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आवाजाही, कानाफूसी...

भड़ास4मीडिया को अब आप लोग चलाइए, मैं चला चुका

भड़ास4मीडिया के लिए अब तक दो बार आर्थिक मदद की अपील कर चुका हूं. दोनों पुरानी अपीलों को इन शीर्षकों पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं- (1) एचटी से मुकदमा लड़ने में आपका साथ चाहिए (2) विकीलिक्स और विकीपीडिया का मॉडल बनाम भड़ास4मीडिया की चिंता. इन दोनों अपीलों पर बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन इतने पैसे आ गए थे कि तात्कालिक संकटों से हम लोग उबर गए थे.

भड़ास4मीडिया के लिए अब तक दो बार आर्थिक मदद की अपील कर चुका हूं. दोनों पुरानी अपीलों को इन शीर्षकों पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं- (1) एचटी से मुकदमा लड़ने में आपका साथ चाहिए (2) विकीलिक्स और विकीपीडिया का मॉडल बनाम भड़ास4मीडिया की चिंता. इन दोनों अपीलों पर बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन इतने पैसे आ गए थे कि तात्कालिक संकटों से हम लोग उबर गए थे.

और, हमारे संकट कितने भारी होते हैं इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि पचास साठ हजार रुपये मिल जाने पर संकट खत्म हो जाते हैं. मतलब, अपन लोग की जरूरतें बहुत सीमित हैं. इन अपीलों के बाद जो कुछ मदद आई थी, उनमें से कुछ एक के बारे में भड़ास4मीडिया पर प्रकाशित भी किया गया था, जैसे, इन शीर्षकों को क्लिक कर पढ़ें- (1) आपके संघर्ष में हमारी भी 'एक बंद मुट्ठी'! (2) आनंद की तरफ से भड़ास4मीडिया को 11111/- (3) शिबली व विजय की तरफ से हजार-हजार रुपये (4) भड़ास को दो हजार रुपये की भेंट.

इस बार फिर से भड़ास4मीडिया को मदद चाहिए. वजह ये है कि कुछ मीडिया हाउसों ने अपनी तरफ से आर्थिक योगदान देना बंद कर दिया है, इस कारण क्योंकि उनके खिलाफ कुछ खबरें भड़ास पर छप गईं. और, कुछ मीडिया हाउसों ने भड़ास4मीडिया के साथ हुए सालाना समझौते की मियाद पूरी होने के बाद कांट्रैक्ट बढ़ाने में कोई रुचि नहीं दिखाई. इस कारण जो महीने के डेढ़-दो लाख रुपये के खर्च हैं, वो पूरे नहीं हो पा रहे हैं. कुछ समय पहले एक सज्जन ने इस अनुरोध के साथ कि उनका नाम किसी भी रूप में कहीं भी कभी भी न आए, डेढ़ लाख रुपये का डोनेशन भड़ास4मीडिया को दिया था, जिससे फिलहाल इस महीने की गाड़ी चल रही है. असल संकट जनवरी महीने से शुरू होने वाला है.

भड़ास पर हफ्ते भर के लिए लगने वाले वैकेंसी संबंधी विज्ञापनों के एवज में दस से पंद्रह हजार रुपये लिए जाते हैं. इतने पैसे से काम चलने वाला नहीं. पुराने मीडिया हाउसों से कभी विज्ञापन के लिए कभी बात नहीं की गई, बल्कि कुछ जगहों से प्रस्ताव आए भी तो इसलिए इनकार करना पड़ा क्योंकि उसमें संस्थान के खिलाफ न प्रकाशित करने की शर्त निहित थी. नए मीडिया हाउसों में ज्यादातर चोर व चिटफंडिये, ब्लैकमार्केटियर हैं, ब्लैकमनी वाले हैं जिनसे विज्ञापन लेने का मतलब होने लगा है उनकी चोरी संबंधी खबरों को न प्रकाशित करना. तीसरे, अब यह समझ में आ गया है कि अगर आप निष्पक्ष ढंग से किसी पोर्टल, अखबार, मैग्जीन, चैनल का संचालन करते हैं और किसी को ओबलाइज नहीं करते, किसी की खबर नहीं रोकते तो आपको विज्ञापन मिलना मुश्किल है.

