनीक का उपयोग हो जिसमें यूरेनियम की खपत नाम मात्र की होती है. शेष विश्व भी भारत के इस गुप्त योजना से परिचित था और कई मायनों में आशंकित ही नहीं आतंकित भी था. उस दौरान विश्व के कई चोटी के आणविक वेबसाइटों पर विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों के बीच की मंत्रणा इस बात को प्रमाणित करती है. सुविधा के लिए उन मंत्रनाओ में से कुछ के लिंक नीचे दे रहा हूँ-   
 
 
 
 
किन्तु देश का दुर्भाग्य की महान एवं प्रतिभा-शाली वैज्ञानिकों की इतनी सटीक और राष्ट्र-कल्याणी योजना को भारत के भ्रष्ट-राजनीति के जरिये लगभग-लगभग काल-कलवित कर दिया गया. आशंकित और आतंकित विदेशी शक्तियों ने भारत की इस बहु-उद्देशीय योजना को विफल करने के प्रयास शुरू कर दिए और इसका जरिया हमारे भ्रष्ट और मूर्ख राजनितिक व्‍यवस्‍था को बनाया. वैसे तो १९६२ को लागू किया गया पंडित नेहरु का थोरियम-निर्यात प्रतिबन्ध कहने को आज भी जारी है. किन्तु कैसे शातिराना तरीके से भारत के विशाल थोरियम भंडारों को षड़यंत्र-पूर्वक भारत से निकाल ले जाया गया!! दरअसल थोरियम स्वतंत्र रूप में रेत के एक सम्मिश्रक रूप में पाया जाता है, जिसका अयस्क-निष्कर्षण अत्यंत आसानी से हो सकता है. थोरियम की यूरेनियम पर प्राथमिकता का एक और कारण ये भी था की क्यूंकि खतरनाक रेडियो-एक्टिव विकिरण की दृष्टि से थोरियम यूरेनियम की तुलना में कही कम (एक लाखवां भाग) खतरनाक होता है, इसलिए थोरियम-विद्युत-संयंत्रों में दुर्घटना की स्थिति में तबाही का स्तर कम करना सुनिश्चित हो पाता. विश्व भर के आतंकी-संगठनों के निशाने पर भारत के शीर्ष स्थान पर होने की पृष्ठ-भूमि में थोरियम का यह पक्ष अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रासंगिक था. साथ ही भारत के विशाल तट-वर्ती भागों के रेत में स्वतंत्र रूप से इसकी उपलब्धता यूरेनियम के भू-गर्भीय खनन से होने वाली पर्यावरणीय एवं मानवीय क्षति की रोकथाम भी सुनिश्चित करती थी. 
 
कुछ २००८ के लगभग का समय था. दुबई स्थित कई बड़ी रियल-स्टेट कम्पनियां भारत के तटवर्ती इलाको के रेत में अस्वाभाविक रूप से रूचि दिखाने लगी. तर्क दिया गया कि अरब के बहुमंजिली गगन-चुम्बी इमारतों के निर्माण में बजरी मिले रेत की जरुरत है. असाधारण रूप से महज एक महीने में आणविक-उर्जा-आयोग की तमाम आपत्तियों को नजरअंदाज करके कंपनियों को लाइसेंस भी जारी हो गए. थोरियम के निर्यात पर प्रतिबन्ध था किन्तु रेत के निर्यात पर नहीं. कानून के इसी तकनीकी कमजोरी का फायदा उठाया गया. इसी बहाने थोरियम मिश्रित रेत को भारत से निकाल निकाल कर ले जाया जाने लगा. या यूँ कहें रेत की आड़ में थोरियम के विशाल भण्डार देश के बाहर जाने लगे. हद तो ये हो गयी कि जितने कंपनियों को लाइसेंस दिए गए उससे कई गुना ज्यादा बेनामी कम्पनियाँ गैर-क़ानूनी तरीके से बिना भारत सरकार के अनुमति और आधिकारिक जानकारी के रेत का खनन करने लगी. इस काम में स्थानीय तंत्र को अपना गुलाम बना लिया गया. भारतीय आणविक विभाग के कई पत्रों के बावजूद सरकार आँख बंद कर सोती रही. विशेषज्ञों के मुताबिक इन कुछ सालों में ही ४८ लाख करोड़ का थोरियम निकाल लिया गया. भारत के बहु-नियोजित न्यूक्लियर योजना को गहरा झटका लगा लेकिन सरकार अब भी सोयी है.
 
