धनराज यादव नहीं रहे। इतना बड़ा नाम नहीं था और न ही इतना आभामंडल कि लोग धनराज यादव को जानें। प्रोफाइल इतनी है कि यूपी में जब-जब बीजेपी की सरकार बनी, तब-तब वो मंत्री थे। कभी राज्यमंत्री तो कभी कैबिनेट मंत्री। मेरा उनसे दोहरा नाता था। एक तो वो जिस नौगढ़ विधानसभा क्षेत्र से चुनकर मंत्री और विधायक बनते थे, उसी क्षेत्र में मेरा गांव भी था। हमारे परिवार से उनका गहरा जुड़ाव था। दूसरा रिश्ता व्यक्तिगत था। 1996 में मेरी उनसे पहली मुलाकात हुई थी।
वो विधायक थे और उस वक्त मैं विचार मीमांसा नाम की राजनीतिक पत्रिका का लखनऊ में यूपी ब्यूरो चीफ था। बहुत कम जानता था धनराज यादव के बारे में। किस्तों में जाना और अच्छी तरह से जाना। घर आना जाना था। धनराज यादव खांटी जमीन से जुड़े शख्स थे। शायद प्राइमरी पास भी नहीं रहे होंगे, लेकिन जिंदगी का लम्बा वक्त उन्होंने पढ़ने लिखने में ही बिताया। महाभारत और रामायण उन्होंने दर्जनों बार पढ़ा और जब भी कोई सवाल उन्हें बेचैन करता तो उसका उत्तर लिए बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता था। बड़े-बड़े संत महात्माओं के पास जाते, बड़े नेताओं के पास जाते। बीजेपी में टिकट पाने वाले अप्लीकेशन में एक कॉलम शिक्षा का भी था। धनराज यादव अप्लीकेशन के साथ शिक्षा का एक पन्ना नत्थी कर आए थे। उसमें उन्होंने लिखा था-
मैं शिक्षित और प्रशिक्षित हूं, सदा सीखते रहने का इच्छुक हूं
मेरे विश्वविद्यालय के कुलपति-गोलवलकर जी, प्रोफेसर-दीनदयाल उपाध्याय
विषय- राष्ट्र, धर्म- सामाजिक समता, ममता और एकता
लखनऊ में मुलाकातें बढ़ने लगीं, मुझे भी मजा आता था, क्योंकि धनराज यादव बहुत अच्छे इंसान थे। इस बीच वो सिंचाई राज्यमंत्री भी बन गए थे। रोज का सचिवालय जाना होता था था, धनराय यादव मुलाकातें भी होने लगीं। वो रिवाल्विंग चेयर पर नहीं बैठते थे। सामान्य कुर्सी थी। सबके लिए दरबार खुला था..। कोई पीआरओ नहीं रखा था। काम को लेकर उनमें गजब की चाहत थी। एक बार उनके दफ्तर में मैं और मेरे मित्र शील कुमार शुक्ला बैठे थे। एक सज्जन आए, एक ट्रांसफर का अप्लीकेशन लेकर। बहुउद्देशीय कर्मचारी का ट्रांसफर था, घर से तीस किलोमीटर दूर पोस्टिंग थी, अप्लीकेशन थी कि चार किलोमीटर के भीतर पोस्टिंग हो जाए। धनराज ने पूछा-क्यों भाई।
सज्जन ने तर्क दिया कि वो पार्टी के कार्यकर्ता हैं और जिसकी अप्लीकेशन है उसके छोटे-छोटे बच्चे हैं।
धनराज बोले-जो लोग गांव से दिल्ली, मुंबई कमाने जाते हैं, फुटपाथ पर भूखे पेट सो जाते हैं, उनके छोटे-छोटे बच्चे नहीं हैं? मैं नहीं करूंगा ये काम। पहले तो नौकरी चाहिए, फिर गांव में चाहिए और फिर ऐसा हो कि काम ही न करना पड़े।