ऐसे में एक बड़ा सवाल मेरे सामने भी है कि लगातार आर्थिक संकट में इस भड़ास का संचालन कब तक किया जा सकता है. अभी तक इसलिए कर पाया क्योंकि इसे चलाने को लेकर मेरे अंदर जिद और जुनून था, भागदौड़ करने की उर्जा थी, पर यह सब कुछ कम से कम भड़ास को लेकर तो अब मेरे अंदर नहीं है. एक आदमी कब तक चढ़ जा बेटा शूली पर के अंदाज में शूली पर टंगा रहेगा. अब तक जो किया अपन के मन का पैशन था, घोषित विद्रोह था. पर करते झेलते इससे उब होने लगी है. किसी ने गोली भी नहीं मारी कि निपट जाता. किसी ने जेल भी नहीं भिजवाया कि उसी बहाने से इसे बंद कर पाता. और, लोग दे भी नहीं रहे कि इसे चलाते हुए खुश रह पाता. 


—भड़ास4मीडिया का एकाउंट डिटेल—

(कृपया जो भी करें, उसकी सूचना [email protected] पर जरूर दें)

Bhadas4Media

Current A/c No. 31790200000050

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Bank of Baroda

Branch : Vasundhara Enclave

Delhi-96

Online Money Transfer Code : barb0vasund


हिंदी पट्टी के लोग देने के मामले में हमेशा ही कृपण रहे हैं. यह सिर्फ मानसिकता की वजह से है. सांस्कृतिक व चेतनागत पिछड़ेपन की वजह से है. इनकम टैक्स के छापे के बाद चालीस पचास करोड़ रुपये सरेंडर कर देंगे लेकिन उस पैसे का उसके पहले किसी नेक काम में इस्तेमाल नहीं करेंगे, एक चवन्नी तक नहीं देंगे, भले ही रखे रखे नोट को चूहे खा जाएं. ये चोर मानसिकता है. चोर मानसिकता के लोग सिर्फ चोरी करने के जुगाड़ में रहते हैं, किसी दूसरे पर एक दमड़ी खर्च करने की भूल कभी नहीं करते.

इधर, अपन लोग हैं कि लाख सवा लाख रुपये हाथ में आ गए और अगर कोई पीड़ित परेशान पत्रकार मांगने के लिए आ गया तो बिना यह सोचे कि बंदा वापस करेगा या नहीं, उसे देने में कभी संकोच नहीं किया. इसी कारण अब भी भड़ास4मीडिया के कुल मिलाकर करीब लाख, दो लाख रुपये विभिन्न परेशानहाल पत्रकारों के पास पड़े होंगे. वे लोग जब अपनी बेरोजगारी या आर्थिक दिक्कत से मुक्त होंगे तो स्वयंमेव दे देंगे, ऐसा मानकर मैं चलता हूं और अतीत में लोगों ने ऐसा किया भी है, इसलिए मैं किसी पर शक नहीं करता. और, अगर कोई लौटाता भी नहीं है तो मैं यही सोच लेता हूं कि चलो, इतनी रकम न देने का निर्णय करके उस बंदे ने अपने लिए कुछ भी कभी भी मांगने का मेरा दरवाजा बंद कर लिया है.

बात को ज्यादा लंबा न करके, मूल मुद्दे पर वापस आता हूं. वर्ष 2012 के मार्च आखिर तक की डेडलाइन मैंने तय की है. जनवरी फरवरी और मार्च. इन तीन महीनों में भड़ास का संचालन सिर्फ और सिर्फ पाठकों के पैसे से करने का तय किया है. छोटी, बड़ी सभी तरह की रकम, गुप्त दान, डोनेशन, चंदा, भीख… सब कुछ आमंत्रित हैं. मार्च आखिर में तय करूंगा कि भड़ास4मीडिया का संचालन आगे जारी रखना है या फिर इसे बंद कर पैसे पैदा करने वाला कोई काम करना है, जैसे छोटा-मोटा बिल्डर, प्रापर्टी डीलर बन जाऊं, या गांव पर जाकर आर्गेनिक फार्मिंग में लगूं, या दिली इच्छा के अनुरूप संन्यास लेकर सूफी भड़ासी बैंड का गठन कर गांव गांव घुमूं गाउं मांगूं. बहुत सारे विकल्प हैं. और हर विकल्प में करने के लिए बहुत कुछ है.