अब आते है इसी थोरियम से सम्बंधित एक और मसले पर- राम-सेतु से जुड़ा हुआ. दरअसल अमेरिका शुरू से ही जानता था कि भारत के उसके साथ परमाणु करार की असल मंशा इसी थोरियम आधारित तीसरे अवस्था के आणविक-आत्मनिर्भरता को प्राप्त करना है. पूरे विश्व को पता था कि थोरियम का एक बहुत बड़ा हिस्सा भारत के पास है. लेकिन फिर थोरियम पर नासा के साथ यूएस भूगर्भ संस्‍थान के नए सर्वे आये. पता चला कि जितना थोरियम भारत के पास अब तक ज्ञात है उससे कही ज्यादा थोरियम भंडार उसके पास है. इन नवीन भंडारों का एक बहुत बड़ा हिस्सा राम-सेतु के नीचे होने का पता चला. इस सर्वे को शुरुआत से ही गुप्त रखा गया और किसी अंतर-राष्ट्रीय मंच पर इसका आधिकारिक उल्लेख नहीं होने दिया गया. किन्तु गाहे-बगाहे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलनों में आणविक-विशेषज्ञ, परमाणु वैज्ञानिक "ऑफ दी रिकॉर्ड" इन सर्वे की चर्चा करने लगे. अभी हाल में थोरियम-सम्बन्धी मामलों में सबसे चर्चित और प्रामाणिक माने जाने वाली और थोरियम-विशेषज्ञों द्वारा ही बनायीं गयी साईट- http://thoriumforum.com/reserve-estimates-thorium-around-world  में पहली बार लिखित और प्रामाणिक तौर इस अमेरिकी सर्वे के नतीजे पर रखे गए. इस रिपोर्ट में साफ़ बताया गया है कि अमेरिकी भूगर्भीय सर्वे संस्थान ने शुरुआत में भारत में थोरियम की उपलब्धता लगभग 290000 मीट्रिक टन अनुमानित की थी. किन्तु बाद में इसने इसकी उपलब्धता दुगुनी से भी ज्यादा लगभग 650000 नापी जो कुल थोरियम भंडार 1650000 मीट्रिक टन का लगभग40% है. इस तरह अमेरिका मानता है कि भारत के पास थोरियम के 290000 से 650000 मीट्रिक टन के भंडार है. रिपोर्ट के मुताबिक अतिरिक्त 360000 मीट्रिक थोरियम में से ज्यादातर राम सेतु के नीचे है. लेकिन इस रिपोर्ट को कभी आधिकारिक रूप से जारी नहीं किया गया है.  
 
दरअसल भारत के पास इतने बड़े थोरियम भंडार को देख कर अमेरिकी प्रशासन के होश उड़ गए थे. भारत के पास पहले से ही थोरियम के दोहन और उपयोग की एक सुनिश्चित योजना और तकनीक के होने और ऐसे हालात में भारत के पास प्रचुर मात्र में नए थोरियम भण्डारों के मिलने ने उसकी चिंता को और बढ़ा दिया. इसलिए इसी सर्वे के आधार पर भारत के साथ एक मास्टर-स्ट्रोक खेला गया और इस काम के लिए भारत के उस भ्रष्ट तंत्र का सहारा लिया गया जो भ्रष्टता के उस सीमा तक चला गया था जहाँ निजी स्वार्थ के लिए देश के भविष्य को बहुत सस्ते में बेचना रोज-मर्रा का काम हो गया था. इसी तंत्र के जरिये भारत में ऐसा माहौल बनाने की कोशिश हुई की राम-सेतु को तोड़ कर यदि एक छोटा समुंद्री मार्ग निकला जाये तो भारत को व्यापक व्यापारिक लाभ होंगे, सागरीय-परिवहन के खर्चे कम हो जायेंगे. इस तरह के मजबूत दलीलें दी गयी और हमारी सरकार ने राम-सेतु तोड़ने का बाकायदा एक एक्शन प्लान बना लिया. अप्रत्याशित रूप से अमेरिका ने इस सेतु को तोड़ने से निकले मलबे को अपने यहाँ लेना स्वीकार कर लिया, जिसे भारत सरकार ने बड़े आभार के साथ मंजूरी दे दी. योजना मलबे के रूप में थोरियम के उन विशाल भण्डारो को भारत से निकाल ले जाने की थी. अगर मलबा अमेरिका नहीं भी आ पता तो समुंद्री लहरें राम-सेतु टूट जाने की स्थिति में थोरियम को अपने साथ बहा ले जाती और इस तरह भारत अपने इस अमूल्य प्राकृतिक संसाधन का उपयोग नहीं कर पाता.
 
