: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (6) : अब तो हर तीसरे चौथे महीने लोक कवि के छंटनीशुदा कलाकार एक दो टीम बना लेते। गाते-बजाते लोक कवि के ही गानों को, पर उनको लगभग गरियाते हुए। शायद इस लिए भी कि यह लोग एक तो मेच्योर नहीं होते थे दूसरे, उन्हें लगता लोक कवि ने उनके साथ अन्याय कर दिया।
इनमें से कई तो यहां तक करते थे कि गाते-बजाते सब लोक कवि का ही गाना पर गाने के अंत में जहां लोक कवि का नाम आता, वहां लोक कवि की जगह अपना नाम लगा कर गा देते। गोया यह गाना लोक कवि का लिखा नहीं, उसी कलाकार का लिखा हो, जो गाना गा रहा है। कभी कभार शिकायत के अंदाज में यह बात लोग लोक कवि के कानों तक भी पहुंचाते कि, ‘देखिए अब फलनवा भी आप के गाने में अपना नाम ठूंस कर गा रहा है।’ तो यह सब सुन कर लोक कवि या तो चुप लगा जाते या बिना गुस्सा हुए कहते, ‘जाने दीजिए, खा कमा रहा है, खाने कमाने दीजिए!’ वह कहते, ‘मंच पर ही गा रहा है न, कैसेट में नहीं न गा रहा। अरे जनता जानती है कि कवन गाना किस का है। परेशान जिन होइए।’ शिकायत ले कर आए लोगों को वह लगभग इसी तरह निरुत्तर कर देते।
और अब तो हद यह होने लगी कि जिस भी किसी कलाकार को लोक कवि मैनेजर बनाते वह न सिर्फ उनके कलाकारों को तोड़ देता, उनके पैसा रुपए के हिसाब में भी लंबा-चौड़ा घपला कर देता। बात यहीं तक होती तो गनीमत थी, कई बार तो यह मैनेजर घपला कर के उनके कई सरकारी कार्यक्रम चाट जाते। और कई बार पोरोगराम लोक कवि करते पर उनका पेमेंट किसी और बैनर के नाम हो जाता जो आड़े तिरछे लोक कवि के मैनेजर का ही बैनर होता!
परेशान हो जाते लोक कवि ऐसे घपले देख-देख, भुगत-भुगत कर! वह पछताते कि काहें न ठीक से वह भी पढ़े लिखे। वह कहते भी कि, ‘ठीक से पढ़ा लिखा होता तो ई बदमाशी नहीं न कोई करता हमारे साथ!’
नतीजतन उनके इर्द-गिर्द अविश्वास की बड़ी-बड़ी झाड़ें उग आईं। वह अब जल्दी किसी और पर विश्वास ही नहीं करते।
अविश्वास का यह वही दौर था जब लोक कवि कभी कभार काफी हाऊस में भी बैठने लग गए।
काफी हाऊस में लोक कवि का बैठना भी हालांकि एक शगल ही होता था पर बड़ा दिलचस्प शगल। क्या था कि लोक कवि के पड़ोसी जनपद के एक तपे तपाए स्वतंत्रता सेनानी थे त्रिपाठी जी। ख़ूब लंबे, ख़ूब काले। अपने समय के बड़े आदर्शवादी। इस आदर्शवाद के ही चलते शुरू-शुरू में त्रिपाठी जी देश के आजाद होने के बाद जब तमाम लोग चुनावी राजनीति की मलाई काटने लगे तो भी वह इससे दूर ही रहे। तमाम फर्जी स्वतंत्राता सेनानियों तक ने न सिर्फ चुनावी बिसात जीती बल्कि सरकार में मंत्री भी बन गए। त्रिपाठी जी फिर भी आदर्शवाद में डूबे इन टोटकों से दूर रहे। शुरू-शुरू में तो सब कुछ चल गया। बाद में दिक्कतें बढ़ने लगीं। बच्चे बड़े होने लगे पढ़ाई-लिखाई के खर्च भी बढ़ने लगे। वह एक बार हार कर एक चीनी मिल मालिक के पास गए जो उनको उनकी आदर्शवादी राजनीति के नाते जानता था, अपनी तकलीफ बताई। मिल मालिक सरदार था। देश भक्ति का जज्बा भी उसमें अभी बाकी था। त्रिपाठी जी की दिक्कत में उसने हाथ बंटाया और कहा कि जब तक उनके सारे बच्चे पढ़ नहीं जाते तब तक उनकी पढ़ाई-लिखाई के सारे खर्च की जिम्मेदारी उसकी। और उसने त्रिपाठी जी के लिए एक सालाना फंड तुरंत फिक्स कर दिया कंपनी के वेलफेयर फंड से। त्रिपाठी जी के बच्चों की पढ़ाई सुचारू रूप से होने लगी। लेकिन जैसे-जैसे बच्चों की उम्र बढ़ती गई, उनकी कक्षाएं बदलती गईं। उनकी पढ़ाई के खर्चे भी बढ़ते गए। लेकिन चीनी मिल के वेलफेयर फंड से बच्चों की पढ़ाई के लिए मिलने वाले फंड में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई।
यही रोना एक दिन त्रिपाठी जी एक दूसरे सरदार से रोने लगे। कहने लगे कि, ‘पहले चीनी मिल वाला सरदार आसानी से मिल लेता था अब पचास कर्मचारी उसको मिलवाने वाले। सभी नए। कोई मुझको जानता ही नहीं जो मुझे उससे मिलवा दे। मिलवा दे तो बताऊं कि भाई सारा खर्च, कापी किताब, फीस कहां से कहां निकल गया लेकिन तुम्हारा वेलफेयर फंड जस का तस है !’ जिस सरदार से यह रोना त्रिपाठी जी रो रहे थे वह सरदार भी ट्रांसपोर्टर था और उन दिनों ट्रकों के टायरों का भी परमिट चल रहा था। त्रिपाठी जी की एक आदत यह भी थी कि अकसर हांकते रहते कि फलां मंत्री, फलां अफसर मेरा चेला है। सो ट्रांसपोर्टर सरदार बोला कि, ‘पंडित जी फलां मिनिस्टर तो आपका चेला है?’