कार्यकर्ता थोड़ा गरम हुआ। वोट की दुहाई दी। धनराज भावुक हो गए थे, आंखें भर आई थीं, मुझसे मुखातिब होकर बोले-इस कुर्सी पर बैठकर हम लोग पाप कर रहे हैं। मैं जा रहा हूं माननीय कल्याण सिंह के पास कि ये लो अपनी लकुट कमरिया..।
यकीन मानिए धनराज यादव उस दिन इस्तीफा दे आते, हम लोगों ने मनाया। एक दिन उन्होंने वाकई कमाल कर दिया। उनके दफ्तर में गप्प चल रही थी। बातों बातों में सुरक्षा का मामला आया। मैंने कहा-सुरक्षा फैशन है। लाल बत्ती के साथ वर्दीधारी सुरक्षा गार्ड रखना शान की बात है। तर्क ये भी दिया कि इंदिरा गांधी, राजीव गांधी को भी उनके सुरक्षा कर्मी बचा नहीं पाए। बस धनराज को ताव आ गया। पीए को बुलाकर उन्होंने उस वक्त के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को चिट्ठी लिखवाई कि उनकी सुरक्षा व्यवस्था अविलम्ब वापस ले ली जाए, जनता से उन्हें कोई खतरा नहीं है। वो अकेले ऐसे मंत्री थे, बाद में कैबिनेट मंत्री भी बने, जिसके पास पुलिस स्कोर्ट नहीं थी।
धनराज यादव की ईमानदारी के बहुत किस्से प्रचलित हैं। लेकिन ईमादारी से ज्यादा गंभीर थी उनकी साफगोई। साफ साफ बोलते थे, कई लोगों को बुरा भी लग जाता था। सच स्वीकारते भी थे। एक दिन किसी संदर्भ में बोले- मुझे गोलवलकर जी मिल गए, ज्ञान मिल गया नहीं तो मैं जब ग्राम प्रधान था.. घूस लेता था, बिना अठन्नी लिए किसी का खेत नपवाने नहीं जाता था। बताते चलें कि धनराज 27 साल तक निर्विरोध प्रधान रहे। 1967 में पहली बार विधायक बने थे। पांच बार वो विधायक रहे।
एक बार वो दफ्तर से निकल रहे थे, तभी सिंचाई विभाग के एक अफसर कुछ फाइलें लेकर आ गए। बोले-सर, बस इसमें चिड़िया बैठवानी है। भड़क गए धनराज यादव। बोले-मैं चिड़िया नहीं बैठाता, हस्ताक्षर करता हूं। और आंख मूंदकर हस्ताक्षर नहीं करता। आइंदा मुझसे ऐसी बात मत कीजिएगा। अफसर का मुंह देखने लायक था।
कल्याण सिंह सरकार में धनराज यादव सिंचाई राज्यमंत्री थे और ओमप्रकाश सिंह सिंचाई मंत्री। धनराज के पास खूब वक्त बचता था और उसका वो बहुत सदुपयोग करते थे। शास्त्र पर चिंतन और चर्चा करने वो पहुंच जाते थे रामप्रकाश गुप्ता के पास। जो उस वक्त बिल्कुल खाली थे। घर में बैठे रहते थे। धनराज यादव उनके यहां नियमित जाते थे, वहां खाना भी खाते थे। वक्त ने करवट बदली, अचानक रामप्रकाश गुप्ता मुख्यमंत्री बन गए। धनराज की प्रोफाइल तो नहीं बदली, काम बढ़ गया। पहले परिवार के साथ रामप्रकाश गुप्ता ही आते जाते थे। लेकिन ये काम अब धनराज यादव करते थे।
