अखबार के पन्नों पर लगातार सत्तर साल तक चलने वाली कलम एक दिन अपनी उम्र का हिसाब जोड़े और ‘अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल’ जैसे वैरागी-भाव से कह दे कि ‘बहुत हुआ..अब और नहीं..कि मेरा समय यहीं समाप्त होता है..’ तो सहसा यकीन करना मुश्किल हो जाता है। इस हफ्ते एक अंग्रेजी पत्रिका ने लिखा है कि सरदार खुशवंत सिंह का बहुचर्चित स्तंभ अब अखबारों में नहीं दिखाई देगा।
पत्रिका ने खुशवंत सिंह को यह कहते हुए उद्धृत किया है, ‘मैं 97 साल का हूं.. अब किसी भी दिन मौत आ सकती है..।’ लेकिन अदा देखिए कि अपने लेखन में खुद को हमेशा ‘एक शरारती बुजुर्ग’ के रूप में दिखाने के लिए सजग रहने वाले खुशवंत सिंह ने जब कलम हमेशा के लिए रख देने की घोषणा की है तब भी शायद ही कोई कह सके कि वैराग्य की इस बेला में उनका बांकपन चला गया। अगर बांकपन चला गया होता तो खुशवंत सिंह यह न कहते कि लेखनी को विराम देने के बाद मुझे बहुत याद आएंगे, वे रुपए जो मिला करते थे और ‘वे लोग जो अपने बारे में लिखवाने के लिए मेरी चापलूसी किया करते थे।’
कहां ढलती उम्र और मौत की अनसुनी आहट को भांपने की कोशिशों के बीच यह बोध कि अब लिखा न जा सकेगा और कहां इस वैरागी-बोध के बीच रह-रह कर कोंचने वाली यह दुनियावी याद। पावनता के बीच किसी शरारत का यह छौंक या कह लें एक खास किस्म का बांकपन ही खुशवंत सिंह के पत्रकारीय शब्द-संसार की जान है। इसलिए, स्तंभ न लिखने के उनके फैसले को पढ़कर कोई बहुत कोशिश करे तो भी उनके बारे में भर्तृहरि की वह पंक्ति न याद करना चाहेगा जिसमें अफसोसनाक मंजूरी के स्वर में कहा गया है कि कालो ना याति वयमेव याता..समय नहीं बीतता हम ही बीत जाते हैं, तृष्णा जीर्ण नहीं होती हम ही जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं। हां, नियमित स्तंभलेखन से विदा लेते खुशवंत सिंह के बयान को पढ़कर भारतीय साहित्य के एक सर्वमान्य ‘शरारती’ बुजुर्ग गालिब जरूर याद आएंगे जो कह गए कि ‘गो हाथ को जुंबिश नहीं, आंखों में तो दम है, रहने दो अभी सागरो-मीना मेरे आगे।’
छोड़ दें खुशवंत सिंह के साहित्यकार, इतिहासकार और अनुवादक के रूप को और अपने को केंद्रित करें सिर्फ उनके पत्रकारीय कर्म पर तो भारतीय पत्रकारिता के इस बुजुर्ग के बारे में नजर आएगा कि उसकी ‘शरारत’ सिर्फ हंगामा खड़ा करने के मकसद से नहीं थी, बल्कि उसमें कोशिश हमेशा व्यवस्था की खामियों से असंतुष्ट की तरह यही रहती थी कि ‘यह सूरत बदलनी चाहिए।’ लेकिन उनकी शैली किसी मिशनरी पत्रकार की शैली नहीं थी जो इस या उस विचारधारा के चश्मे से सामने पड़े तथ्यों को देखता और सच्चाई के अपने रूपाकार में फिट करता है। गैर-पत्रकारीय प्रतिबद्धताओं के साथ खुशवंत सिंह की कलम ने समझौता नहीं किया। उन्होंने बड़े-बड़ों को अपने कॉलम में उनकी क्षुद्रताओं के लिए कोसा लेकिन कुछ इस तरह की वह ‘गुदगुदी’ और ‘चिकोटी’ और ‘गप्प’ जान पड़े। उन्होंने अपने से छोटों को कुछ बड़ा करने का उकसावा दिया लेकिन प्रेरणादायी प्रवचन की उस शैली में नहीं जिससे उनका गुरुडम झांकता हो बल्कि कुछ इस तरह की सीख लेने वाले को लगे कि अरे यह तो मैं पहले से ही जान रहा था। खुशवंत सिंह ऐसा कर पाए, क्योंकि वे पत्रकार को न तो समाज-सुधारक की भूमिका में देखने के हामी रहे, न ही इस या उस राजनीतिक पंथ के भक्त या गुरु के रूप में देखने के पैरोकार।