‘हां, है। बिलकुल है।’ त्रिपाठी जी पूरे ठसके से बोले।
‘तो आप हमारे लिए ट्रकों के टायरों के परमिट का पक्का इंतजाम उससे करवा दीजिए।’ सरदार बोला, ‘फिर मैं इतना कुछ इकट्ठे कर दूंगा कि आप को हर साल बच्चों की पढ़ाई वास्ते वेलफेयर फंड देखने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।’
‘तो ?’
‘तो क्या जाइए, आप परमिट लाइए। बाकी इंतजाम मैं करता हूं।’
त्रिपाठी जी ने छड़ी उठाई, गला खंखारा और पहुंच गए उस चेले मिनिस्टर के पास। उसने बड़े आदर सत्कार से त्रिपाठी जी को बिठाया। त्रिपाठी जी ने थोड़ा घुमा फिरा कर ट्रक के टायरों के परमिट की बात चला दी। उनका चेला मिनिस्टर उन की बात सुन कर मुसकुराया। बोला, ‘पंडित जी, आप के पास एक साइकिल तक तो है नहीं, ये ट्रक का टायर क्या करेंगे?’
‘पेट में भरूंगा!’ त्रिपाठी जी बम-बम स्टाइल में बोले, ‘मिनिस्टर बन गए हो तो दिमाग ख़राब हो गया है। नहीं जानते ट्रक के टायर का क्या करूंगा।’
मिनिस्टर ने त्रिपाठी जी से माफी मांगी और उन के परमिट ख़ातिर आदेश कर दिया।
त्रिपाठी जी का काम बन गया था।
लेकिन अब यह एक काम इस तरह हो जाने से त्रिपाठी जी के मुंह खून लग गया। अब वह इस तरह के काम ढूंढ़ते फिरते और कहते फिरते कि, ‘किसी को कोई काम हो तो बताना!’ धीरे-धीरे त्रिपाठी जी दलाली के काम के लिए मशहूर होने लगे। इस फेर में वह सुबह ही से घर छोड़ देते और देर रात घर पहुंचते। उन की पंडिताइन कभी कभार उनसे दबी जबान पूछतीं भी कि, ‘ए बड़कू क बाबू आखि़र आप कौन सी नौकरी करते हैं जो सुबह के निकले देर रात घर आते हैं ?’ वह अड़ोस पड़ोस का हवाला देती हुई बतातीं कि, ‘फलांने फलांने क बाबू लोग इतने बजे जाते हैं और एतने ही बजे घर भी आ जाते हैं ?’ फिर वह पूछतीं, ‘आप काहें सबसे पहले जाते हैं, और सबसे देर से आते हैं। और फिर छुट्टियों में छुट्टी भी नहीं मनाते हैं। इ कवन नौकरी है जो आप करते हैं !’
त्रिपाठी जी बेचारे क्या बताते? क्या यह बताते कि आदर्शवादी स्वतंत्राता सेनानी रहा यह तुम्हारा पति त्रिपाठी अब दलाली के लिए घूमता रहता है, दिन रात इधर-उधर! वह पंडिताइन से घुड़पते हुए कहते, ‘सो जाओ तुम नहीं समझोगी !’
एक बार लोक कवि को इन्हीं त्रिपाठी जी ने पकड़ लिया। कहने लगे, ‘सुना है ई मुख्यमंत्री तुम्हारी बात बहुत मानता है। हमारा एक काम करवा दो!’
‘का काम है पंडित जी?’ पांव छूते हुए लोक कवि ने पूछा।
‘बात ई है कि एक ठो बिजली विभाग का असिस्टेंट इंजीनियर है उसका ट्रांसफर रोकवाना चाहता हूं।’ वह बोले, ‘तुम जरा मुख्यमंत्री से कह दो बात बन जाएगी। हमारी इज्जत रह जाएगी!’
‘लेकिन मुख्यमंत्री जी तो आप को भी अच्छी तरह जानते हैं। आप सीधे कहेंगे तो आपका भी कहा टालेंगे तो नहीं ही!’ वह बोले, ‘आप सीधे कह दीजिए!’
‘अरे नालायक अब तुम मुझे पहाड़ा पढ़ा रहा है!’ त्रिपाठी जी लोक कवि से बोले, ‘तू बात तो ठीक कह रहा है। मुख्यमंत्री मेरी बात सुन लेगा।’ वह बोले, ‘मैंने कहा तो उसने सुना भी। और काम भी किया पर कहा कि अब इस विभाग का और कोई काम मत लाइएगा!’
‘मैं कुछ समझा नहीं त्रिपाठी जी!’ लोक कवि सचमुच कुछ नहीं समझे।
‘तो सुन अभागा कहीं का!’ त्रिपाठी जी उतावली में बोलते गए, ‘इस बिजली विभाग के एक जूनियर इंजीनियर ने अपना ट्रांसफर रुकवाने के लिए मुझे दस हजार रुपया दिया। हमने मुख्यमंत्री से कह दिया तो रुक गया ट्रांसफर उसका। अब उस जूनियर इंजीनियर के ऊपर है ई असिस्टेंट इंजीनियर। इसका भी ट्रांसफर हो गया है। जब जूनियर इंजीनियर का ट्रांसफर रुक गया तो इसको पता चला कि हमने रुकवाया है तो यह भी हमारे पास आया। बोला कि बीस हजार रुपए देंगे, हमारा भी ट्रांसफर रुकवा दीजिए।’ त्रिपाठी जी अफनाए हुए बोले, ‘और मुख्यमंत्रिया पहिलवैं मना कर चुका है!’ फिर वह अपनी किस्मत को कोसने लगे। कहने लगे, ‘यह भी साला अभागा था। उस जूनियर इंजीनियर से पहले यही साला मिला होता तो इसका भी काम हो गया होता और हमें भी पइसा ज्यादा मिल गया होता!’ कह कर वह अपना माथा ठोंकने लगे। लोक कवि से बोले, ‘कह सुन कर तुम्हीं करा दो!’
लोक कवि ने त्रिपाठी जी की दिक्कत समझी और उनकी पैरवी खुद तो नहीं की लेकिन करवा दिया था तब उनका काम !
