वीओआई की कहानी त्रिवेणी मीडिया के रीजनल न्यूज चैनलों के हेड रहे आशीष मिश्र की जुबानी : वॉयस ऑफ इंडिया चैनल आखिरकार बंद हो गया। इसमें कोई दो-राय नहीं कि अपने जन्म के समय से ही ये चैनल अपनी मौत की बाट जोहने लगा था। ये मैं इसलिए कह रहा हूं क्योकि मैंने रेत पर बने इस महल को बहुत करीब से देखा था। मैंने इसके मालिक मधुर मित्तल को देखा। कई-कई संपादकों को देखा। तमाम योजनाओं को बनते- बिगड़ते देखा। देखा कि कैसे बिना सिर-पैर की तैयार होती हैं योजनाएं। देखा कैसे एक मूर्ख मालिक के तुगलगी फरमान को अमल में लाने के लिए हाथ बांघे खड़ी रहती है संपादकों की फौज। देखा, सब कुछ देखा। जब नहीं देखा गया तो जैसा भी छोटा- बड़ा प्रतिरोघ कर सकता था किया और अलग हो गया। क्या करता, देख कर तो मक्खी निगली नहीं जाती। वहां जो कुछ हो रहा था या जो कुछ करने की मंशा जताई जा रही थी, उसका हश्र कुछ ऐसा ही होना था। ऐसा नहीं कि वीओआई की इस त्रासदी का जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ मधुर मित्तल हैं।
किरदार और भी रहे। हां, सामने मधुर मित्तल ही रहे। मधुर मित्तल एक व्यापारी हैं। वो बाज़ार के हर उस प्रपंच को समझते होंगे जिससे रुपए में आठ चवन्नी भुनाई जा सके। इसमें गलत क्या है। यही तो व्यापार धर्म है। दिक्कत ये है कि अगर मधुर मित्तल अपनी राह से नहीं डिगे तो हम यानी पत्रकार बिरादरी कैसे अपने रास्ते से भटक गई? क्यों नहीं उनकी गलत बात को उस वक्त रोका गया जब उसे रोका जा सकता था? मेरी बात हो सकता है बहुत से लोगों को नागवार गुजरे लेकिन माफ कीजिएगा वीओआई के इस हाल के लिए हम यानी पत्रकार बिरादरी भी कुछ कम जिम्मेदार नहीं। वीओआई अकेला ऐसा चैनल होगा जिसने अपनी जिंदगी में ऑन एयर रह कर कम वक्त गुज़ारा, ऑफ एयर रह कर ज्यादा। वहां नामचीन और तजुर्बेकार पत्रकारों की फौज रही। फिर गड़बड़ क्यों हुई? चलो वहां कभी भी सब कुछ ठीक ठाक रहा होता तो भी मान लिया जाता कि बाद में मधुर मित्तल हर चीज में घुसे तो गड़बड़ हुई। कभी वहां स्टूडियो को लेकर, कभी एडिट मशीन तो कभी कैमरों को लेकर बवाल मचा। काम करने वाले परेशान। एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगे लेकिन माहौल तो खराब ही हुआ। कभी किसी ने गंभीरता से ये कोशिश नहीं की कि चैनल के शुरू होते ही ही ऐसा क्यों हो रहा है, कहीं कोई चूक तो नहीं रह गई। सब परेशान। किसी के समझ में नहीं आ रहा था कि किया क्या जाए।
दरअसल असली समस्या कहीं और थी। वीओआई के शुरुवाती दौर में चैनल से ज्यादातर ऐसे लोग जुड़े जिन्हें चैनल शुरू करने का तजुर्बा नहीं के बराबर था। उन्हें तजुर्बा था एक बने बनाए सेटअप में काम करने का। सिर्फ मशीनें लगा देने से चैनल नहीं चल जाता। बाकी कामों की तैयारी क्या थी? वीओआई का राष्ट्रीय चैनल ऑन एयर था और वहां लाइब्रेरी में सुप्रीम कोर्ट का विज़ुअल नहीं, कौन जिम्मेदार था? ये बानगी इसलिए ताकि ये पता चल सके कि शुरू से ही इस चैनल की दशा और दिशा क्या थी। पहला चैनल चला नहीं, दूसरा चालू कर दो। किसी भी संस्थान में कनिष्ठ तो नौकरी करते ही हैं अगर वरिष्ठ भी सिर्फ अपनी नौकरी बचाने के लिए चाकरी करने लगे तो ऐसे लोगों को क्या कहा जाए।
मधुर मित्तल ने कभी तो ज़रूर इन पत्रकारों पर भरोसा किया था। उन्हें साइनिंग एमांउट सहित मोटी पगार, लम्बी गाड़ियां, सब कुछ जो इन्हें चाहिए था, दिया। फिर चीजें ठीक क्यों नहीं थीं? समय के साथ दबाव बढ़ा, नतीजा देने का वक्त आया तो उन चीजों को एक्सक्यूज़ की तरह पेश किया जाने लगा जिन्हें वक्त रहते संभाला गया होता तो शायद कुछ उम्मीद बची रहती। राम कृपाल जी गए, रविशंकर आए, फिर बादल जी ने कमान संभाली लेकिन हुआ क्या। सबने अपनी-अपनी की। हालात बद से बदतर होते गए। कई राज्यों में चुनाव आ गए। कमाई का समय था। चैनल में अचानक ही धंधेबाज सक्रिय हो उठे। कैसे चुनाव में धंधा हो सकता है, नए-नए फार्मूले इजा़द होने लगे। स्टेट ब्यूरो के चीफ तलब किए गए, हुक्म हुआ इतना धंधा चाहिए, कैसे करोगे। सारे संपादक