यशवंत जी, दो बातें कहनी है- हिन्दी पट्टी वाले नहीं देते हैं क्योंकि देने लायक नहीं होते हैं। इसलिए नहीं कि उनके पास पैसे नहीं होते हैं। इसलिए कि उनसे लेने वाले कई होते हैं। सुना नहीं, करोड़पति सुशील कुमार का? पैसे मिले नहीं मांगने वाले कई हैं। दूसरी बात यह कि अगर आपको लगता है कि किसी के पास पैसे हैं वह देता नहीं है या दे नहीं रहा है तो यह वैसे ही है जैसे लोग समझते हैं कि आपके पास, मेरे पास या हम जैसे कई लोगों के पास बहुत पैसे हैं। पर सच यह भी है कि हम हिन्दी वालों से लेने वाले इतने हैं (या कहिए हम देने में इतने उदार हैं) कि कितना भी हो जाए पूरा नहीं पड़ेगा।
ये तो हुई, सीख। मूल मुद्दे के संबंध में यही कहना है कि आप कुछ नहीं करेंगे तो कुछ नहीं होगा। करना आप ही को होगा नहीं तो तीन महीने यूं ही निकल जाएंगे। यहां इनीशिएटिव लेने वाले की बहुत जरूरत है। आपने लिख दिया, लोगों ने पढ़ लिया और आप सोचेंगे कि काम हो जाएगा तो कुछ नहीं होगा। अपवाद की बात मैं नहीं कर रहा। भड़ास4मीडिया बंद भी हो जाए – तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। पर बंद नहीं होने देना है।
मेरे पास दो सुझाव भी हैं – साल भर का खर्च निकालिए उसे महीने का खर्च मानकर तय कीजिए कि आप हर महीने किससे कितना लेना चाहते हैं। यह किसी संपादक से कंपनी का विज्ञापन और पाठक से पत्रिका की कीमत की तरह कुछ भी हो सकता है। पर तय आप कीजिए। ध्यान रखिए, मैं 12 गुना ज्यादा पर काम कर रहा हूं। इस हिसाब से तय कर दीजिए किसे कितना देना है। बता दीजिए आप पर इतने रुपए महीने भड़ास टैक्स लगेगा। पूछिए वह हर महीने देना चाहेगा या हर साल। चाहें तो यह विकल्प भी दीजिए कि आपने जो राशि तय की है वह उससे कम (या ज्यादा) भी दे सकता है। तारीख तय कर दीजिए। संभव हो तो एक-दो कार्यकर्ता लगाइए जो याद दिलाए, मांगे, पैसे भेजने के लिए कहे। कुछ दिनों में हमलोगों को पैसे देने / भेजने की आदत पड़ जाएगी और अगर पैसे ठीक आते रहे तो कुछ पैसे जमा भी हो जाएंगे।
दूसरा यह कि भड़ास4मीडिया की कीमत तय कीजिए। पेशेवर ढंग से कीमत लगवाइए। ज्यादा से ज्यादा 49 प्रतिशत बेच दीजिए। (मेरे कहने का मतलब कॉरपोरेट की तरह या शेयर बाजार में जाकर बेचना नहीं है। और वो शायद संभव भी न हो) पर करीब आधा हिस्सा बेचकर आपके पास इतना पैसा आ जाएगा कि आप आराम से चलाते रहें। जो लोग देंगे उन्हें हिस्सा मिलेगा और चूंकि 51 प्रतिशत हिस्से के साथ आप सबसे बड़े शेयरधारक रहेंगे इसलिए भड़ास को चलाने की नीति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। देने वाले को नहीं लगेगा कि मुफ्त में दे रहा है (जो मुफ्त में देते हैं वो देंगे ही) बाकी के शेयरधारक भी अगर समान विचार वाले लोग हुए तो भड़ास को चलाने के तरीके में कोई अंतर नहीं आएगा और जो पैसे लगाएंगे उनका जुड़ाव होगा। (वो बाद में कमाने के कई उपाय बताएंगे, हालांकि वे अमल लायक होंगे यह जरूरी नहीं है)।
आप यह भी तय कर सकते हैं कि एक आदमी को शेयरों की निश्चित संख्या से ज्यादा नहीं बेचेंगे और वे उसे दूसरे को नहीं सिर्फ आपको ही वापस बेच सकेंगे। इस तरह के कुछ नियम बनाए जा सकते हैं जो कॉरपोरेट और ट्रस्ट के बीच का कुछ हो और भड़ास इसी तरह चलता रह सके। वार्ता, सुझाव-सलाह से आगे और तरीके निकलेंगे।
एक तीसरा सुझाव भी है। आप 100 रुपए के गुणकों में शेयर बेचिए या पैसे जमा कराने (एफडी कराने) के लिए कहिए अगर 10,000 लोग 1000 रुपए जमा कराएं तो एक करोड़ रुपए हो जाएंगे और इसके ब्याज से ही काम चलता रहेगा। अगर इसी का सिलसिला चल निकले तो जो अपना पैसा जब चाहे वापस ले ले। नए आते रहेंगे। नए धंधे को चलाने के लिए तो अकल चाहिए होती है चलते हुए को चलाने के लिए तो सिर्फ धैर्य की जरूरत है। धैर्य मत खोइए और अगर आपने तीन महीने ही तय कर लिए हैं तो लग-भिड़ कर सही दिशा में काम कीजिए कुछ ठोस हो ही जाएगा।
(मैं नहीं समझता इसे प्रकाशित करने की जरूरत है। ये तो शुरुआती सुझाव भर है। हालांकि संपादकीय निर्णय तो आपका ही होगा!)
लेखक संजय कुमार सिंह लंबे समय तक जनसत्ता अखबार में कार्यरत रहे हैं. इन दिनों अनुवाद का काम संगठित तौर पर कर रहे हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.