इन्हीं त्रिपाठी जी का एक और शगल था। पुराना शगल। वह अकसर काफी हाऊस में बैठ जाते। काफी पीते, कुछ खाते भी। कोई जो और परिचित दीख जाता तो उसे भी बुला लेते, खिलाते पिलाते। तब जब कि पैसा उन की जेब में अकसर नहीं होता था। तो भी उनकी आदत थी जब तब काफी हाऊस में बैठना, लोगों को बुला कर खिलाना पिलाना। ऐसे जैसे वह बहुत बड़े नवाब या धन्ना सेठ हों। वह लोगों को बुलाते काफी पिलाते और पूछते, ‘कुछ खाओगे भी ?’ और जो वह हां कहता तो उसे खिलाते भी। फिर उससे पूछते, ‘तुम्हारे पास पैसे कितने हैं?’ और जो तब तक हो चुके बिल के बराबर उसके पास पैसे होते तो त्रिपाठी जी कहते, ‘बिल भर दो!’ और जो उसके पास बिल भर का पैसा नहीं होता तो भी त्रिपाठी जी पर कोई फर्क नहीं पड़ता, न ही उन के चेहरे पर कोई शिकन आती। वह उसी फराख़ दिली से तब तक सबको काफी पिलाते रहते, कुछ न कुछ खिलाते रहते, खाते रहते जब तक कोई पूरा बिल जमा करने वाला उन्हें काफी हाऊस में नहीं मिल जाता ! तब तक वह खुद भी नहीं उठते थे, बैठे रहते। इधर-उधर की गपियाते रहते। मजमा बांधे रहते। बेफिक्र ! काफी हाऊस के वेटर, मैनेजर भी बेफिक्र रहते। वह भी जानते थे कि त्रिपाठी जी के खाते का पैसा डूबेगा नहीं। किसी न किसी से तो वह पेमेंट करवा ही देंगे। ऐसे ही किसी न किसी में से पेमेंट करने वालों में लोक कवि भी थे। और अकसर। कई बार तो लोक कवि जान बूझ कर काफी हाऊस से होकर गुजरते और अंदर घुस कर झांक लेते कि त्रिपाठी जी की चौपाल लगी है कि नहीं। त्रिपाठी जी नहीं होते तो लोक कवि वहां से फौरन खिसक लेते। और जो होते वहां त्रिपाठी जी तो लोक कवि जाते उनके पास उनके पैर छू कर ‘पालागी !’ बोलते। कहते, ‘त्रिपाठी जी हम भी काफी पिऊंगा!’
‘हां, हां बिलकुल!’ कह कर त्रिपाठी जी, ‘लोक कवि के लिए भी काफी लाना भाई!’ की हांक लगा देते। लोक कवि जब काफी पी लेते तो त्रिपाठी जी उसी बेफिक्री से कहते, ‘लोक कवि पैसा वैसा रखे हो कि बैठोगे? किसी और के आने का इंतजार करें!’
अकसर लोक कवि कहते, ‘कहां पंडित जी हमारे पास पइसा कहां है?’ वह हंसते हुए कहते, ‘हम भी बैठूंगा थोड़ी देर आप के पास। अभी कोई न कोई आ जाएगा। काहें फिकिर करते हैं!’
‘हम को काहें की फिकिर।’ कह कर त्रिपाठी जी अपने ठहाकों में खो जाते। और उनकी पूरी महफिल। फिर धीरे से लोक कवि वेटर को बुला कर सारा बिल चुकता कर देते। ऐसे ही उस शाम काफी हाऊस में बैठे लोक कवि त्रिपाठी जी के ठहाकों को काफी के साथ पीते हुए गप सड़ाके में लगे थे कि उन्हें एक ऐसी सूचना मिली कि सूचना मिलते ही वह सन्न हो गए। काफी हाऊस का पेमेंट भी हरदम की तरह नहीं किया। और, ‘माफ करिएगा त्रिपाठी जी।’ कह कर वह उठ खड़े हुए।
लोक कवि के छोटे भाई का एक बेटा एड्स से पीड़ित हो गया था।
बहुत दिनों से वह बीमार चल रहा था। इलाज कराते-कराते घर के लोग हार गए थे। हार कर उसे इलाज के लिए लोक कवि के पास लखनऊ भेज दिया था घर वालों ने। यहां भी इलाज बेअसर हो रहा था। डाक्टर पर डाक्टर बदले गए पर इलाज कारगर नहीं हो रहा था। थक हार कर लोक कवि ने अपने एक कलाकार के साथ उसे मेडिकल कालेज भेजा। वहां शुरुआती जांच पड़ताल में डाक्टर को शक हुआ खून का टेस्ट करवाया। एच.आई.वी. पाजिटिव निकला। कलाकार रिपोर्ट जान कर घबरा गया। भागता-भागता लोक कवि के घर गया। वहां वह नहीं मिले तो विधायक निवास वाले गैराज पर गया, मिसिराइन के यहां गया फिर खोजते-खाजते काफी हाऊस आया। काफी हाऊस में लोक कवि मिल गए उसे। उस ने आव देखा न ताव बीच काफी हाऊस में लोक कवि के कान में बता दिया कि, ‘कमलेश को एड्स हो गया है। डाक्टर ने बताया है।’
यह सूचना सुनते ही लोक कवि झट खड़े हो गए। त्रिपाठी जी समेत और लोगों ने घबरा कर पूछा भी कि, ‘क्या हुआ लोक कवि ?’ लेकिन लोक कवि ने संयम बनाए रखा। बोले, ‘कुछ नहीं, कुछ घरेलू बात है।’
काफी हाऊस के बाहर वह आए और कलाकार को एक तरफ ले जा कर धीमे से पूछा, ‘उसको मालूम हो गया है ?’
‘किस को ?’
‘कमलेश को !’
‘नहीं गुरु जी !’
‘तो अभी बताना भी नहीं।’ लोक कवि बोले, ‘किसी को भी नहीं बताना।’
‘लेकिन गुरु जी कब तक छुपाएंगे ?’ कलाकार बोला, ‘कभी न कभी तो पता चल ही जाएगा !’
‘कैसे पता चल जाएगा ?’ लोक कवि बोले, ‘किसी को भी नहीं बताना।’
‘लेकिन गुरु जी कब तक छुपाएंगे ?’ कलाकार बोला, ‘कभी न कभी तो पता चल ही जाएगा !’
