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एक शार्टफिल्म : सुसाइड करने का नया तरीका- मीडिया ज्वाइन कर लो

सुसाइड…. एक शॉर्ट फिल्म है, जिसे हम मीडियाकर्मियों ने मीडिया में अपने अनुभवों के आधार पर बनाया है। हममें से सभी कुछ ना कुछ ख़्वाब या कुछ मक़सद को लेकर इस क्षेत्र में आते हैं। जब आप कॉलेज में पढ़ते हैं तो वो दुनिया और आदर्श अलग होते हैं, और जब आप फील्ड में उतरते हैं तो ये दुनिया अलग ही होती है। जो आप पढ़कर-सीखकर आते हैं, प्रैक्टिकल करते हुए उन सब बातों के मायने बदल जाते हैं।

<p style="text-align: justify;">सुसाइड.... एक शॉर्ट फिल्म है, जिसे हम मीडियाकर्मियों ने मीडिया में अपने अनुभवों के आधार पर बनाया है। हममें से सभी कुछ ना कुछ ख़्वाब या कुछ मक़सद को लेकर इस क्षेत्र में आते हैं। जब आप कॉलेज में पढ़ते हैं तो वो दुनिया और आदर्श अलग होते हैं, और जब आप फील्ड में उतरते हैं तो ये दुनिया अलग ही होती है। जो आप पढ़कर-सीखकर आते हैं, प्रैक्टिकल करते हुए उन सब बातों के मायने बदल जाते हैं।</p> <p>

सुसाइड…. एक शॉर्ट फिल्म है, जिसे हम मीडियाकर्मियों ने मीडिया में अपने अनुभवों के आधार पर बनाया है। हममें से सभी कुछ ना कुछ ख़्वाब या कुछ मक़सद को लेकर इस क्षेत्र में आते हैं। जब आप कॉलेज में पढ़ते हैं तो वो दुनिया और आदर्श अलग होते हैं, और जब आप फील्ड में उतरते हैं तो ये दुनिया अलग ही होती है। जो आप पढ़कर-सीखकर आते हैं, प्रैक्टिकल करते हुए उन सब बातों के मायने बदल जाते हैं।

याद है… जब कॉलेज में मासकॉम की पहली क्लास थी तो टीचर ने पूछा, “आप मीडिया में क्यों आए?” सबसे ज्यादा जवाब यही था, “मैं समाज के लिए कुछ करना चाहता या चाहती हूं इसलिए मीडिया में आया या आई हूं।” लेकिन आपके ये आदर्श तब तक ही होते हैं जब तक आप किताबों में मीडिया की पढ़ाई करते हैं। लेकिन जब आप मीडिया में उतरते हैं तो आपकी नहीं बल्कि बाज़ार की चलती है। आप तो महज़ बाज़ार के हाथों मजबूर कठपुतली की तरह काम करते हैं। आज का मीडिया टीआरपी या आगे बढ़ने की होड़ में जो परोस रहा है, वो शायद अश्लीलता, सनसनी और अंधविश्वास से ज्यादा नज़र नहीं आता।

ख़बरों का तो जैसे अकाल पड़ गया है। हमनें ‘सुसाइड’ के ज़रिए मीडिया के वर्तमान गैर-ज़िम्मेदाराना माहौल में एक आदर्शवादी या फिर एक आम संवेदनशील मीडियाकर्मी का दर्द दिखाने की कोशिश की है। ये एक ऐसे शख्स की कहानी है, जो मीडिया की चिल्लमचिल्ली और तथाकथित बेबुनियाद ख़बरों के बीच अपने आदर्शों का गला घुटता महसूस करता है। जो मीडिया में अपनी मौजूदगी को एक मज़दूरी से ज्यादा कुछ और नहीं समझ पाता। ये फिल्म वास्तव में मीडिया में आए हर उस नौजवान के अनुभवों की कहानी है, जो कुछ करगुज़रने का माद्दा तो रखता है लेकिन उसे करने की स्वतंत्रता नहीं। लेकिन फिर भी हम उम्मीद करते हैं कि कभी ना कभी एक नया सवेरा ज़रूर होगा, जो सोई हुई पत्रकारिता को फिर से जगा देगा। और साथ ही सभी नौजवान पत्रकारों की तरफ से हम कहना चाहते हैं-

“लाख चाहे बांध लो ज़ंजीर से
वक़्त पर निकलेंगे फिर भी तीर से”

शार्ट फिल्म देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- सुसाइड

शुक्रिया

पुनीत भारद्वाज और टीम

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0 Comments

  1. manoj

    October 22, 2011 at 10:48 am

    punit ji aap ne bikukal sahi likha he… aaj hum jese naye log media me jo soch kar aate he uske ulta yaha hota he …….

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