रही भड़ास4मीडिया की तो सच कहूं, मीडिया में चोरकटई चिरकुटई की खबर छापते छापते मन भर गया है. जब तक देश की पालिटिक्स पवित्र नहीं होती, मीडिया ऐसे ही गंधाता रहेगा. टीस तब ज्यादा होती है जब लगता है कि उन लोगों के लिए यह सब कुछ कर रहा हूं जिन्हें बदले में कुछ देना कहना नहीं आता. तो ऐसे थैंकलेस लोगों के लिए कब तक लड़ा जा सकता है. अगर यही हाल रहा तो यह सोचकर कि मैंने अपना फर्ज निभा लिया, अपने हिस्से का संघर्ष कर लिया, अब दूसरे लोग आएं गाएं और भड़ास टाइप की कोई चीज बनाकर जंग जारी रखें, मेरी जगह लें, अपनी जगह बनाएं, मैं यहां से निकल लूंगा. यह सब लिखने कहने का आशय यह नहीं कि मैं आपको इमोशनली ब्लैकमेल कर रहा हूं. दरअसल, बहुत दिनों से मैं कुछ कहना चाह रहा था आप लोगों से, मैं बात करना चाहता था आप लोगों से, सीधे और दो टूक. लेकिन वक्त नहीं मिल रहा था. मैं भी इसे टाल रहा था, यह मानकर कि संभव है, जो कुछ मन में चल रहा है वह प्री-मेच्योर इमोशन्स हों. लेकिन अब मैं कह देना चाहता हूं और सच कहूं तो यही चाहता हूं कि कोई मदद न करे ताकि मार्च के बाद नया कुछ करने की मेरी तमन्ना पूरी हो सके.

वैसे भी मैं किसी चीज से साल दो चार साल में बोर होने लगता हूं. भड़ास4मीडिया से भी बोर होने लगा हूं क्योंकि यहां सिर्फ लड़ते रहना है और हवा पानी पीकर जीते रहना है क्योंकि अगर आपने कुछ ठोस आहार खा लिया तो लोग चले आते हैं बताने कि अरे, आपने तो ठोस आहार खा लिया, कहां से लाए हैं पैसे? पिछले दिनों कुछ एक साथियों ने मुझे चोर, पेड न्यूज वाला, जाने क्या क्या कहा लिखा. उसे भी उतने ही प्यार से छापा जितने प्यार से बाकी सब छापता हूं. मुझे बुरा नहीं लगा, क्योंकि भड़ास उसे निकालने का हक ही नहीं है कि जो खुद अपने खिलाफ आने वाली भड़ास को सेंसर कर दे. तब मैंने कहा था कि उन पर मैं सफाई दूंगा, लिखूंगा, लेकिन अब लगता है कि छोड़ो यार. बुद्धि कम, पूर्वाग्रह ज्यादा वालों की संख्या काफी ज्यादा है और कितनों को कितने तरीके से मैं समझाता रहूंगा कि ये गलत बात है और वो सही बात है.