‘कैसे पता चल जाएगा ?’ लोक कवि उसे डपटते हुए बोले, ‘उसे आज ही इलाज के लिए बंबई भेज देता हूं। ठीक हो जाएगा तो ठीक हो जाएगा नहीं तो वहीं मर खप जाएगा।’
‘कौन ले जाएगा ?’
‘करता हूं कुछ इंतजाम।’ लोक कवि बोले, ‘लेकिन यह बात भूल कर भी किसी को न बताना। नहीं बड़ी बदनामी हो जाएगी।’ वह बोले, ‘इज्जत तो जाएगी ही जाएगी मार्केट भी चली जाएगी क्या डूब जाएगी। कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाएंगे। सो बेटा बात अपने तक ही रखना।’ लोक कवि ने यह बात उससे बड़ा पुचकार कर और उसकी पीठ ठोंकते हुए बड़े विनय भाव से कही। फिर जेब से पांच सौ रुपए निकाल कर उसे देते हुए बोले, ‘लो कुछ खर्चा-बर्चा रख लो।’
‘अरे नहीं गुरु जी इस की का जरूरत थी।’ पैसे लेते हुए, लोक कवि के पांव छूते हुए वह बोला।
‘यह बताओ कि कमलेश कहां होगा इस समय?’
‘घर पर ही होगा भरसक !’
‘ठीक है तुम चलो।’ कह कर लोक कवि ने रिक्शा लिया और बैठ कर घर चल दिए। वह इतना हड़बड़ा और घबरा गए थे कि इस अफरा तफरा में यह भी भूल गए कि वहीं पास में उनकी कार भी मय ड्राइवर के खड़ी है। ख़ैर, वह घर गए। कमलेश पर ख़ूब बिगड़े। उसकी काफी लानत मलामत की। लेकिन न तो घर वाले समझ पा रहे थे, न ही कमलेश कि आखि़र माजरा क्या है ?
अंततः उनकी पत्नी बीच में कूदीं कि, ‘आखि़र बाति का है ? का गलती हो गइल?’
‘तुम नहीं समझोगी, चुप रहो और भीतर जाओ।’ लोक कवि गुस्साए। बोले, ‘बहुत बड़ा पाप किया है। नाम डुबो दिया है परिवार का !’
‘पाप ! परिवार का नाम डुबो दिया !’ लोक कवि की पत्नी बुदबुदायीं, ‘का कह रहलि बाड़ीं आप।’
‘कहा कि तुम अंदर जाओ !’ लोक कवि ने पत्नी को डपटा।
‘ई बेमार लड़िका, काहें डांटत बाड़ीं।’
‘तुम चलो अंदर !’ अब की लोक कवि ने पत्नी को गुर्रा कर कहा। तो वह अंदर चली गई। तेज-तेज कदमों से। लगभग दौड़ती हुई।
‘तुम फौरन अपना बोरिया बिस्तर बांधो।’ कमलेश से लोक कवि बोले।
‘लेकिन त!’ कमलेश सहमा-सहमा बोला, ‘आखि़र त !’
‘कोई लेकिन, कोई आखि़र नहीं।’ लोक कवि भुनभुनाए। फिर बोले, ‘तुमने अब ऐसी बेमारी पकड़ ली है कि यहां इलाज नहीं हो सकता।’
‘त फिर ?’
‘घबराओ नहीं।’ लोक कवि ने कमलेश से पुचकार कर कहा, ‘तुम्हारा इलाज फिर भी कराऊंगा। लेकिन यहां नहीं बंबई में।’ वह बोले, ‘जितना पैसा खर्च होगा सब करूंगा। लेकिन बंबई में, यहां नहीं।’
‘लेकिन बीमारी का है ?’ कमलेश सहमा-सहमा बोला।
‘बीमारी का नाम तुमको बंबई का डाक्टर बताएगा।’ लोक कवि रुके और किचकिचाते हुए बोले, ‘जब पाप कर रहे थे तब नहीं बुझाया अब बीमारी का नाम पूछ रहा है?’
‘कब जाना है बंबई ?’ कमलेश थोड़ा कड़क होता हुआ बोला।
‘अभी और तुरंत ! अभी एक कलाकार को भेजता हूं।’ लोक कवि बोले, ‘बाद में तुम्हारे बाप को भेजता हूं।’ कह कर लोक कवि ने एक कलाकार को बुलवाया। कहा कि, ‘फौरन बंबई चलने की तैयारी करो !’
‘रिकार्डिंग है कि कार्यक्रम गुरु जी ?’ खुश हो कर कलाकार बोला।
‘कुछ नहीं है।’ लोक कवि खीझ कर बोले, ‘कमलेश को वहां के अस्पताल में दिखाने ले जाना है।’ कह कर लोक कवि ने कमलेश को पांच हजार रुपए दिए और कहा कि, ‘फौरन निकल जाओ और ये डाक्टरी पर्चा, रिपोर्ट वहां के अस्पताल के डाक्टर को दिखाना, ऊ भर्ती कर लेगा।’
‘आपका नाम बता दूंगा ?’ कमलेश ने पूछा।
‘किस को नाम बताओगे ?’
‘डाक्टर को।’
‘का वहां का डाक्टर हमारा रिश्तेदार लगता है ?’ लोक कवि भड़के, ‘वहां कौन जानेगा हमको ? कवनो लखनऊ है का !’ वह बोले, ‘किसी को भी हमारा नाम, गांव मत बताना। चुपचाप इलाज करवाना। ये डाक्टरी पर्चा ही सोर्स है। डाक्टर देखते ही भर्ती कर लेगा।’
‘किस अस्पताल में भर्ती होना पड़ेगा ?’
