तमाम परीक्षाओं-नौकरी आदि की उम्र निकल जाने के बाद किसी लायक नहीं रहेगा। न्यूज एडिटर से ऊपर का पद भी मालिकानों के पंसदीदा लोगों को ही मिलता है। ऐसे में वह भी कुंठित और पीड़ित हो ही जाता है। पत्रकारिता से मिलता जुलता काम पत्रकारिता पढ़ाना रहता है। अगर आपने बगैर स्नातकोत्तर किए पत्रकारिता शुरू कर दी तो इस क्षेत्र में भी सम्मानजनक काम नहीं मिल पाएगा। जोड़-तोड़ आए तो ठीक है वरना चीफ सबी या ज्यादा से ज्यादा न्यूजएडीटरी करते रहिए। हालांकि इस समय तक स्थिति को करीबी से देख लेने के बाद खुद पत्रकारिता पढ़ाने की इच्छा नहीं होगी और आप खुद अपनी रोटी चलाने के लिए नए लोगों को उसी संकट में धकेलने का महान काम कर पाएंगे इसपर मुझे शक है। पत्रकारिता की डिग्री हुई तो बाद में कहीं कोई संभावना बन भी जाए सिर्फ स्नातक के भविष्य का तो भगवान ही मालिक है। हालांकि, मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि उसका जीना मुहाल हो जाएगा। जीएंगे तो अनपढ़ भी। पर वे कैरियर की बात नहीं करेंगे।
दूसरी ओर, चीफ सबी करते हुए अपने संपादक मालिक को आप कब महंगे लगने लगेंगे कोई नहीं जानता। जिस दिन आपको निकालना होगा– आपका संपादक / मालिक आपके एडिशन की गलती पकड़ने के लिए आपसे वरिष्ठ-कनिष्ठ, योग्य-अयोग्य किसी या सभी लोगों को घोषित या अघोषित तौर पर लगा देगा जो पहले आपसे गलती करवाएंगे या आपके एडिशन इंचार्ज रहते हुए करेंगे और फिर पकड़वाएंगे। या सही को गलत घोषित कर देंगे और आप उसे सही साबित करने में अपनी सारी ऊर्जा लगाकर अगले एडिशन में गलती कर ही देंगे। ऐसी स्थिति में आप जितने दिन चल जाएं। खुद इस्तीफा नहीं देंगे तो वीआरएस की पेशकश और जैसे अभी ललचा कर नौकरी दी जा रही है वैसे ही कुछ लाख देकर ले ली जाएगी और फिर आप 40-50 साल में बेरोजगार हो ही जाएंगे।
यह सब मैं यूं ही नहीं कह रहा हूं, कई लोगों को जानता हूं जिन्होंने 25 से 40 साल की उम्र तक बहुच अच्छा काम किया है पर अब बेरोजगार हैं या कुछ और धंधा करने लगे हैं। जो पत्रकारिता में हैं वे विकल्प न होने की मजबूरी झेल रहे हैं और संतुष्ट तो कत्तई नहीं हैं। एकाध अपवाद जरूर हैं पर उन्हें यह डर सताता रहता है कि किस दिन उनका संस्थान उन्हें जय राम जी की कह देगा। कम उम्र में ही पत्रकारिता से बेरोजगार हुए जिन लोगों के ठीक-ठाक खाने कमाने का जुगाड़ है वे नौकरी मांगने नहीं जाते और उन्हें नौकरी नहीं मिल रही है। जिनकी मजबूरी है उन्हे जो मिलती है कर लेते हैं। उसमें कितने पैसे मिलते होंगे इसका अनुमान लगा लीजिए। वरिष्ठ पदों पर जिस तेजी से लोग नौकरी बदलते हैं उससे भी स्थिति स्पष्ट है और जो कुंठित होते हुए भी बदल नहीं पा रहे हैं उससे पता चलता है कि संभावना कितनी है।