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अगर वे आज तक मुझे और भड़ास को नहीं समझ सके तो आगे भी नहीं समझ पाएंगे और चाहूंगा कि वे ना ही समझें तो बेहतर. अगर उन्हें लगता है कि मैं चोर हूं तो मैं भी कह रहा हूं कि चोर हूं. उन्हें लगता है कि मैं पेड न्यूज करता हूं तो मैं भी कह रहा हूं कि पेड न्यूज करता हूं. मुझे किसी को सफाई नहीं देनी क्योंकि मैंने कभी कोई काम 'लोगों' की परवाह करके नहीं की और न ही 'लोगों' की अनुमति लेकर की, और 'लोगों' का काम होता है कहना. 'लोग' अगर इतने सयाने होते तो दुनिया में समस्याएं नहीं होतीं. चूंकि 'लोग' 'माकानाका साकानाका' टाइप के लोग हैं इसलिए अंधेरगर्दी कायम है हरओर. जिस दिन 'लोग' चेतना के स्तर पर ज्यादा लाजिकल, डेमोक्रेटिक, सेंसेटिव, साहसी और उदात्त हो जाएंगे, उस दिन यकीन मानिए, सब कुछ पटरी पर आने लगेगा. चोर इसलिए हैं क्योंकि इमानदार डरपोक हैं. लुटेरे इसलिए हैं क्योंकि साधु आंख मूंदे हैं.

क्या कह रहा था, क्या कहने लगा. जी, बात आर्थिक संकट की है. मुझे तत्काल डेढ़ लाख रुपयों की जरूरत है. फिलहाल ये पैसे मैंने एक मित्र से उधार ले लिए हैं. जिन दिनों भड़ास शुरू किया था, उन दिनों कार की किश्त के रूप में यहां वहां से जुटाए गए उधार मांगे गए पैसे को मैंने अपने घर चलाने के लिए लगा दिया क्योंकि भड़ास से करीब छह दस महीने तक कुछ नहीं मिला, सिर्फ लगता रहा. और, किसी से यह कहकर तो पैसे नहीं मांग सकता था कि घर में खाने को नहीं है, पैसे दीजिए. अब मांग सकता हूं यह कहकर लेकिन तब इतनी मजबूत मनःस्थिति नहीं थी. तब बहाना बनाता था कि कार की किश्त जमा करनी है, फिलहाल संकट में हूं, बाद में दे दूंगा. दोस्त लोग इस उस शहर के दे देते थे पांच दस बीस हजार. तो वो कार की किश्त करीब डेढ़ लाख बकाया है. फाइनल सेटलमेंट के लिए मैंने मन बना लिया है.

जाहिर है, ये खर्च मेरा निजी नहीं है. और, जो भड़ास का विशाल पाठकवर्ग है वह अगर यह जिम्मेदारी नहीं महसूस करता कि उसका भी योगदान इस पोर्टल के संचालन में होना चाहिए तो फिर मुझे कैसे आप पतित होने से रोक सकते हैं. मैं पतित हो सकता हूं. दलाल बन सकता हूं. लेकिन इस काम के लिए नहीं बनूंगा. अगर बनना होता तो बड़े बड़े अखबारों में ही दलाल के रूप में काम नहीं करता रहता. हां, जब बनना होगा तो मैं पेशा बदलूंगा. मैं दलाली को प्रोफेशन बना लूंगा. राडिया का काम बुरा नहीं था, राडिया ने गलत किया भी नहीं. गलती की बरखा दत्तों ने, गलती की वीर सांघवियों ने. दुर्भाग्य देखिए कि नीरा राडिया ने अपनी कंपनी बंद कर ली और बरखा दत्त को प्रमोशन मिल गया. गजब की उलटबांसी का दौर है. इस उलटबांसी में मुझे नहीं बनना. अगर बरखा दत्त अपना काम ठीक नहीं कर पा रहीं तो उन्हें नीरा राडिया वाले पेशे को अपना लेना चाहिए. अगर मैं अपना काम इमानदारी से नहीं कर रहा तो मैं बिल्डर या लाइजनर या पीआर वाला काम शुरू कर दूंगा और उसे प्रोफेशनली करूंगा.

भड़ास4मीडिया पर आज ही एक कविता प्रकाशित हुई है, नारायण बारेठ की कविता : ''क्या फरक पड़ता है, पेशा कैसा भी हो!''. पढ़िएगा जरूर. हर धंधे की अपनी नैतिकता होती है. एक जल्लाद की अपनी नैतिकता है. टाइम से आदमी को फांसी पर लटका देने की. एक रंडी की अपनी नैतिकता है. एक पत्रकार की अपनी नैतिकता है. लेकिन अगर पत्रकार रहते हुए कोई रंडीपना या जल्लादबाजी दिखाए तो उसे हर हाल में गलत कहा जाना चाहिए.