‘जसलोक, फसलोक, टाटा, पाटा बहुत अस्पताल हैं। कहीं भर्ती हो जाना।’ वह घबराए हुए बोले, ‘पर हमारा नाम कहीं भूल कर भी नहीं लेना।’ फिर लोक कवि ने कलाकार को एक कोने में ले जा कर समझाया कि, ‘इसको संभाल कर ले जाना। अस्पताल में भर्ती करवा कर चले आना। चपड़-चपड़ मत करना।’ कह कर उसे कुछ जाने आने की ख़ातिर किराया खर्चा कह कर दिया और कहा कि, ‘वहां मौका पा कर रंडियों के चक्कर में मत पड़ जाना।’ वह रुके और बोले, ‘और ई कमलेश से भी रपटना, चपटना नहीं। इसको बड़ा ख़तरनाक बेमारी हो गया है।’
‘एड्स हो गया है का गुरु जी ?’ कलाकार घबरा कर बोला।
‘चुप साले !’ लोक कवि बिगड़ते हुए बोले, ‘तुम डाक्टर हो ?’
‘नहीं गुरु जी।’ कह कर कलाकार ने उन के पांव छू लिए।
‘तो अंट शंट मत बका करो।’ लोक कवि ने कहा, ‘तुमको अपना ख़ास मान कर बंबई भेज रहा हूं।’ वह रुके और बोले, ‘ट्रेन में इस को दिक्कत न हो इसलिए तुम को साथ भेज रहा हूं। और वहां अस्पताल में इसको छोड़ कर तुम तुरंत चले आना। उसका तुरंत आना पक्का हो जाए इसलिए लोक कवि ने उसको भरमाया भी, ‘रिकार्डिंग की तैयारी करनी है और दो एक ठो लोकल कार्यक्रम भी हैं। इसलिए डाक्टर फाक्टर के चक्कर में मत पड़ना। तुम फौरन उसी दिन ट्रेन पकड़ लेना।’
‘अच्छा, ‘गुरु जी।’ कह कर वह रिक्शा बुलाने चला गया। फिर रिक्शे से कमलेश को ले कर स्टेशन चल पड़ा।
दूसरी तरफ लोक कवि ने अपने एक लड़के को गांव भेजा कि वह कमलेश के बाप को लखनऊ बुला लाए। ताकि समय से उसे कमलेश के पास बंबई भेजा जा सके। वह बुदबुदाए, ‘पता नहीं साला बचेगा कि मरेगा। और जो कहीं भेद खुल खुला गया तो मेरा सारा नाम, सारी इज्जत माटी में मिला देगा !’ वह रुके नहीं, बड़बड़ाए, ‘अभागा साला !’
दरअसल लोक कवि की सारी चिंता यह थी कि अगर लोगों को यह पता चल गया कि उन के परिवार में कोई एड्स रोगी है तो बदनामी तो होगी ही, कलाकार भागेंगे और कार्यक्रम भी ख़त्म हो जाएंगे। मारे डर और बदनामी के कोई बुलाएगा ही नहीं। फिर अचानक उनको ख़याल आया कि जो कलाकार कमलेश के साथ गया है, कहीं उस साले को पता चल गया और बात बे बात-बात उड़ा दे तो क्या होगा ?’
यह सोच कर ही वह घबरा गए। भाग कर खुद स्टेशन गए। उस कलाकार और कमलेश को बंबई जाने से रोका। और कमलेश से कहा कि अब तुम्हारा बाप गांव से आएगा, तभी जाना। उसको बुलवा भेजा है। फिर वह विधायक निवास वाले गैराज पर चले गए।
लोक कवि की परेशानी का कोई पार नहीं था!
वह सोचने लगे कि आखि़र कहां फंस गया यह? बाहर दिल्ली, बंबई तो दूर, गांव से बाहर नातेदारी, रिश्तेदारी छोड़ कहीं गया नहीं तो ई रोग पाया कहां से ये? उन की समझ से बाहर था यह।
उधर भंवर में कमलेश भी था।
लोक कवि की अफरा तफरी देख समझ तो वह भी गया था कि कुछ गंभीर रोग हो गया है। और यौन रोग। लेकिन एड्स हो गया है, अभी तक इस का भान नहीं था उसे। फिर भी रह-रह कर वह गांव के एक पंडित के बेटे को कोसने लगा!
भुल्लन पंडित का बेटा गोपाल !
एक समय भुल्लन पंडित गांव में न्यौता खाने के लिए बहुत मशहूर थे। विपन्नता में जीने के बावजूद वह बड़े ईमानदार, निष्कपट, बड़े सीधे, बड़े सरल थे। उनकी दो ही दिक्कत थी। एक विपन्नता, दूसरी, अच्छे भोजन की ललक। विपन्नता तो जस की तस थी उनकी और वह जाती नहीं थी। पर अच्छे भोजन की ललक उनकी न्यौते में जब तब पूरी हो जाती। चाहे शादी ब्याह हो, चाहे किसी के घर का गृह प्रवेश हो, चाहे किसी की मरन हो या पैदाइश उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था। नाम उनका भले ही भुल्लन तिवारी था पर यह सब बातें वह भूलते नहीं थे। कहीं भी, किसी भी प्रयोजन में न्यौता खाने के लिए वह और उनका लोटा हमेशा तैयार रहते।
