बुंदेली भाषा अति प्राचीन है लेकिन उसे हिंदी साहित्य के इतिहास में वह मुकाम नहीं मिल पाया जिसकी वह हकदार है। अब उसे वाजिब स्थान दिलाने की पुरजोर कोशिश शुरू हो गई है। हिंदी के चिंतकों न बुंदेली की गहरी जड़ें खोजने की दिशा में कदम बढ़ा दिया है। इसी माह तीन और चार दिसंबर को बुंदेलखंड विश्वविद्यालय में देश के हिंदी चिंतकों और दिशा निर्धारकों का संगम हुआ। तवारीख के लिहाज से यह अद्वितीय मौका था।
पहली बार देश के विचारकों ने बुंदेली लोक साहित्य और संस्कृति के रचनासेवियों और उनके बहुमूल्य कार्यों को हिंदी साहित्य के इतिहास में उचित स्थान दिलाने की कोशिश समग्रता से की है। यह सब संभव हो पाया है विज्ञान के उच्चकोटि के विद्वान और हाइटेक अध्येता तथा हिंदी के हितचिंतक बुदेलखंड विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. अविनाशचंद्र पाण्डेय के भागीरथ प्रयासों के चलते।
इसकी अनुगूंज भारतीय हिंदी परिषद के 41वें अधिवेशन में पास एक विशेष प्रस्ताव में भी सुनाई पड़ी। इस प्रस्ताव में हिंदी परिषद के कर्ताधर्ताओं न खुले मन से यह बात स्वीकार की कि हालांकि प्रो. पाण्डेय विज्ञान के विशेषज्ञ हैं लेकिन भारतीय भाषाओं और संस्कृति से उनका गहरा लगाव है। उनके विशेष प्रयासों और आग्रह के कारण ही भारतीय हिंदी परिषद का 41वां अधिवेशन बुंदेलखंड की हृदयस्थली झांसी में आयोजित किया गया।
गौरतलब है कि भारतीय हिंदी परिषद की स्थापना सन 1942 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन हिंदी विभागाध्यक्ष डा. धीरेंद्र
वर्मा और तत्कालीन कुलपति सर अमरनाथ झा के प्रयासों से हुई। सन 1942 के राष्ट्रीय आंदोलन की व्यापकता विस्तार तथा गहनता अन तीनों तथ्यों से यह तय हो चुका था कि देश निश्चित रूप से शीघ्र ही स्वतंत्र होगा। इस अवधारणा को केंद्र में रखते हुए भारतीय मनीषियों ने स्वतंत्र देश के विविध सामाजिक संदर्भों से जुड़े भावी भारत के विकास के लिए योजनाएं निर्मित करने का संकल्प शुरू कर दिया था। यह संदर्भ राष्ट्रभाषा हिंदी के उन्नयन तथा उच्च शिक्षा के संकल्पों से भी जुड़ा। इस संस्था का संबंध उच्च शिक्षा
संबंधी हिंदी की समस्याओं से रहा है। यह बराबर इसके लिए संघर्ष करती रही है। यह संस्था देश के सभी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्राध्यापकों से जुड़ी हुई है। इसमें सामयिक और स्थायी लगभग दो हजार विद्वान सदस्य हैं।
यह परिषद उच्चस्तरीय अध्यापन की समतुल्यता स्तरीयता तथा राष्ट्रीय हितबद्धता को ध्यान में रखकर काम करती है। इसका दूसरा स्तरीय दायित्व हिंदी शोध कार्य को व्यवस्थित करके उसे उत्कृष्टता प्रदान करना है ताकि हिंदी शोध की दिशा स्खलित न होने पाए। हिंदी परिषद का संकल्प पूरी तरह से इस संदर्भ से जुड़ा है कि भारतीय समाज रचना की व्यवस्था कैसे संतुलित हो जिससे शैक्षिक प्रशासनिक एवं लोक व्यवस्था के स्तर पर हिंदी को अपेक्षित गौरव प्राप्त होता रहे।
भारतीय हिंदी परिषद के 41वें अधिवेशन का मूल संदर्भ इस बार बुंदेलखंडी भाषा तथा साहित्य के सर्वांग मूल्यांकन का रहा। इसे तय करवाने में बुंदेलखंड विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. अविनाशचंद्र पाण्डेय की अहम भूमिका रही। इसकी तस्दीक अधिवेशन के दौरान परिषद के शीर्ष पदाधिकारियों ने अपने संभाषण में की।
