सहारा के न्यूज चैनलों से बड़े पैमाने पर फिर छंटनी का भूत अब हकीकत में तब्दील होता जा रहा है। बताया जा रहा है कि प्रबंधन गुपचुप ढंग से छंटनी के अपने ‘मिशन’ पर जुट गया है। मध्य प्रदेश से खबर है कि राजधानी भोपाल को छोड़कर प्रदेश के बाकी सभी ब्यूरो कार्यालयों को बंद करने की तैयारी चल रही है। इसी क्रम में इंदौर ब्यूरो से तीन लोगों का भोपाल तबादला कर दिया गया है। इनके नाम हैं मनोज खांडेकर, आशुतोष नाडकर और विजय मांडगे। जबलपुर और ग्वालियर ब्यूरो पर भी गाज गिराने की तैयारी है।
सहारा की कोशिश है कि स्टाफर की बजाय स्ट्रिंगर के जरिए चैनल चलाया जाए। इसी के तहत पिछले दिनों नोएडा आफिस में हुई बैठक में देश के कई राज्यों के सैकड़ों स्टाफरों को बुलाकर उनसे इस्तीफा देने को कहा गया था। कई लोगों ने तो इस्तीफे दे दिया पर 50 से ज्यादा पत्रकारों ने एकजुट होकर लड़ाई लड़ने का मन बना लिया और अगले दिन लखनऊ स्थित सहारा मुख्यालय पहुंच गए। वहां शीर्ष प्रबंधन के सामने अपनी बात रखी तो उन्हें फौरी तौर पर राहत मिल गई लेकिन कुछ ही दिनों बाद उन्हें फोन पर कह दिया गया कि फिलहाल अगले आदेश तक वे आफिस न जाएं, घर बैठे रहें। बताया जाता है कि शीर्ष प्रबंधन के लोगों ने सहारा मीडिया के एचआर के लोगों की तगड़ी क्लास ली है। मीडिया के एचआर के लोगों ने प्रबंधन को भरोसा दिलाया था कि सबके इस्तीफे आराम से हो जाएंगे और कहीं कोई हो-हल्ला नहीं होगा पर हुआ इसके उलट। सहारा की साख पर आंच आने की आशंका के कारण शीर्ष प्रबंधन ने मीडिया के एचआर के लोगों को निर्देश दिया है कि किसी भी कीमत पर छंटनी को लेकर कहीं कोई बवाल नहीं होना चाहिए। ऐसे में अब मीडिया संचालित करने वाला प्रबंधन छंटनी के तरीके को बदल रहा है। वह ब्यूरो कार्यालयों को बंद करने के लिए वहां कार्यरत लोगों के तबादले, स्टेट हेड के जरिए अपने स्टाफरों को धमकाने आदि तरीकों का इस्तेमाल कर रहा है। उधर, सहारा के टीवी कर्मी भी अपने अस्तित्व पर आए संकट को देखते हुए आर-पार के मूड में है। कई सहारा कर्मियों ने मिलकर छंटनी के खिलाफ एक मोर्चा तैयार किया है और इससे संबंधित एक मेल भड़ास4मीडिया को भेजा है, जिसे संपादित कर यहां प्रकाशित किया जा रहा है। संपादन में उन नामों को हटा दिया गया है जिन पर सीधे तौर पर कई आरोप लगाए गए हैं। इन नामों को हटाकर ….एबीसी…. लिख दिया गया है। विज्ञप्ति इस प्रकार है-
प्रेस रिलीज : प्रकाशनार्थ
नौकरी से बेदखल किये जाने के बाद कर्मचारियों ने सहारा इंडिया परिवार पीड़ित संघ गठित किया है. संघ के एजेंडे में सबसे ऊपर पीड़ित सदस्यों को उनका हक दिलाना और उन लोगों को बेनकाब करना है जिनकी कारगुजारियों की बदौलत दुनिया के इस सबसे बड़े परिवार की छवि धूमिल हो रही है. संघ के प्रवक्ता के मुताबिक परिवार की मर्यादा कायम करना भी उसके एजेंडे का हिस्सा है. संघ के प्रवक्ता के मुताबिक कर्तव्ययोगी कार्यकर्ताओं की नौकरी फिलहाल बच तो गयी है लेकिन खतरा नहीं टला है। अब एचआर के लोग फुटकर छंटनी का रास्ता अख्तियार करेंगे। इसलिए संघ अपनी लड़ाई जारी रखेगा.
संघ ने महाश्वेता देवी, नामवर सिंह और मंगलेश डबराल के अलावा तमाम ऐसी हस्तियों से मुलाकात करने का फैसला किया है जो सहारा इंडिया परिवार की परंपराओं से किसी न किसी रूप में वाकिफ हैं. संघ के प्रवक्ता के मुताबिक पीड़ितों का एक दल इन लोगों से मिल कर वस्तुस्थिति की जानकारी देगा और इस मार्फत परिवार के मुखिया सुब्रत राय से मौजूदा हालात में हस्तक्षेप की अपील करेगा. दरअसल सहारा भी इस देश की तरह चल रहा है जहां कुछ लोग अपने निहित स्वार्थ के लिए कंपनी का कोई भी नुकसान कराने को तैयार रहते हैं. ये लोग जैसे तैसे बड़े बड़े पदों पर पहुंच गये हैं और फिर वहीं से सारी मनमानी करते हैं. इन सीनियर के पास असल में कोई काम भी नहीं है और ये सभी किसी न किसी तरह एक केबिन अपने लिए अलाट करा लिये हैं. इन केबिनों में दिन भर गप्पेबाजी होती रहती है.