बल्कि उनसे ज्यादा उनका लोटा मशहूर था। ख़ूब बड़ा, ख़ूब भारी। वह जाते न्यौता खाते फिर वापस आते समय लोटे में भरसक दही भरवा लेते, अंगोछे में चिउड़ा, चीनी बंधवा लेते फिर पान चबाते न्यौता खाने वालों का नेतृत्व करते वापस घर की ओर चल देते। यह सोच कर कि जल्दी चलें ताकि पंडिताइन की भी क्षुधा शांत हो चिउड़ा-दही से जो वह लोटे, अंगोछे में बांधे होते। क्यों कि न्यौता खाने जाने से पहले भुल्लन पंडित अपनी पंडिताइन को सख़्त आदेश दिए जाते थे कि ‘चूल्हा मत जरइहे, खाए के हम ले आइब!’ कह तो जाते पंडित भुल्लन तिवारी पर जरूरी नहीं होता था कि हर बार वापसी में उनके लोटे में दही और अंगोछे में चिउड़ा-चीनी बंधा ही हो। जजमान-जजमान पर निर्भर करता था। सो पंडिताइन लगभग कई बार भूखे पेट सोतीं। भुल्लन पंडित और उनका बेटा गोपाल तो सोहारी, तरकारी और चिउड़ा दही खा कर आते। डकार भरते। लेकिन पंडिताइन मारे भूख के पानी पी-पी कर करवट बदलतीं। लेकिन भुल्लन पंडित उन्हें चूल्हा नहीं जलाने देते। कहते, ‘भोजन अब बिहान बनी।’ पंडिताइन इस तरह बार-बार पानी पी-पी कर करवट बदलते-बदलते परेशान हो चली थीं सो बाद के दिनों में भुल्लन पंडित के जाने के बाद जल्दी-जल्दी चूल्हा जला कर चार रोटी सेंक कर खा लेतीं और चूल्हा फिर से लीप पोत देतीं ऐसे कि जला ही नहीं था। पर भुल्लन पंडित भी मामूली नहीं थे। न्यौता खा कर वापस आते और शक होते ही रसोई में जा कर वह मिट्टी का चूल्हा हाथ से छू-छू कर देखते। और जो हलका-हलका गरम मिलता और अगर नहीं भी मिलता तो भी वह चूल्हा छूते हुए कहते, ‘लगता है बुढ़िया चूल्हा जलाए थी!’ और यह कह-कह भुल्लन पंडित दो-तीन राउंड अपनी बुढ़िया से लड़ झगड़ लेते। ख़ास कर तब और जब वह लोटा भर कर दही और अंगोछा भर कर चिउड़ा-चीनी जजमान के यहां से पा कर लौटे होते।
भुल्लन पंडित की विपन्नता की इंतिहा यहीं तक नहीं थी। हालत यह थी कि गांव की राह से अगर कोई सिर मुड़ाए गुजर जाए तो उसकी ख़ैर नहीं होती थी। भुल्लन पंडित देखते ही उस बाल मुड़ाए को रोकते। रोक कर उसके गांव का नाम, कौन मरा, कब मरा, तेरही कब है ? आदि का ब्यौरा पूछ बैठते। ऐसे में कई बार लोग नाराज भी हो जाते। ख़ास कर तब और जब कोई मरा भी न हो फिर भी भुल्लन पंडित मरे हुए की जानकारी मांग लेते। पर किसी की नाराजगी से भुल्लन पंडित को सरोकार नहीं होता, उन्हें तो अपनी इस विपन्नता में मधुर भोजन से ही दरकार होता। मिल गया तो बहुत बढ़िया, नहीं मिला तो हरे राम!
भुल्लन पंडित के साथ अब उनका बेटा गोपाल भी न्यौता खाने में प्रवीण होता जा रहा था। भुल्लन पंडित और उनके बेटे गोपाल के बीच न्यौता खाने का एक शुरुआती प्रसंग तो गांव क्या उस जवार में बतौर चुटकुला चल पड़ा था। हुआ यह कि जैसे किसी बछड़े की ‘कुटाई’ के बाद हल जोतने में बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं, उसे ‘काढ़ना’ पड़ता है, प्रवीण बनाना पड़ता है, ठीक वैसे ही भुल्लन पंडित अपने इकलौते बेटे गोपाल को उन दिनों न्यौता खाने में ‘प्रवीण’ बना रहे थे।
एक बार किसी जजमान के यहां भोजन के समय जब ज्यादातर पंडित चिउड़ा दही सट-सट गटक रहे थे और फिर सोहारी तरकारी भी सरिया रहे थे, बिना पानी पिए तो ऐसे में गोपाल बार-बार पानी पी रहा था। गोपाल के बार-बार पानी पीने पर भुल्लन पंडित परेशान हो गए। कभी खांस-खंखार कर उसे पानी न पीने का संकेत दिया तो कभी कुहनी मार-मार कर। पर गोपाल हर दो चार कौर के बाद जाने क्या था कि पानी पी लेता था। बावजूद भुल्लन पंडित के कुहनी मारने, खांसने खखारने के। जजमान के घर से निकल कर रास्ते में रुक कर भुल्लन पंडित ने अपने बेटे गोपाल को इस बात पर तीन चार थप्पड़ लगाए। कहा कि, ‘ससुरे वहां पानी पीने गया था कि भोजन करने ?’
‘भोजन करने!’ गोपाल ने थप्पड़ खाते हुए बिलबिला कर भुल्लन पंडित को बताया।
‘तो फिर बार-बार पानी क्यों पी रहा था ?’ भुल्लन पंडित ने प्रतिवाद किया।
‘मैं पानी थोड़े ही पी रहा था।’
‘तो ?’