यहां आए हिंदी के विद्वानों ने यह तथ्य स्वीकार किया कि भारतीय हिंदी परिषद के 41वें अधिवेशन में उन्होंने बुंदेली भाषा के साहित्यिक विश्लेषण के साथ-साथ ऐतिहासिक एवं सामयिक मान्यताओं से जुड़े तथ्यों का एकत्रीकरण और उस पर मंथन इसलिए कर रहे हैं ताकि हिंदी की राष्ट्रीय पृष्ठभूमि का सही आकलन हो सके। उन्होंने बताया कि संपूर्ण हिंदी साहित्य के आदिकाल से
लेकर आज तक लगभग एक हजार से अधिक बुंदेलखंडी कवि हैं जिनसे जुड़ा इतिहास केवल विवरणात्मक है। जहां तक बात रही बुंदेलखंडी शब्द की तो यह चौदहवीं शती का है। यहां अधिवेशन में आए चिंतकों के मन को यही सवाल मथता रहा कि
ईसा की चौथी शती से स्थापित इस ऋषिभूमि यानी बुंदेलखंड की भाषा को क्या नई भाषा कह सकते हैं। कारण यह कि इस भाषा के प्रारंभ का कोई साक्ष्य नहीं जिसके आधार पर वे यह कह सकें कि यह प्राचीन भाषा है।
भारतीय हिंदी परिषद के अध्यक्ष प्रो. योगेंद्र प्रताप सिंह का मानना है कि यजुर्वेदकाल में बुंदेलखंड क्षेत्र का नाम यर्जुहोतो था। आगे चलकर इसका नाम युज्रहोता पड़ा। इसका कारण यह था कि यहां ऋषिगण निवास करते थे।
वे निरंतर चिंतन. साधना में लगे रहते थे। आगे के कालखंड में यह क्षेत्र जुझौती कहलाया। इसका विवरण सातवीं सदी के चीनी यात्री युवान चांग ने दियी है। बाद में इसे जुझारखंड तथा और बाद में इस नगरी को विंध्यखंड कहा गया। कालांतर में यही नाम बुंदेलखंड पड़ा। बुंदेलखंड नाम 14वीं सदी में महाराज हेमकरण बुंदेला ने दिया।
हिंदी के विद्वानों का मानना है कि मध्यकालीन भाषा क्षेत्र में हिंदी के तीन रूप रहे। पहला ब्रजभाषा तथा हिंदी पश्चिम भारत दूसरा मध्यदेशीय अवधी तथा हिंदी मध्य का भारत तथा तीसरा भोजपुरी का बिहारी भाषा पूर्व का
भारतीय क्षेत्र। ब्रजभाषा तथा बिहार क्षेत्रों की भाषा का सर्वेक्षण तथा सांस्कृतिक विकास क्रम का सर जार्ज ग्रियर्सन से लेकर सुनीति कुमार चटर्जी तक व्यापक रूप से मूल्यांकन हो चुका है। अवधी भाषा के विकास पर भी यह कार्य डा.बाबूराम सक्सेना कर चुके हैं। हम मध्यप्रदेश को बुंदेली, बघेली, छत्तीसगढ़ी भाषाओं में बांट रहे हैं किंतु इसकी भाषिक रूप रचना एवं साहित्यिक संदर्भों का जब तक सही मूल्यांकन नहीं किया जाता तब तक भाषिक सर्वेक्षण तथा साहित्यिक विश्लेषण का पक्ष अधूरा रहेगा।
विभिन्न पक्षों को ध्यान में रखते हुए यहां बुंदेलखंड विश्वविद्यालय परिसर के विभिन्न सभामारों में दो दिनों तक चल गोष्ठियों में हिंदी
हितचिंतकों ने बुंदेली लोक साहित्य और संस्कृति से जुड़े पक्षों पर विचार मंथन किया। विद्वानों ने शोधपत्र पेश किए। इन्हें अहम दस्तावेज के रूप में सहेजा जाएगा। विश्वविद्यालय ने शोधपत्रों को एक पत्रिका के रूप में सहेजने का निर्णय लिया है। बुविवि के कुलपति ने पत्रिका के प्रकाशन पर आने वाले संपूर्ण खर्च को वहन करने का निर्णय लिया है।
अब हिंदी के विद्वानों में यह उम्मीद जगी है कि बुंदेलखंड के लोक साहित्य और संस्कृति को हिंदी साहित्य के इतिहास में वह वाजिब स्थान मिल सकेगा जिसकी वह हकदार है। उनका मानना है कि हाइटेक भगीरथ के प्रयास रंग
लाएंगे।
उमेश शुक्ल (प्रवक्ता)
जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान
बुंदेलखंड विश्वविद्यालय झांसी
9452959936