भी माथापच्ची करते रहे, कितना निकल जाएगा, कितना कहां से आएगा। सबको अपनी नौकरी बचाने की फिकर। किसी को तब मधुर मित्तल में बुराई नज़र नहीं आई। तब सबको अगली नौकरी तक उसका साथ बने रहने की फिक्र थी। तब मधुर मित्तल उनकी ज़रूरत थे इसलिए जैसे भी हों, ठीक थे। किसी को तब ये महसूस नहीं हुआ कि ये खेल बहुत ख़तरनाक है। क्या होगा इसका अंजाम। बड़े चैनलों के ठप्पे के साथ जो लोग आए थे, वो जिसके सहारे आए थे, उन्होंने उन्हे फिर से फिट करा दिया लेकिन किसी को ये ध्यान नहीं रहा कि उन लोगों का क्या होगा जो एक चैनल में काम करने आए थे। त्रिवेणी मीडिया स्कूल के वो बच्चे भी इन लोगों में शामिल थे जो एक मोटी रकम अपनी पढ़ाई और जॉब गारंटी के एवज़ में देकर आए थे। क्या उन लोगों के बारे में सोचना या उनके साथ रचे जा रहे प्रपंच के लिए इन संपादकों की कोई जिम्मेदारी नहीं थी। मालिक को किसने पढ़ाया था कमाई का ये फलसफा।
खैर, समझदार लोग अपना अपनी जुगाड़ बैठा कर जहां जिसको जैसी जगह मिली निकलते गए, कुछ फिर भी नहीं जा रहे थे तो बेइज्जत हुए, फिर गए। उन्हें जाना ही था। मधुर मित्तल को भी ये समझ में आ गया था कि अब चीजें उनके काबू से बाहर चली गईं हैं। इतना रायता फैल चुका था कि उसे समेटना किसी के बस की बात थी नहीं। कहीं ब्यूरो बंद तो कहीं मकान मालिक किराए के बदले दफ्तर का सामान उठा कर ले जाने लगा। पूरी तरह अराजकता का माहौल। हर वरिष्ठ न्यूज़रूम में मालिक से असहमत, लेकिन मीटिंग में उसके सामने उसकी हर बात पर सहमत। बड़ा अजीबोगरीब मामला था बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे। चीखना चिल्लाना, गाली गलौच यहां तक कि मारपीट भी चैनल की कार्यसंस्कृति का हिस्सा बन गई। कुंठित सब थे परेशान सब थे पर पहल कोई नहीं करना चाहता था।
इस कुंठित और मजबूर चुप्पी ने मधुर मित्तल को अपनी मनमानी करने का भरपूर हौसला दिया। इस बीच चैनल ने एक बार फिर पलटी खाई। अचानक टेलीविज़न की दुनिया में एक नया नाम सामने आया, अमित सिन्हा का। लगा शायद किशोर मालवीय के साथ मिल कर वो सब कुछ ठीक करने आए हैं। वोओआई के लोगों के चेहरे पर एक बार फिर सुकून देखने को मिला। लेकिन जल्द ही ये साफ होने लगा कि वीओआई कर्मचारियों के साथ एक नया छल खेला जा रहा था। खबरें कई आईं कि अब अमित जी चैनल संभालेंगे, सब ठीक हो जाएगा। चैनल के बारे में वो ख़बरें अब बाज़ार में, वेबसाइट्स पर आनी बंद हो गईं, जो नहीं अनी चाहिए थीं। लेकिन ये खेल सेटिंग का था। हकीकत में वहां बदला कुछ नहीं था। पुराने संपादकों की जगह नए संपादकों ने ले ली थी और अब मधुर मित्तल की जगह अमित सिन्हा ले चुके थे। फिर मार्केटिंग की नई परिभाषाएं तय हो रही थीं, फिर चारण संपादकों का एक नया जखीरा तैयार हो रहा था। सच से मुंह कब तक चुराया जा सकता है। वही हुआ जो सच था। हम दोषी किसे मानें। पत्रकारिता की दुनिया में ढेरों मधुर मित्तल हैं। लेकिन एक मधुर मित्तल के बाद दूसरा पैदा होता है तो उसमें कहीं न कहीं हम आप यानी पत्रकार बिरादरी भी जिम्मेदार होते हैं। जरा गौर कीजिएगा मेरी बात पर और अपने आप से ज़रूर ये सवाल पूछिएगा।
खैर, वीओआई एक इतिहास है और ज़रूरत इस बात की है कि इस इतिहास से सबक लिया जाए। ये सिर्फ एक वीओआई की कहानी नहीं है। ये रेतीली बुनियाद पर खड़ी उस पत्रकारिता की कहानी है जो आज की हकीकत है। मेरा आग्रह है उन तमाम मधुर मित्तलों और उन तमाम संपादकों से जिन्होंने वीओआई की इबारत लिखी। कृपया ऐसे प्रयोगों को दुहराने से पहले जरा उन चेहरों के बारे में ज़रूर सोचिएगा जो हो सकता है आपके आगे पीछे न घूमते हों लेकिन उनके भी घर हैं उनके भी परिवार है उनकी भी जिम्मेदारियां हैं। वीओआई के बहाने ही सही, कम से कम टेलीविजन पत्रकारिता और पत्रकारों को खुद के गिरेबां में झांकने का मौका तो मिलेगा। और हो सकता है यहीं से कोई नई शुरुवात हो।
लेखक आशीष मिश्र टीवी और प्रिंट वरिष्ठ जर्नलिस्ट हैं. उनसे संपर्क करने के लिए 09899152489 या [email protected] का सहारा ले सकते हैं.