‘मैं तो तह जमा-जमा कर खा रहा था।’ गोपाल बोला। तो भुल्लन पंडित फिर उसे मारने लगे और कहने लगे, ‘जो ई बात थी तो ससुरा हम को भी बताया होता, हम भी तह जमा-जमा कर खाए होते!’ यह और ऐसे तमाम किस्से भुल्लन पंडित के गांव जवार में लोगों के लिए किंवदंती बन चले थे।
बहरहाल, बाद के दिनों में इन्हीं भुल्लन पंडित का बेटा गांव में चोरी चकारी के लिए मशहूर हो गया। तब जब कि भुल्लन तिवारी न्यौता खाने के मामले में जो भी यश-अपयश कमाए हों बाकी मामलों में उनके नाम पर कोई एक भी दाग लगाए नहीं लगता था। उनकी शराफत के किस्से भी उनके न्यौता खाने वाले किस्से के साथ ही चलते। भुल्लन पंडित धर्मभीरू भी बहुत थे। इतना कि जैसे गन्ने के खेत में पड़ा गन्ने का पत्ता आदि लोग जला देते। पर भुल्लन पंडित अपने गन्ने के खेत का पत्ता जलाते ही नहीं थे। वह कहते, ‘पत्ता जलाएंगे तो साथ-साथ पता नहीं बेचारे कितने कीड़े मकोड़े भी जल जाएंगे।’ वह जोड़ते, ‘कीड़े मकोड़े भी आखि़र जीव हैं। काहें जलाएं बेचारों को।’
पर समय भी अजीब चक्र चलाता है। इन्हीं भुल्लन पंडित का बेटा जैसे-जैसे बड़ा हो रहा था, चोरी लुक्कड़ई में उस का नाम बढ़ता जा रहा था। पुलिस केस भी शुरू हो गए थे।
ब्राह्मण की विपन्नता उसे अपराधी और लंपट बना रही थी।
इतना कि भुल्लन पंडित परेशान हो गए। इसी परेशानी में कुछ लोगों ने उन्हें सलाह दी कि वह गोपाल की शादी करवा दें। शायद शादी के बाद वह सुधर जाए। भुल्लन पंडित ने ऐसा ही किया। गोपाल की शादी करवा दी। शादी के बाद साल छ महीने तो गोपाल जवानी का मजा लूटने के बहाने सुधरा रहा, चोरी चकारी छूटी रही। लेकिन ज्यों उसकी बीवी गर्भवती हुई, सेक्स के पाठ लायक नहीं रही, गोपाल फिर अपराध की राह पर खड़ा हो गया।
हार कर भुल्लन पंडित ने कुछ खेत गिरवी रख कर पैसा लिया और पासपोर्ट वगैरह बनवा कर गांव के ही एक व्यक्ति के साथ गोपाल को बैंकाक भेज दिया। बैंकाक जा कर भी गोपाल की लुक्कड़ई वाली आदत तो नहीं गई पर पैसा वह जरूर कमाने लगा। और ख़ूब कमाने लगा।
कमलेश इसी गोपाल का पक्का दोस्त था। कमलेश गोपाल के साथ अपराध में तो नहीं पर लोफरई में जरूर हिस्सेदार रहता। गोपाल उन्हीं दिनों बैंकाक से आया था। गांव में एक बरई परिवार था जो पान वगैरह का छिटपुट काम करता था। उस बरई का एक लड़का दिल्ली की किसी फैक्ट्री में काम करता था। और उसकी बीवी गांव में ही रहती थी। ख़ूबसूरत थी और दिलफेंक भी। कोइरी जाति के एक लड़के से गुपचुप फंस गई।
वह कोइरी अकसर रात को उसके घर में घुस कर घंटों पड़ा रहता। घर छोटा था सो घर के सभी लोग अमूमन घर के बाहर दुआर पर ही सोते। वह चूंकि नई दुल्हन थी सो घर के भीतर सोती। आधी रात को धीरे से वह जब-तब किंवाड़ खोल देती और कोइरी भीतर चला जाता। दरवाजा बंद हो जाता। फिर भोर में खुलता।
यह बात गोपाल तिवारी को कहीं से पता चल गई। सो गोपाल ने भी मूंछ के बाल पर कई बार ताव फेरा। उस बरई की बीवी के फेरे मारे, प्रलोभन फेंके। बैंकाक का झांसा दिया। पर सब बेअसर रहा। बरईन गोपाल की बांहों में आने से कतरा गई।
आखि़र दिल का मामला था। और उसका दिल उस कोइरी पर आया था।
लेकिन गोपाल पर बैंकाक के पैसे का नशा सवार था। हार मानने को वह तैयार नहीं था। अंततः कमलेश के साथ मिल कर उसने एक योजना बनाई। योजना के मुताबिक एक रात सीढ़ी ले कर गोपाल और कमलेश बरई के घर के पिछवाड़े पहुंच गए। कमलेश ने नीचे सीढ़ी पकड़ी और गोपाल सीढ़ी चढ़ कर बरई के आंगन में कूद गया। बरई की बहू सोई पड़ी थी। गोपाल जा कर उसके पास लेट गया पर वह अफना कर उठी और खड़ी हो गई। गोपाल के साथ हमबिस्तर होने से खुसफुसा कर ही सही, हाथ जोड़ कर इंकार कर दिया। गोपाल ने पैसे आदि का लालच दिया। फिर भी वह नहीं मानी। तो कोइरी के साथ उसके संबंधों का भंड़ाफोड़ करने की धमकी दी गोपाल ने तो वह थोड़ा सा डिगी। पर मानी फिर भी नहीं और कहा कि निकल जाओ नहीं तो शोर मचा दूंगी। पर गोपाल भी एक घाघ था। बोला, ‘मचाओ शोर, मैं भी कह दूंगा कि तुमने मुझे बुलाया था!’ वह बोला, ‘फिर कोइरी वाली बात भी बता दूंगा। गांव में जी नहीं पाओगी !’
हार गई वह इस धमकी के आगे। लेट गई वह गोपाल तिवारी की देह के नीचे। फिर तो गोपाल तिवारी अकसर बरई के घर सीढ़ी लगाने लगा। सीढ़ी पकड़ते-पकड़ते कमलेश की भी जवानी उफान मारने लगी। कहने लगा, ‘गोपाल बाबा हमहूं!’ पर गोपाल बाबा ने उसे मना कर दिया। कहा कि, ‘जब मैं वापस बैंकाक चला जाऊंगा तब तुम सीढ़ी चढ़ना!’