आखिर में… भड़ास4मीडिया चलाते चलाते मैं अंदर से बहुत बदल गया हूं. हर चीज के प्रति जो उत्सुकता उत्तेजना हुआ करती थी, गहरा अनुराग या प्रचंड घृणा हुआ करती थी, वो सब काफी कुछ खत्म हो गया है. किसी से कभी डरा नहीं और आज भी डरता नहीं, किसी के पास कुछ मांगने जाना नहीं है, किसी का मैं नौकर हूं नहीं, इसलिए मैं कोई बात छुपाता नहीं क्योंकि छुपाते हम तब हैं जब किसी भी प्रकार का किसी से कोई भय आशंका डर हो. मन में जो बुरे या अच्छे भाव हैं, सबको बक देना अपना शगल है. इसलिए अंदर सिवाय पवित्रता के कुछ नहीं है. ऐसे मनोभाव में मेरे लिए कोई भी निर्णय ले लेना बहुत आसान है क्योंकि भड़ास चलाते चलाते बहुत कुछ चलाना जान गया हूं. संतई, व्यापार, संगीत, पर्यटन…. का पूरा आनंद इस भड़ास4मीडिया के माध्यम से उठाया.

मुझे लगने लगा है कि इक्कीसवीं सदी में लोगों को चालीस वर्ष की उम्र में संन्यास शुरू मान लेना चाहिए. नहीं करोगे तो कैंसर या अस्थमा या ब्रेन हैमरेज या हार्ट अटैक से मारे जाओगे. मैं उनके लिए खासतौर पर कह रहा हूं कि जो इमोशनली, इंटेलीजेंटली थोड़े 'सुपरमैन' किस्म के लोग हैं. और ये संन्यास, उस ट्रेडीशनल संन्यास से अलग होना चाहिए जिसमें लोग जंगल वन में जाकर एकांत की धूनी रमाते हैं. यह संन्यास जड़ों की ओर लौटने वाला होना चाहिए. अपने गांवों में जाओ और उसे सजाओ संवारों. दूसरों ते गांवों में जाओ और वहीं खाओ काम करो पेड़ के नीचे सोओ गाओ मछली मारो धान रोपो नदी नहाओ….  भारत भ्रमण करो और खूब समझो, लोगों से खूब इंटरेक्ट करो.

मेरे मन में अब संन्यास फूट रहा है. मुझे यह महसूस हो रहा है. यह इसलिए भी हो रहा है, ऐसा मुझे लगता है कि कहीं कोई कुंठा नहीं है बाहर भीतर. कहीं कोई लालसा या घृणा नहीं है. प्यार करो तो ठीक, न करो तो ठीक. घृणा करो तो ठीक, न करो तो ठीक. सपोर्ट करो तो ठीक, न करो तो ठीक. ऐसी अवस्था डिप्रेसन के चलते भी आती है. और, ऐसी अवस्था मुक्ति के दौरान भी आती है. पर कुछ पेंच हैं जो कायम हैं. और, इसे मैंने खुद कायम कर रखा है. जैसे, कभी मन करता है कि अब मुंबई शिफ्ट हो जाऊं क्योंकि दिल्ली हिप्पोक्रेटों की नगरी है, झूठ ज्यादा बोलते हैं साले यहां, असल बात छिपाए रहते हैं मन में, और मुंबई प्रोफेशनल्स की, बुरी से बुरी बात हो तो भी सीधे सीधे वही बोलेंगे, कोई दुराव छिपाव लाग लपेट नहीं.