लेकिन भारत के प्रबुद्ध लोगों तक ये बातें पहुंच गयी. गंभीर मंत्रनाओं के बाद इसका विरोध करने का निश्चय किया गया और भारत सरकार के इस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर हुई. किन्तु एक अप्रकाशित और इसलिए अप्रमाणिक, उस पर भी विदेशी संस्था के रिपोर्ट के आधार पर जीतना मुश्किल लग रहा था. और विडंबना यह थी कि जिस भारत सरकार को ऐसी किसी षड़यंत्र के भनक मात्र पे समुचित और विस्तृत जाँच करवानी चाहिए थी, वो अच्छा लगा कि DAE ने मीडिया रिपोर्ट का संज्ञान लेने और खंडन करने का कष्ट तो उठाया। हालांकि उस जैसी प्रतिष्ठित संस्था का गलत और भ्रामक तथ्यों के साथ आना कचोट भी गया. हालांकि दोषी का अपने बचाव में झूठ कहना जग की रीत है- इस आधार पर DAE को माफ़ी दी जा सकती है. अपने तमाम झूठ और गलत बयानी के बावजूद मेरी बधाई DAE को इसलिए भी है की उसने संवेदनशीलता का परिचय तो दिया ही है. वरना इन दिनों सरकारी संस्थाएं तो इतनी दुस्साहसी और ढीठ हो चुकी है कि अदालतों के आदेश बे-असर साबित हो रहे हैं, मीडिया रिपोर्ट की तो बात ही क्या!!! 
 
तो अणु शक्ति भवन, सी एस एम् मार्ग (DAE का आधिकारिक पता) से 19 अक्टूबर,2012 को जारी अपने दो पन्नो के प्रेस रिलीज़ (http://www.dae.nic.in/writereaddata/pr070512.pdf) में DAE एक तरह से देश को आश्वस्त करता है की थोरियम लूट पर आ रही मीडिया रिपोर्ट गलत है, अफवाह-जनक है- ऐसी कोई लूट इस देश में नहीं हुई। और देश के विशाल थोरियम भण्डार बेहद सुरक्षित और भरोसेमंद निगरानी में है।
 
यहाँ ये बेहद रोचक है की किस तरह DAE ने अपने इस प्रेस रिलीज़ में बड़ी चालाकी और सफाई से उन बिन्दुओं से बचने का प्रयास किया है जो उसके लिए जरा भी परेशानी का सबब बन सकती है और आधे-सच के जरिये देश के सामने एक ऐसी तस्वीर रखने की कोशिश की है जहां सब कुछ ठीक है -जबकि हकीकत में ऐसा है नहीं. इसलिए ठीक 30 दिनों बाद इस प्रेस रिलीज़ के जवाब में DAE को मेरा ये पत्र उसे को "सफाई" के बदले "सच्चाई" के साथ आने के आग्रह के साथ है- 

 

सेवा में,

 
जन-जागरूकता विभाग
 
आणविक- उर्जा विभाग
 
अणु-शक्ति भवन
 
सी एस एम् मार्ग,
 
मुंबई-  400 001 
 
विषय: विभाग से 19 अक्टूबर,2012 को जारी (पत्रांक- 13(1)/2012-13/PAD-PR ) प्रेस रिलीज़ के सम्बन्ध में।
 
महाशय,
 
अच्छा लगा की DAE ने मीडिया रिपोर्ट का संज्ञान लेने और खंडन करने का कष्ट उठाया। हालांकि उस जैसी प्रतिष्ठित संस्था का गलत और भ्रामक तथ्यों के साथ आना कचोट भी गया।
 