और सचमुच गोपाल बाबा के बैंकाक जाने के बाद ही कमलेश सीढ़ी चढ़ा। ठीक गोपाल वाली स्थिति कमलेश के साथ भी घटी। बरई की बीवी ने इसे भी मना किया। पर कमलेश ने गोपाल की तरह ज्यादा समय नहीं लगाया। सीधे प्वाइंट पर आ गया कि, ‘भेद खोल दूंगा। भंडा फोड़ दूंगा।’
फिर वह कमलेश के लिए भी लेट गई।
जैसे गोपाल की सीढ़ी नीचे कमलेश पकड़ता था, ठीक वैसे ही कमलेश की सीढ़ी एक हरिजन रामू पकड़ता था। रामू था तो शादीशुदा और अधेड़। हल जोतता था एक पंडित जी का पर एक पैर से भचकता था, लगभग लंगड़ा कर चलता था। बावजूद इस सब के वह भी रसिक था सो कमलेश के लिए सीढ़ी पकड़ता था इस साध में कि एक दिन उसका नंबर भी आएगा ही। वह अकसर कमलेश से चिरौरी भी करता, ‘कमलेश बाबू आज हम !’ ठीक वैसे ही जैसे कमलेश कभी गोपाल की चिरौरी करता था, ‘गोपाल बाबा आज हमहूं !’ पर जैसे गोपाल कमलेश को टालता था, वैसे ही कमलेश रामू को।
पर एक दिन क्या हुआ कि बरई के घर के पीछे सीढ़ी लगी हुई थी। लंगड़ा रामू मय सीढ़ी के था और उधर कमलेश बरई की बीवी के साथ आंगन में संभोगरत था। गांव के किसी यादव परिवार की औरत बीच आधी रात शौच के लिए गांव में पास के पोखरी की ओर गई। तभी उसने बरई के घर के पीछे सीढ़ी लगी देखी। मारे डर के वह बोली नहीं। शौच भी उसका रुक गया और भाग कर घर आ गई। दुबक कर सो गई। पर रात भर उसे नींद नहीं आई।
सुबह उसने सोचा कि बरई के घर में चोरी की ख़बर सारा गांव अपने आप जान जाएगा। पर चोरी की ख़बर तो दूर चोरी की चर्चा भी नहीं थी। गांव में तो क्या बरई के घर में भी नहीं थी चोरी की चर्चा। मतलब चोरी हुई ही नहीं? उसने सोचा। पर सीढ़ी तो लगी थी रात, बरई के घर के पीछे। फिर उसने सोचा जैसे वह डर कर भागी, हो सकता है चोर भी उसे देखे हों और डर कर भाग गए हों। फिर उसे लगा कि मौका तड़ कर चोर फिर चोरी कर सकते हैं बरई के घर में। आखि़र लड़का दिल्ली कमा रहा है। सो बरई को आगाह तो वह कर ही दे, गांव वालों का भी बता दे कि चोर गांव में आ रहे हैं। सो उसने खुसुर-फुसुर स्टाइल में यह बात गांव में चला दी। बात की आंच कमलेश के कान तक भी पहुंची। सो कुछ दिन तक वह सीढ़ी के खेल को भूले रहा। कुछ दिन बीत गए तो उसने सीढ़ी लगाई और बरई के घर के पीछे पर खुद नहीं चढ़ा। सोचा कि पहले ट्राई करवाएं। सो रामू लंगड़े से कहा कि, ‘बहुत परेशान रहले बेटा आज जो तें चढ़!’ रमुआ ने आव देखा न ताव भचकते हुए सीढ़ी चढ़ गया। अभी वह सीढ़ी चढ़ कर खपरैल तक पहुंचा ही था कि कोई ‘चोर-चोर’ चिल्लाया। देखते-देखते यह ‘चोर-चोर’ की आवाज एक से दो, दो से तीन और तीन से चार बढ़ती गई। कमलेश तो सिर पर पांव रख कर भाग लिया पर रमुआ खपरैल पर बैठे-बैठे ही रंगे हाथ पकड़ा गया। वह लाख कहता रहा, ‘हम नाहीं, कमलेश !’ वह जोड़ता भी रहा, ‘कमलेश नाहीं गोपाल बाबा भी !’ पर उसकी सुनने वाला कोई नहीं था। क्यों कि गोपाल तो गांव में ही नहीं था, बैंकाक चला गया था और कमलेश अपने घर ‘गहरी नींद’ सोता पाया गया। सो सारी बात रमुआ पर आई। बेचारा मुफ्त पीटा गया। लेकिन चूंकि बरई के घर का कोई ‘सामान’ नहीं गया था सो पुलिस तक बात नहीं गई और गांव में ही रमुआ को मार-पीट कर मामला निपटा दिया गया।
पर मामला तब सचमुच कहां निपट पाया था भला ?
मामला तो अब उठा था। गांव में एक साथ सात-सात लोग एड्स से छटपटा रहे थे। खुले तौर पर। एड्स के बीज गोपाल ने बोए कि बरई के उस लड़के ने जो दिल्ली में रहता था, इस पर मतभेद था। पर एड्स बांटने का सेंटर बरई की बहू बनी इसमें कोई दो राय नहीं थी। फिर भी ज्यादातर लोगों की राय थी कि गांव में एड्स के तार भुल्लन तिवारी के बेटे गोपाल तिवारी के मार्फत आए।
बरास्ता बैंकाक।
फिलहाल तो बैंकाक से गोपाल तिवारी के एड्स से मरने की ख़बर गांव में आ गई थी और गोपाल तिवारी की बीवी एड्स से छटपटा रही थी। साथ ही बरई की बहू, बरई का बेटा, बरई की बहू से संबंध रखने वाला वह कोइरी, इस कोइरी की बीवी और इधर कमलेश सभी एड्स की चपेट में थे। लोक कवि के गांव में बाकी लोग भी जो बैंकाक, दिल्ली, बंबई या जहां भी कहीं बाहर थे सब के सब शक के घेरे में थे।
उन्हें एड्स हो, न हो पर एड्स के घेरे में तो सब थे।
भुल्लन तिवारी पर तो जैसे आफत ही आ गई थी। बेटा एड्स की तोहमत ठोंक कर मर चुका था। और कहीं कीड़े मकोड़े जल न जाएं इस भय से गन्ना का पत्ता भी न जलाने वाले भुल्लन तिवारी इन दिनों जेल में न्यौता खा रहे थे। पट्टीदारों ने उन्हें एक हत्या में फंसा दिया था।
लेकिन लोक कवि एड्स फेड्स के फेरे में फंसने वाले नहीं थे। अंततः उन्होंने अपने छोटे भाई को गांव से बुलवा कर सब कुछ बड़ी संजीदगी से समझाया। मान मर्यादा का वास्ता दिया। बताया कि, ‘बड़ी मुश्किल से नाम दाम कमाया है इसको एड्स के झोंके में डुबोओ मत!’ फिर रुपया पैसा दे कर बाप बेटे को बंबई भेज दिया। बता दिया कि, ‘ठीक हो जाए या मर खप जाए तभी आना। और कोई जो पूछे कि का हुआ, या कैसे मरा ? तो बता देना कैंसर था।’ वह बोले, ‘मैंने पता करवा लिया है कि यह बीमारी आहिस्ता से और जल्दी से मारती है।’ उन्होंने जोड़ा, ‘बता देना ब्लड कैंसर! इसमें भी कोई बचता नहीं है।’
….जारी….
उपन्यासकार दयानंद पांडेय से संपर्क 09415130127, 09335233424 और [email protected] के जरिए किया जा सकता है. इसके पहले के भाग को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- LKAGN part 5