कभी लगता है कि छोड़ो भड़ास का मोह और इसे चलाने के लिए धन संचय का काम, निकलो अपनी नगरी, गांव गांव पहाड़ पहाड़ प्रांत प्रांत… और सुनो प्रकृति का संगीत.. देखो असीम आसमान बेहिसाब धरती अनंत जल-जंगल. इस दुविधा से मार्च महीने में उबरूंगा. भड़ास के लिए फिलहाल तीन महीने का एक्सटेंशन दिया है खुद को. और हां, अगर कोई मेरी तरह सोचता है, अगर उसे भी 'निर्वाण' की प्राप्ति होने लगी हो तो बताए, साथ साथ चलेंगे. मुझे गुरु और शिष्य, दोनों की तलाश है.  

तीन महीने में मेरी इच्छा है कि भड़ास4मीडिया को आप लोग खुद चलाने लगें. तो आर्थिक जरूरतों के लिए भटकने के काम से मैं मुक्त हो जाऊंगा. भड़ास4मीडिया को चलाने का टेंशन कोई एक आदमी क्यों ले, जबकि यह पोर्टल सिर्फ और सिर्फ पब्लिक काज के लिए संचालित हो रहा है. इस पोर्टल के स्वभाव में पीआरगिरी आ ही नहीं सकता क्योंकि अब यह नेट यूजर हिंदी समाज के लिए जुनून, नशा, आदत, पैशन बन चुका है. ऐसा नशा जो किसी अन्य मीडिया में या किसी अन्य संस्थान या ब्रांड के लिए नहीं दिखता, बिलकुल अलग, अलहदा और जुदा सा जुनून है भड़ास के प्रति लोगों में.

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आप सबसे अपील है, सोचें और सामने आएं. मैं इस पोर्टल के मालिकाना हक को भी छोड़ने को तैयार हूं, अगर कोई निवेश करना चाहे तो स्वागत है, कोई इस शर्त पर खरीदना चाहे कि इसके मूल स्वभाव और तेवर से छेड़छाड़ नहीं की जाएगी तो बेचने के लिए तैयार हूं. सारे विकल्प खुले हैं. अगर सौ दो सौ लोग मिलकर कोआपरेटिव या ट्रस्ट बनाकर चलाना चाहें तो उनका भी स्वागत है.

मतलब, नए प्रयोगों के लिए तैयार हूं और उसकी शुरुआत यह सब लिखकर कर रहा हूं. आपके सुझावों का इंतजार रहेगा. पूरे तीन महीने का वक्त है, कोई भी निर्णय करने के लिए. मैं कोई भी फाइनल फैसला लूंगा तो पहले आपको सूचित कर आपसे राय मशवरा करूंगा फिर उस पर अमल करूंगा, यह मेरा वादा है. हां, लेकिन यह सच है कि भड़ास को आर्थिक मदद देने संबंधी यह मेरी तीसरी और आखिरी अपील है. तीन टिकट, महाविकट. तीन बार समझाना कहना काफी होता है. इसलिए आगे से नहीं.

मेरे इस लिखे से लोगों को दो तीन चीजें क्लीयर हो जानी चाहिए, नंबर एक- भड़ास प्राफिट में या मजे में नहीं है, जैसा कि लोग मानते हैं. इसे नो प्राफिट नो लॉस में बनाए रखा और जो कुछ हम लोग कर खा जी पा रहे हैं, वह भड़ास की वजह से है. नंबर दो, मीडियाकर्मियों के पक्षधर मीडिया पोर्टल्स का संचालन आर्थिक रूप से मुश्किल है, पीआर वाले पोर्टल्स चलते रहेंगे क्योंकि मालिकों की तरफ से उन्हें समय समय पर टुकड़े फेंक दिए जाते हैं (अनुराग बत्रा जिंदाबाद).