उम्मीद करता हूँ मेरे इस पत्र में नीचे उठाये गए सिलसिलेवार  प्रेक्षणों/ जिज्ञासाओं और आपत्तियों का स्पष्ट,तथ्यात्मक और  संतुष्टिजनक उत्तर देकर देकर DAE को लेकर मेरी अब तक की कायम हुई राय को गलत साबित करेंगे।
 
1. इस प्रेस रिलीज़ के पहले पैराग्राफ में DAE कहता है-
 
"Recently, some sections of the media have alleged that private companies have been allowed to export millions of tons of monazite, and that India has lost large quantities of thorium, worth several lakhs of crores of rupees, through such export. This information is not true "
 
ऐसा लगता है यहाँ DAE. मीडिया को पूरी तरह से गैरजिम्मेदार बताने के शायद कुछ ज्यादा ही जल्दी में है। मीडिया रिपोर्ट्स में ऐसा कहीं नहीं कहा गया है की थोरियम या मोनाजयीट के निर्यात की अनुमति दी गयी है। लगभग सारे मीडिया रिपोर्ट्स इसी बात की ताकीद करते रहे हैं की बहुमूल्य थोरियम को दुर्लभ-मृदा-तत्वों जिन्हें रेत-खनिज भी कहा जाता है- उनके खनन के लिए मिले लाइसेंस के आड़ में अवैध रूप से निकला जा रहा है और उन्ही  दुर्लभ-मृदा-तत्वों के नाम पर देश से निकाल बाहर भी ले जाया जा रहा है। 
 
2. उसी तरह दुसरे पैराग्राफ का एक अंश है:
 
"“Of these, monazite is defined as a ‘prescribed substance’ under the Atomic Energy Act, 1962 (AE Act) as amended in 2006 (Notified in the Gazette of India (57), dated January 20, 2006)”                    
 
DAE यहाँ ये छुपाने की कोशिश करता नज़र आता है की जिस संशोधन का जिक्र वो यहाँ कर रहा है,पुरे थोरियम लूट के मामले में यही संशोधन सबसे ज्यादा सवालों के दायरे में है (ज्यादा जानने के लिए पिछले लेख पढ़े)। DAE को यहाँ ये बताना चाहिए की अपने 40 सालों  के इतिहास में पहली बार भारतीय आणविक अधिनियम,1962 के "अधिसूचित-तत्वों" की सूचि में ये बदलाव किन कारणों और प्रयोजन से किये गए। थोरियम हमारे यहाँ तटवर्ती-रेत में  बहुलता से प्राप्य है . हमारी त्रि-स्तरीय आणविक योजना में थोरियम की महत्ता का बोध होते ही थोरियम-निर्यात पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया था। लेकिन थोरियम के हमारे विशाल तटवर्ती क्षेत्र-जो पूर्वी तटों से लेकर केरल के पश्चिमी तटों तक फैले हैं; के रेत में प्रचुर बहुलता और नैसर्गिक उपलब्धता को देखते हुए ये संभावना बनी हुई थी की थोरियम का रेत के आड़ में दोहन और निर्यात हो। इसी संभावना को देखते हुए तत्कालीन प्रधानमन्त्री और हमारे परमाणु कार्यक्रमों के जनक एवं रचियता डॉ भाभा ने पुरे तटवर्ती-रेत (beach-sand) को ही अधिसूचित-सूचि (prescribed substance list) में डालने का निश्चय किया था।इसलिए DAE को यह स्पष्ट करना चाहिए की अब परिस्थितियों में वें कौन से परिवर्तन आ गएँ हैं जिन्होंने … को ये सोचने को बाध्य किया की ऐसी संभावना (रेत के नाम पर थोरियम का दोहन) अब समाप्त हो गयी है और इस तरह उसने ऐसे संसोधन को मान्यता दे दी जिसमे तटवर्ती-रेत को इस सूचि से बाहर कर दिया गया !!!
 
3. उसी तरह पैराग्राफ 3 और 4 कहते हैं –
 
 ““DAE has not issued any licence to any private entity either for production of monazite, or for its downstream processing for extracting thorium, or the export of either monazite or thorium. Export of the beach sand minerals (not monazite), falls under Open General Licence and does not require any authorisation from DAE.
 