पत्रकारीय कर्म की अपनी स्वयात्तता होती है, घनघोर प्रतिबद्धताओं से उपजा लेखन पक्षपाती और इसी कारण मुद्दे की समग्रता को किसी हड़बड़ाई हुए एकहरेपन में समेटने वाला लेखन भी होता है, खुशवंत सिंह अपने स्तंभ में हमेशा याद दिलाते रहे। अपने पत्रकारीय कर्म की स्वायत्तता की रक्षा में ही उन्होंने ‘गप्प, गुदगुदी और शरारत’ वाली शैली विकसित की। राजनीतिक प्रतिबद्धताओं की दुहाइयों से पटे पड़े पत्रकारीय संसार में अकसर यह बात भुला दी जाती है कि बतरस किसी चीज का साधन नहीं, बल्कि स्वयं में एक साध्य हो सकता है। और, शब्दशिल्पी जानते हैं कि बतरस उस दिन से साध्य रहा है जिस दिन किसी गोपी ने कृष्ण की मुरली खास बतरस के ही लालच में छुपा दी थी, ‘बतरस लालच लाल की मुरली दई लुकाय।’ शब्द कोई पत्थर नहीं कि उसे निशाना ताक कर किसी पर मारा जाए और कलम आखिर तक कलम ही रहती है उसे तोप या तलवार के मुकाबिल समझने के दिन मसीहाओं के साथ लद गए– खुशवंत सिंह के भीतर का शब्द-शिल्पी इस सहज स्वीकार के साथ अपनी कलम उठाता था। उनसे संबंधित हाल की दो घटनाओं के जिक्र से यह बात स्पष्ट हो जाएगी। ज्यादा दिन नहीं हुए जो नीरा राडिया टेप-कांड में कुछ पत्रकारों का जिक्र कारपोरेटी महात्वकांक्षाओं से ऊपजी पत्रकारिता की मलिनताओं की मिसाल के रूप में सामने आया। टेप के सार्वजनिक हो जाने के बाद आम राय यह बनी कि महत्वपूर्ण पद पर बैठे पत्रकार पत्रकारिता से इतर भी सत्ता-समीकरणों में गोट इधर से उधर करने का काम करते हैं।
पत्रकारिता की मलिनताओं के इस शोर के बीच यह खुशवंत सिंह का सजग विवेक था जिसने याद दिलाया कि यह कहानी प्रहसन से ज्यादा कुछ नहीं है क्योंकि टेप में ‘एक अग्रणी चैनल के एंकर को एक महत्वाकांक्षी राजनेता के लिए सिफारिश करने को कहा जा रहा है। यह कहानी पूरी तरह से प्रहसन जान पड़ती है क्योंकि (राजसत्ता के लिए) पत्रकार की सिफारिश कोई मायने नहीं रखती।’ दूसरी घटना बरखा दत्त और राजदीप सरदेसाई की कार्यक्रमों की प्रशंसा से जुड़ी है। इसी साल मई महीने में उन्होंने ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में अपने स्तंभ में लिखा, ‘बरखा और राजदीप सरदेसाई अपने कार्यक्रम में आमंत्रित अतिथियों से सही सवाल पूछने के लिए भरपूर होमवर्क करते हैं। यह भी ध्यान रखते हैं कि कार्यक्रम में परस्पर विरोधी राय रखने वाले महत्वपूर्ण व्यक्ति शामिल हों ताकि दर्शक को निजी राय बनाने से पहले विभिन्न विचारों की जानकारी हो जाए।’ किसी को खुशवंत सिंह के लेखन से असहमति हो सकती है, लेकिन अपने सत्तर साल के पत्रकारीय कर्म में उन्होंने पत्रकारिता के जिन विधानों (जानकारी, शिक्षा और मनोरंजन को एकरूप बनाना) का पालन किया उससे असहमत होना मुश्किल है। हालांकि 1969 से ‘इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया’ से शुरू होने वाला उनका नियमित स्तंभ 40 साल के अपने सफर में दर्जनों पत्रों की यात्रा करने के बाद अब मौन हो गया है, लेकिन इस कॉलम ने उन्हें जो हैसियत बख्शी है, वह किसी पत्रकार के लिए लंबे समय तक दुर्लभ रहेगी। पत्रकार खुशवंत सिंह की हैसियत की ही मिसाल है कि आज जब उन्होंने अपनी कलम रख दी है तो भी गुजरी 18 तारीख को ‘द हिंदू’ ने उनकी चिट्ठी को अपने लिए एक प्रमाणपत्र मानकर बॉक्स-आयटम में छापा है। कारण, इस चिट्ठी में खुशवंत सिंह ने वह लिखा है, जो किसी भी अखबार के लिए एक मुंहमांगी मुराद की तरह है। उन्होंने ‘द हिंदू’ के लिए लिखा है, ‘संपादक महोदय, आप और आपके कर्मचारीगण देश को दुनिया का सबसे पठनीय अखबार देने के लिए बधाई के पात्र हैं।’
चंदन श्रीवास्तव का लेख दैनिक भास्कर में प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लिया गया है.