नंबर तीन- मार्केट इकोनामी ने पढ़े लिखे वर्ग को भयंकर कनिंग बना दिया है, खासकर हिंदी पट्टी के लोगों को, जो किसी से भी काम निकालने के लिए तत्पर रहते हैं और काम हो जाने के बाद पलटकर भूल से पूछने भी नहीं आते. और, ज्यादातर लोग खुद पीड़ित, याचक, भिखमंगा की मुद्रा बनाए रहते हैं इसलिए वे कभी सोच ही नहीं सकते कि उन्हें भी देने का संस्कार डेवलप करना चाहिए. ऐसे भिखमंगे समाज, संवेदनहीन समाज, थैंकलेस समाज से क्या उम्मीद करना और इनके लिए क्योंकर कुछ करना. इनकी नियति है मरना और कई बार मरने के बाद ही मुक्ति मिलती है, नया कुछ पैदा होता है. बाजार ने अवसरवाद को नैतिक मूल्य बना दिया है. मुश्किल, दुख, ब्रांडिंग में यशवंत और भड़ास याद आए. जहां सुख में आए नहीं कि भड़ास और यशवंत गए भांड़ में. उलटे कुछ लोग प्रवचन देने लगते हैं कि आपको ये करना चाहिए ये नहीं करना चाहिए.

लग सकता है लोगों को ये सब गुस्से में लिखी गई बातें हैं लेकिन जो मैं महसूस कर रहा हूं उसे लिख रहा हूं, भड़ास ही तो है, मानते हुए पढ़कर चल दीजिएगा. भाई दयानंद पांडेय ने भी कल लिखा, अदम गोंडवी के बहाने. इसको पढ़िए- बीमार अदम गोंडवी और फासिस्ट हिंदी लेखक : एक ट्रेजडी कथा. आपको सच में समझ में आ जाएगा कि इस हिंदी पट्टी की दुविधा और पाखंड का सच क्या है. लोग लेने के लिए पागल हैं, पाने के लिए नाक रगड़ रहे हैं, लेकिन कोई देने की बात नहीं कह रहा. भड़ास4मीडिया ने सैकड़ों क्या कई हजार लोगों का किसी न किसी रूप में भला किया होगा लेकिन एकाध को छोड़ दें तो किसी ने पलटकर नहीं पूछा होगा कि बॉस, भड़ास4मीडिया का खर्च चलता कैसे है.

हर बेरोजगार उम्मीद लगाए बैठा है यशवंतजी उसे नौकरी दिला देंगे. जिनकी नौकरी यशवंत जी ने लगवा दी, वे नौकरी मिलने पर भी भूले रहे कि यशवंतजी के संकट क्या हो सकते हैं. उनकी नजर में या तो मैं भगवान समान हूं जिसकी कोई जरूरत नहीं, हवा को शरीर में लेकर फूड में कनवर्ट कर देता हूं और आसमान में गदा उठाए उड़ता रहता हूं या फिर बहुत बड़े दलाल के रूप में हूं जो करोड़ों रुपये बनाए बैठा है और दिखा खुद को ऐसा रहा है कि बड़ा संकट है.

हां, कई बार यह जरूर हुआ है कि अगर किसी को किसी वजह से गरिया दिया तो उसने कलम उठाया और लिखने लगा मेरे खिलाफ. मैंने किसी को फेसबुक पर अपने वाल पर पीआरगिरी लगातार करने के कारण अपने फ्रेंडलिस्ट से आउट कर दिया, ब्लाक कर दिया तो वह खुन्नस में लिखने लगा कि यशवंत पेड न्यूज करता है. बेटा, तुम्हें यशवंत का अंदाजा ही नहीं है कि क्या चीज है. लाखों रुपये ठुकराता रहा हूं और आज भी ठुकराता हूं क्योंकि ये रुपये खरीदने और नीच दिखाने के लिए आफर किए जाते हैं. और, पांच हजार रुपये मुंह खोलकर मांगता हूं क्योंकि वो इमानदारी से मांगता हूं और वाजिब कारणों से मांगता हूं.  इस महीन फर्क को तुम नहीं समझ पाओगे तो तुम कभी एक ईमानदार पत्रकार या ईमानदार एंटरप्रिन्योर नहीं बन सकोगे. खैर, हर व्यक्ति की अपनी सीमा होती है, करने और सोचने की. इसे मैं जानता महसूस करता हूं, इसलिए ऐ खुदा, उन्हें माफ कर, वे नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं. यह बहस बातचीत जारी रहेगी. आपके फीडबैक का इंतजार रहेगा.

जय हो

यशवंत

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