यहां मुझे अपने पिछले आलेख पर राजेश आहूजा की प्रतिक्रया का ख्याल आ रहा है। उन्होंने लिखा है, “आपका सन्देश क्या है? लोग प्रापर्टी बनाने के लिए पत्रकारिता का पेशा छोड़ दें और शानदार जीवन शैली के लिए एलजी सैमसंग की बिक्री बढाने वाले विज्ञापनों का अनुवाद करें? हद है यार कैरियरवाद की भी।“ इस पर मेरा मानना है कि हिन्दी पत्रकारिता में कैरियर है ही नहीं। मैंने देश के एक अच्छे अखबार और सम्मानित संस्थान में 15 साल नौकरी की और कुल जमा एक तरक्की पाई। इसके बावजूद 15 साल उसी अखबार में रहा क्योंकि उससे अच्छा कोई विकल्प नहीं था। आप कह सकते हैं कि मैं नालायक था और मुझे काम नहीं आता होगा, या करता नहीं होउंगा इसलिए तरक्की नहीं मिली होगी। पर सच यह भी है कि तरक्की पाने वाले गिनती के लोग ही थे। ऐसे में मेरा मानना है कि दो चार साल की मस्ती ज्यादातर लोगों को बहुत महंगी पड़ती है। राजेश आहूजा इसे कैरियरवाद की हद मानें तो मैं क्या, कोई भी उन्हें रोक नहीं सकता।
पत्रकारिता के कैरियर का अपना ग्लैमर है और शायद इसीलिए बड़ी तादाद में नए लोग पत्रकार बनने के लिए उपलब्ध रहते हैं। इसका नतीजा यह होता है ज्यादातर अनुभवी और पुराने लोगों को सम्मानजनक वेतन मिलने की संभावना नहीं रहती है। हिन्दी पत्रकारिता के ज्यादातर संस्थान उतनी ही तनख्वाह देते हैं जितनी मजबूरी होती है। ऐसे में आपको नौकरी नहीं सेवा करनी हो तो बात अलग है। इस स्थिति के बावजद कोई पत्रकारिता ही करना चाहता है (मैं अग्रेजी और टीवी पत्रकारिता की बात नहीं कर रहा) तो उसे चाहिए कि वह अपने कमाने, परिवार चलाने भर खर्च का बंदोबस्त कर ले उसके बाद कूद जाए मैदान में, जो तनख्वाह मिलेगी वही काफी लगेगी। लेकिन पिता जी का होटल जिन्दगी भर नहीं चलेगा और आपके बच्चे भी चाहेंगे कि उनके पिताजी उनके लिए और अच्छा होटल चलाएं। जहां सब कुछ उन्हें भी उसी तरह मुफ्त मिलता रहे जिसतरह आप अपने पिताजी के होटल में प्राप्त करते रहे हैं।
अच्छा काम कर सकने वाले कई लोगों के उपलब्ध होने के बावजूद दैनिक जागरण और अमर उजाला वाले नए लोगों को पत्रकारिता सीखाने का लालच दे रहे हैं तो इसीलिए कि उन्हें नए लोगों की ही जरूरत है। आपको इस लालच में फंसना है कि नहीं यह आपको तय करना है। मेरे हिसाब से तो यही गनीमत है कि विज्ञापनों में यह नहीं लिखा है कि पत्रकारिता सीखाने के लिए वे कोई पैसा नहीं लेंगे और यह सच भी लिख दिया है कि इस दौरान काम करने के वे कोई पैसे नहीं देंगे। मुझे तो यही काफी लग रहा है और याद दिलाने का मन हो रहा है – शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, लोभ से उसमें फंसना नहीं।
लेखक संजय कुमार सिंह लंबे समय तक जनसत्ता अखबार में कार्यरत रहे हैं. कई वर्षों से आजाद पत्रकार के रूप में सक्रिय हैं. पैसे कमाने के लिए अनुवाद की खुद की कंपनी चलाते हैं. उनसे संपर्क anuvaadmail@gmail.com के जरिए किया जा सकता है.
Comments on “मैं तो इसे नए लोगों को बेवकूफ बनाने की चाल ही कहूंगा”
boss apne to apna jugad doond liya. are berojgari se to 1000 rupee hi behtar hai. 40 saal tak to patrkar bangla bana lete hain. ap kis yug me ji rahe ho. bhasan to sabhi dete hain. ap kyon free launcing kar rahe ho.
