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अन्ना को अंग्रेजी नहीं आती…

लोकपाल बिल लोक सभा और राज्य सभा दोनों में पारित हो गया है । रालेगण सिद्धी में अन्ना हजारे इसको पारित करवाने के लिये अनशन पर बैठे थे । बिल पारित होने पर उन्होंने अपना अनशन समाप्त कर दिया । लेकिन बिल पारित होने पर अरविन्द केजरीवाल प्रसन्न नहीं हैं । उनका मानना है कि इस लोकपाल से तो चूहे को भी पकड़ा नहीं जा सकता । दूसरी ओर अन्ना का कहना है कि इससे शेर भी पकड़ा जा सकता है ।
लोकपाल बिल लोक सभा और राज्य सभा दोनों में पारित हो गया है । रालेगण सिद्धी में अन्ना हजारे इसको पारित करवाने के लिये अनशन पर बैठे थे । बिल पारित होने पर उन्होंने अपना अनशन समाप्त कर दिया । लेकिन बिल पारित होने पर अरविन्द केजरीवाल प्रसन्न नहीं हैं । उनका मानना है कि इस लोकपाल से तो चूहे को भी पकड़ा नहीं जा सकता । दूसरी ओर अन्ना का कहना है कि इससे शेर भी पकड़ा जा सकता है ।
वैसे तो केजरीवाल इस अनशन के लिये स्वयं अन्ना के गांव जाना चाहते थे । लेकिन ऐन मौके पर उन्हें बुखार ने पकड़ लिया । वैसे कुछ भीतरी सूत्र यह भी बताते हैं कि अन्ना ने ही उनके रालेगन सिद्धी आने पर एतराज जताया था । इसलिये उन्होंने वहां अपना प्रतिनिधि और आम आदमी पार्टी के बड़े नेता गोपाल राय को भेजा था । इधर दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) का रुतबा बढ़ गया है , इसलिये महाराष्ट्र में अन्ना के गांव जाकर गोपाल राय ने मंच पर ही पूर्व सेनाध्यक्ष को टोकते हुये आन्दोलन का मार्गदर्शन करने का प्रयास किया तो अन्ना ने उसे मंच पर ही झिड़क दिया और गांव छोड़ कर जाने के लिये कहा ।
 
जब दिल्ली में अन्ना हज़ारे ने लोकपाल बिल को लेकर जनान्दोलन शुरु किया था तो अरविन्द केजरीवाल भी उनके समर्थन में खड़े थे । रामलीला मैदान में वही सबसे आगे दिखाई देते थे । धीरे धीरे वे थोड़ा और आगे हो गये । आगे होते होते केजरीवाल को लगा कि दूसरों से लोकपाल की याचना करने की बजाय ख़ुद ही एक राजनैतिक पार्टी बना लेनी चाहिये और फिर स्वयं ही लोकपाल बिल पारित करना चाहिये । लेकिन शायद अन्ना इससे सहमत नहीं थी । उनका कहना था कि हमारी लड़ाई सत्ता प्राप्त करने की लड़ाई नहीं है , बल्कि व्यवस्था को बदलने की लड़ाई है । इसके लिये पूरे देश में इतना सशक्त जनमत बनाया जाये ताकि , सत्ता चाहे किसी भी राजनैतिक दल की हो , लेकिन वह विपरीत जनमत के डर से भ्रष्टाचार में लिप्त न हो सके । इसके कारण देश की राजनैतिक व्यवस्था साफ़ होगी । यदि हम ने भी एक अलग राजनैतिक पार्टी बना ली , तो यह सींग कटा कर भेड़ों के रेवड में शामिल होने के समान हो जायेगा । लेकिन केजरीवाल नहीं माने । उन्होंने अपनी अलग पार्टी बना ली । उनको सत्ता प्राप्त करनी है । उनका मानना है कि उनका उद्देश्य अच्छा है । भ्रष्टाचार को समाप्त करना । अच्छे उद्देश्य के लिये सत्ता की चाह रखना बुरी बात नहीं है । लेकिन फ़िलहाल सत्ता पर सोनिया गान्धी का क़ब्ज़ा है । सोनिया गान्धी की पार्टी ने संसद में वह लोकपाल बिल पास कर दिया है , जिसके लिये कुछ दिन पहले तक अरविन्द केजरीवाल भी रामलीला मैदान में बैठा करते थे । लेकिन अब केजरीवाल के सामने दूसरी दिक्कत है । अब वे सोनिया कांग्रेस का , लोकपाल बिल पास करने के लिये आभार तो नहीं जता सकते । क्योंकि अब सोनिया कांग्रेस आम आदमी पार्टी की प्रतिद्वदी है । यदि आभार जताने के चक्कर में केजरीवाल फंस गये तो फिर चुनाव में उसको चुनौती कैसे दे सकेंगे ? न ही वे लोकपाल बिल पारित करवाने के लिये भारतीय जनता पार्टी का आभार जता सकते हैं । केजरीवाल के सामने वही समस्या भाजपा को लेकर है । अब केजरीवाल देश की राजनैतिक व्यवस्था का एक अंग हैं । अब वे व्यवस्था को बदलने की बात नहीं कर सकते , बल्कि व्यवस्था की भीतरी विसंगतियों का लाभ उठा कर सत्ता की एक और सीढ़ी चढ़ने का प्रयास करेंगे । ऐसा वे कर भी रहे हैं ।
 