सहारा मीडिया के सीईओ सुमित राय को भी ये लोग झांसे में रखते हैं. उनके पीए से उनका लोकेशन पता करते रहते हैं और ये भी उतने ही दिन दफ्तर आते हैं जितने दिन सुमित राय नोएडा दफ्तर आते हैं. सुमित राय को लखनऊ और मुंबई भी काम के सिलसिले में जाना पड़ता है. उन दिनों ये आस-पास जाकर छुट्टियां मना लेते हैं. जिन दिनों पुण्य प्रसून वाजपेयी ने सहारा ज्वाइन किया था, उन दिनों भी ये तबका काफी सक्रिय था. वाजपेयी को फेल कराने की इन्होंने बेजोड़ कोशिश की और उनकी किस्मत भी कुछ ऐसी थी कि ये कामयाब हो गये. सच्चाई यह है कि ये नान-फंक्शनल केबिनधारी ही सहारा पर सबसे बड़े बोझ हैं. इन सबकी सेलरी पचास हजार से ऊपर है और इनके पास कोई काम नहीं है. महंगी सेलरी वालों में नेशनल चैनल के कुछ एंकर और सीनियर भी हैं जो ज्वाइनिंग के दिन से ही कंपनी पर बोझ हैं.
अगर सहारा चैनल के भारी भरकम सेलरीवालों पर नजर डालें तो ….एबीसी…. अब भी लोगों को अपने दूसरे न्यूज चैनल के दिनों का झांसा देकर भाव मारती हैं, लेकिन परफार्मेंस के नाम पर आधे घंटे की कोई बुलेटिन होती है। इसी तरह ….एबीसी….. खेल-करतब देखते हैं और शाम की एक बुलेटिन तैयार कराने के अलावा उनकी जिम्मेदारी बस घूम-घूम कर लोगों का मनोरंजन करना है। एक पूर्व चैनल हेड ….एबीसी…. हैं। सेलरी इनकी भी मोटी है लेकिन काम क्या करना है, ये तो इन्हें भी नहीं पता। इसी तरह …एबीसी…. काफी लोकप्रिय हैं, लड़कियां उनकी फैंस हैं। इन दिनों केबिन तो है लेकिन काम का नहीं पता। …एबीसी….. कभी एक रीजनल चैनल के हेड हुआ करते थे। वह एक ऐसे सीनियर हैं जिनके पास उन सभी को रिपोर्ट करने के लिए भेज दिया जाता है जिनके पास कोई काम नहीं होता। इसे वो एंज्वाय भी करते हैं। हाल ही में इन्हें नया काम दिया गया है क्योंकि इसके पुराने प्रमुख ….एबीसी… अपनी काबिलियत की बदौलत प्रिंट में पहुंच गये हैं। …एबीसी… की दिक्कत है कि वे अपनी ईमेल आइडी भी खोल नहीं पाते लेकिन अपने नए प्रभाग के लोगों को शान से लीड करते दिखने की कोशिश करते हैं।
पता नहीं मीडिया हेड को इन फुंके हुए कारतूसों से कैसी मोहब्बत है कि इन्हें पाल पोस कर बनाए हुए हैं। उन्हें शायद नहीं पता यही लोग एक दिन उनकी भी लुटिया डुबो देंगे. अगर कंपनी ऐसे लोगों को बाहर कर दे तो रकम के तौर पर लाखों की बचत तो होगी ही इनकी खुराफाती गतिविधियां रुक जाने से करोड़ो का नुकसान बच जाएगा. जहां तक मंदी के दौर की बात है तो उस पर संघ का सवाल है कि आखिर ये कैसी मंदी है कि तीन महीने पहले ही मर्सिडीज और स्विफ्ट डिजायर जैसी गाड़ियां खरीदी गयीं. क्या कंपनी के सीइओ और चैनल हेड कुछ दिन और इंतजार नहीं कर सकते थे. क्या उनके आने जाने के लिए वाहन नहीं थे. क्यों नहीं कंपनी इन गैर-जरूरी नान फंक्शनल सीनियरों को हटा कर इन पर होने वाले खर्च से मीडिया का स्तर सुधारने का काम करती है. सहारा के पास इतना बढ़िया नेटवर्क था कि कोई भी खबर सबसे पहले सहारा के चैनलो को मिलती थी लेकिन इस खूबी को कभी एनकैश नहीं किया गया. अब भी सहारा चाहे तो उसका मीडिया हाउस पूरे देश में सब पर भारी पड़े बस जरूरत है सही हाथों में कमान सौंपने की.
भवदीय,
प्रवक्ता, सहारा इंडिया परिवार पीड़ित संघ