पत्रकारिता अब मजबूर लोगों के द्वारा लूटेरों,गद्दारों तथा असामाजिक तत्वों के तलवे चाट कर जीने के अलावा कुछ भी नहीं…वैसे एक इंसान के लिए आज ईमानदारी से एक कदम चलना बहुत मुश्किल है हाँ कुछ ईमानदारी से करने को बचा है तो सोनिया गाँधी,मनमोहन सिंह,राहुल गाँधी,शरद पवार,मायावती तथा प्रणव मुखर्जी जैसों की हत्या …बस ये काम अगर कोई करता है आज तो उससे बरा कोई इंसान नहीं बल्कि भागवान भी नहीं…क्योकि इन कमीनों ने इंसान को कुत्तों से भी बदतर जिन्दगी जीने को मजबूर कर दिया है…पूरा देश व समाज इनकी कमीनापन से करह रहा है…जो इस बात से सहमत नहीं जरा एक बार ठंढे दिमाग से सोचें जरूर…
राजकुमार जी
मैं बेरोजगारी से 1000 रुपए को बेहतर मानने वालों की बात नहीं कर रहा हूं। मैं उनकी बात कर रहा हूं जिनके पास कैरियर के विकल्प हैं और जो पत्रकारिता की चकाचौंध को देखकर बिना जानकारी के या आधी अधूरी जानकारी के साथ इसे कैरियर बना लेते हैं और बाद में उनके पास अफसोस करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। अगर आप को (या किसी और को) कोई दूसरी नौकरी मिल ही नहीं रही तो निश्चित रूप से 1000 रुपए बेहतर हैं और कुछ दिन बेगार कराने के बाद न्यूनतम मजदूरी तो हिन्दी के पत्रकारों को मिलती ही है। जो इसी से संतुष्ट हैं उनके लिए तो सोने पे सुहागा ये कि कई अखबारों के दफ्तर एयर कंडीशन हैं। पर अगर कोई बैंक की नौकरी को क्लर्की समझकर पत्रकारिता को महान पेशा मानता है तो उसे यह भी मालूम होना चाहिए कि आगे चलकर किसी वरिष्ठ पत्रकार को जितनी तनख्वाह मिलती है तकरीबन उतना ही बैंक के अफसर को मकान किराया भत्ता मिलता है।
i am agree with u sir ..bina padhai ke patrakar agar bane to repori aur camermani hi karenge..
हम तो पढ़े लिखे भी नहीं है फिर भी पत्रकारिता में भाड़ झोकना चाहते हैं. इससे भी बढ़कर खोजी पत्रकारिता का जोश सवार है. हमे वैसे भी बड़े अखबार के लोग पसंद नहीं और बड़े अखबार वालो को हम पसंद नहीं. पत्रकारिता पर भाषण झाड़ने से पहले जरा एक बार जिलों में झाँक लीजिए जहां आपको 30 साल पुराने स्ट्रिंगर मिल जायेंगे. इन स्ट्रिंगरो की कमाई और व्यवसाय देखकर सारे भाषण ठन्डे हो जायेंगे. पता नहीं क्या मिलेगा और क्या नहीं हमे तो पत्रकारिता एक जूनून देती है बस वही हम करते और जहां जगह मिलती है छप जाते हैं. परन्तु आपकी बात भी सही है की यहाँ कैरिअर की कोई जगह नहीं है.
is tarah ka ofer to sirf naye ladko ko moorkh bananeya fir unse dalali karke paise kamane ka kaam hi ho sakta hai kyonki jise patrakarita ki abcd nahi maloom hogi wo kaise karenge patrkarita
aajkumar ji.. bhashan is lie diye ki unki aur saare bhale logon ki sachhai saamne aa sake.. unhe koi nakara na kahkar ek achha insaan samjhe.. kam se kam we radia jaise patrakaaron ki to jamaat me nahi hai na? shayad aap hon..
“पत्रकारिता के कैरियर का अपना ग्लैमर है और शायद इसीलिए बड़ी तादाद में नए लोग पत्रकार बनने के लिए उपलब्ध रहते हैं।”
और यह ग्लैमर बाद में दलदल बन जाता है जिससे बाहर निकल पाने की संभावनायें (परिस्थितिवश) खत्म हो जाती है. तब केवल यह पछ्तावा रह जाता है कि काश इसकी बजाय कोई राह चुनी होती…!