Since the other beach sand minerals and monazite (which contains thorium) occur together, companies   handling beach sand minerals have to get a licence under the Atomic Energy (Radiation Protection) Rules 2004 from the Atomic Energy Regulatory Board (AERB). As per the licensing conditions, the licencee, after separating the beach sand minerals has to dispose of the tailings, which contain monazite, within its company premises or as backfill, depending on the monazite content. These
 
institutions are under strict regulatory control. They send quarterly reports to AERB stating the amount of tailings disposed of safely either in the premises or as backfill. Inspectors from AERB survey these areas to ensure that the licensing conditions are met. Export of monazite without a licence from AERB is a violation of the Atomic Energy (Radiation Protection) Rules 2004.”
 
ये बेहद अफसोसजनक है की DAE के इन दावों के बावजूद की जनरल लाइसेंस धारक कंपनियों द्वारा निष्कर्षित सारा थोरियम IREL को वापस जमा कराया गया है, जमीनी हकीकत इस दावे की ताकीद नहीं करती है। कई IREL अधिकारियों का ने ये स्वीकारा है की इन कंपनियों के विशाल लाइसेंस क्षेत्र और अत्यधिक खनन ने थोरियम निष्कर्षण के निगरानी को इतना दुसाध्य कर दिया है की व्यावहारिकता में उन्हें पूरी तरह इन कंपनियों द्वारा उपलब्ध करवायी गयी जानकारी पर ही निर्भर रहना पड़ता है।
 
आगे कहा जाये तो इन कंपनियों ने अब तक दसियों लाखो टन रेत के निर्यात के आकडे आधिकारिक रूप से जारी किये है। इसलिए 9-10 % की थोरियम उपलब्धता के आधार पर कम से कम 1,90,000 टन के थोरियम उपरोक्त दावे के अनुसार IREL के पास जमा किये गए होंगे। क्या DAE राष्ट्र को आश्वस्त कर सकता है की IREL में इतना थोरियम पिछले सालों में इन कंपनियों से लेकर  IREL के पास वापस जमा करवाए गए ????
 
4. उसी तरह अंतिम पैराग्राफ कहता है :
 
“The information available in IAEA documents, about the national nuclear programmes of different countries, does not give any indication that any country, other than India, is planning significant use of thorium either in the reactors currently under operation or in those being considered for deployment in the near future. Hence, it is unlikely that there is a demand overseas for large amounts of thorium.”
 
ऐसा प्रतीत होता है की या तो DAE के सुचना के स्रोत अधूरे हैं या अयोग्य। पिछले सालों में थोरियम को लेकर अंतर-राष्ट्रिय परिदृश्य में बेहद गतिशीलता दर्ज की गयी है। इस सम्बन्ध में एक गूगल सर्च भी आँखें खोलने वाला सिद्ध हो सकता हैं। सुविधा के लिए कुछ लिंक निचे भी दिए गए हैं-
 
 
 
 
 
इन्टरनेट तक पर आसानी से दिखने वाली इन गतिविधियों के आलोक में, DAE क्या अज्ञानता और असजगता के इस अवस्था से बाहर आएगा और उपयुक्त और सक्षम अधिकरण के सम्मक्ष इन चिंताओं को रखने का साहस और कष्ट रख पायेगा?? साथ ही क्या DAE विश्व-परिदृश्य पर चल रही इन सारी संदिग्ध गतिविधियों के संभावित "भारतीय- सम्बन्ध" को समग्र और समुचित रूप से जांच को भी सुनिश्चित करेगा??
 
उपरलिखित  बिन्दुओं पर DAE की तरफ से जल्द ही जवाब आने के आशाओं के साथ
 
आपका विश्वासी
 
अभिनव शंकर

जारी…. 

 
अन्‍य भागों को पढ़ने के लिए पर क्लिक करें –  48 लाख करोड़ का थोरियम घोटाला (भाग तीन)
 
लेखक अभिनव शंकर प्रोद्योगिकी में स्नातक हैं और फिलहाल एक स्विस बहु-राष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत हैं.
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