लेकिन अन्ना हज़ारे की यह मजबूरी नहीं है । अन्ना को न कोई राजनैतिक दल चलाना है और न ही कहीं सांसद बनना है , न ही सत्ता के गलियारों में धमक देनी है । उनको लगता था लोकपाल बिल पारित हो जाने से व्यवस्था में घुसे भ्रष्टाचार से लडा जा सकता है । इसलिये वे लोकपाल बिल के पारित होने पर सभी का धन्यवाद कर रहे हैं । उनकी लड़ाई मुद्दों की लड़ाई है । उन के किसी मुद्दे पर कोई भी राजनैतिक दल उनके साथ खड़ा हो जाता है , तो वे उसका धन्यवाद करने में संकोच नहीं करते ।
 
अन्ना के आन्दोलन का केजरीवाल राजनैतिक लाभ उठा रहे हैं , यह देर सवेर अन्ना को भी समझ आ गया । थोड़े और सख़्त शब्दों में कहना हो तो केजरीवाल अन्ना के आन्दोलन का राजनैतिक शोषण कर रहे थे । केजरीवाल की एक दूसरी समस्या इन सभी घटनाक्रमों से पैदा हुई है , जिसका समाधान उन के लिये भी मुश्किल है । वे सोनिया कांग्रेस की आलोचना कर सकते हैं । भाजपा की आलोचना भी कर सकते हैं , लेकिन अन्ना हज़ारे की आलोचना करना उनके लिये अभी संभव नहीं है , क्योंकि कुछ दिन पहले तक तो वे अन्ना के मंचों पर ही नाच कूद रहे थे । अन्ना चुप रहते ,तब भी केजरीवाल को कोई समस्या न होती । किसी के भी मौन की पचास व्याख्याएँ की जा सकती हैं । लेकिन अन्ना तो बोल रहे हैं । वे लोकपाल बिल की प्रशंसा कर रहे हैं । केजरीवाल इस का क्या जबाव दें ? दिल्ली में सरकार बनायें या न बनायें , इसको लेकर केजरीवाल इतने संकट में नहीं हैं , जितना अन्ना को क्या जवाब दें ? ऐसा जबाव जिस से सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे । लेकिन लगता है अब उन्होंने इस का समाधान पा लिया है ।
 
केजरीवाल का कहना है कि अन्ना को लोकपाल जैसी गहरी बातों की समझ नहीं है । क्योंकि क़ानून का सारा काम अंग्रेजी में होता है और इसमें अनेक तकनीकी बातें होती हैं । अन्ना इतना कहां समझ पाते हैं । उन्हें अंग्रेजी तो आती नहीं । जब केजरीवाल अन्ना के साथ थे तो वे घंटों अपना मगज खपा कर अन्ना को ये सब गहरी बातें समझा देते थे । लेकिन अब अन्ना को समझाने वाला रालेगन सिद्धी में कोई नहीं बचा , इसलिये वे नासमझी में लोकपाल बिल के पारित होने पर तालियां बजा रहे हैं । यदि मान लिया जाये कि अन्ना इस देश की आम जनता के प्रतीक हैं और देश की आम जनता सरकारी कामकाज अंग्रेजी में होने के कारण उसके भीतर की ख़ामियों को पकड़ नहीं पाती तो इसका इलाज क्या है ? एक इलाज तो यही है कि कोई दलाल या ऐजंट ऐसा हो जो सरकार को जनता की बात और जनता को सरकार की बात बताता रहे । ऐसा पहले भी होता रहा है । इस पद्धति का सबसे बडा नुक़सान यह होता है कि इससे जनता को कोई लाभ नहीं मिल पाता , सरकार या व्यवस्था का भी बाल बाँका नहीं होता , लेकिन ऐजंट या दलाल की पौ बारह हो जाती है ।
उत्पादक और उपभोक्ता के बीच जब सीधा संवाद स्थापित हो जाता है तो सबसे ज़्यादा हल्ला बिचौलियों की ओर से ही होता है । केजरीवाल के ग़ुस्से और हैरानी का एक और कारण भी है । जब से केजरीवाल अन्ना को छोड़ कर गये हैं , तब से लेकर अब तक अन्ना की अंग्रेजी का हाल तो पूर्ववत ही है । फिर अन्ना लोकपाल बिल को समझने का दावा किस बूते पर कर रहे हैं ? इससे पहले भी देश के राजनैतिक दल देश की आम जनता की सूझबूझ पर तरस खाते रहे हैं । कई तो उसे अनपढ तक करार देते हैं । उसका कारण भी शायद उसका अंग्रेजी जानना न होगा । केजरीवाल शायद नहीं जानते कि इस देश की आम जनता की समझ अंग्रेजी जानने वालों से कहीं ज़्यादा है । इसके साथ ही अपने अधिकारों और अपने साथ हो रहे अन्याय से लड़ने के लिये उसे अंग्रेजी की नहीं बल्कि साहस की ज़रुरत है । यह साहस उसमें अंग्रेजी भाषा को दलाली की तरह प्रयोग करने वालों से कहीं ज़्यादा है । इसका परिचय इस देश की जनता ने इन्दिरा गान्धी के आपात काल में दिया भी था । उन दिनों जब आम जनता सत्याग्रह कर जेल जा रही थी तो अंग्रेजी पढ़े लोग दरबार में भांड नृत्य में मशगूल थे ।
 
यदि केजरीवाल को यह पता ही है कि सरकार अंग्रेजी की आड़ में ही इस देश के लोगों के साथ धोखा कर रही है तो वे अंग्रेजी के इस साम्राज्य के खिलाफ हल्ला क्यों नहीं बोलते ? कहा भी गया है , चोर को नहीं चोर की माँ को मारो । लेकिन केजरीवाल तो जानते बूझते हुये भी चोर की मां के खिलाफ मुँह नहीं खोल रहे । वे तो , इसके विपरीत अन्ना से कह रहे हैं कि मुझे डंडों से मार लो लेकिन मेरी बिचौलिए की भूमिका पर मत प्रहार करो । मुझे एक अवसर तो दो कि मैं आपको अंग्रेजी के इस लोकपाल का अर्थ समझा दूं । ऐजंट या दलाल की यही खूबी होती है कि वह चाहता है , लोग वही स्वीकार करें जो वह कह रहा है । जब लोग अपनी समझ से निर्णय लेने लगते हैं तो दलालों को सबसे ज़्यादा कष्ट होता है । ऐसी स्थिति में उनकी उपयोगिता समाप्त होने लगती है । दलाली के लिये ढाल चाहिये । केजरीवाल खुद मान रहे हैं कि अंग्रेजी उसी प्रकार की ढाल है । फिर केजरीवाल उस ढाल के खिलाफ मोर्चा क्यों नहीं लगाते ? उत्तर साफ है । यदि वह ढाल ही टूट गई तो केजरीवाल की भी जरुरत नहीं रहेगी , क्योंकि बकौल केजरीवाल तब अन्ना यानि देश की जानता सारे लोकपालों के अर्थ स्वयं ही समझ जायेगी । लम्बे अरसे से केजरीवालों की फ़ौज इस देश में यही खेल खेल रही है । दुर्भाग्य से जिन्होंने शुरुआत भारतीय भाषाओं से की थी , वे भी अगले मोड़ तक आते आते अंग्रेजी भाषा के दलदल में फँस गये । यदि कोई अन्ना बिना अंग्रेजी जाने भी देश को समझने का दावा करता हो तो केजरीवालों की यह फ़ौज तमाम काम छोड़ कर अन्ना पर टूट पड़ती है ।
 
डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
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