वो मेरे गर्दिश के दिन थे। विचार मीमांसा बंद हुए अरसा गुजर गया था। एकाध और पत्रिका का प्रयोग हुआ, लेकिन नतीजा बर्बादी ही था। जब रामप्रकाश गुप्ता मुख्यमंत्री बने तो मैं उस वक्त राष्ट्रीय स्वरूप अखबार में ब्यूरो चीफ था। हेमंत शर्मा जनसत्ता में उनके खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे। एक रिपोर्ट में हेमंत जी ने उन्हें यूपी के विचित्र किंतु सत्य मुख्यमंत्री तक लिख दिया था। मैं जिस अखबार में था, वो नया नवेला था बहुत मशहूर नहीं था। फिर भी पकड़ थी। मैंने भी मुख्यमंत्री के खिलाफ मोर्चा खोला। दरअसल मुख्यमंत्री दफ्तर की बदमाशियों की वजह से ऐसा हुआ। धनराज यादव के साथ मैं रामप्रकाश गुप्ता से पहले भी कई बार मिल चुका था, लेकिन तब वो मुख्यमंत्री नहीं थे। अब गुप्ता ने धनराज से कहा कि वो मुझसे बात करें। धनराज यादव ने बात की, लेकिन ये भी कहा-ये सिर्फ संदेश था विकास जी, करिए वही, जो विवेक कहे।
धनराज यादव गजब के वक्ता थे। इतना नपा तुला और इतना तर्क सम्मत। लगता था कि तर्क की कसौटी पर एक एक शब्द उन्होंने सौ सौ बार परखा होगा। मैंने उनसे कहा कि आप लिखते क्यों नहीं। खैर धनराज यादव ने लिखा और वो लेख छपा राष्ट्रीय स्वरूप में। उस वक्त संपादक थे योगींद्र द्विवेदी। वो भी धनराज के लेखन और प्रतिबद्धता के कायल हो गए। फिर कई लेख छपे उनके। बाद में दो किताबें भी निकलीं।
धनराज यादव में बच्चों जैसा उत्साह था। लोगों के हित का मसला हो तो वो पहल करने के लिए छटपटाते थे। 1977 में भयानक सूखा पड़ा था। धनराज एक दिन कुदाल और तसला लेकर पहुंच गए कूड़ा नदी पर। बोले कि नदी में बांध बनाएंगे। एक से दो, दो से तीन और फिर हजारों लोग। दो हफ्ते के भीतर बिना एक भी पैसा लगे बंध गया बांध। शायद ही किसी विधायक ने नदी पर श्रमदान से बांध बनवाया हो।
हम लोगों का इलाका दोआब का है, एक तरफ घोंघी, दूसरी तरफ कूड़ा नदी। मोहाना का पुल बनना था। बड़ा जरूरी था इलाके के लिए। कांग्रेस का राज था। अचानक पुल का सामान उठने लगा। पता चला कि कहीं और पुल बनाने के लिए सामान जा रहा है। धनराज मौके पर पहुंचे और ट्रक के सामने लेट गए। बोले कि मेरी लाश से गुजरेगा ये ट्रक। बहुत हंगामा हुआ। आखिरकार सरकार हारी। वो पुल भी बना। एक पुल उन्होंने कूड़ा नदी पर सोहास में बनवाया।
धनराज की सादगी उनके अंदर की बात थी। कोई दिखावा नहीं था। विधायक रहते हुए भी वो खूब साइकिल की सवारी करते थे। उनका चेहरा आम आदमी का था। लोग उन्हें पहचान नहीं पाते थे, ये धनराज के लिए आसानी थी। वो साइकिल पर गैस सिलेंडर बांधकर गैस भराने भी चले जाते थे।
उनके घर में खूब चिंतन होता था, खूब चर्चा होती थी। कई बार निठल्ला चिंतन भी होता था। रेल बजट आया, सब बम बम थे। धनराज बोले, जबसे होश संभाला रेल बजट को आम आदमी का बजट कहकर निकाला जाता है। हर रेलमंत्री ने सुविधा देने की बात कही, लेकिन किसी ने ट्रेनों में जनरल डिब्बे बढ़ाने की पहल नहीं की। ये आम आदमी की बात करते हैं..!
धनराज यादव ने मेरे गर्दिश के दिन भी देखे थे। एक बड़ा फायदा मैं उनसे उठाता था। वो था एसटीडी फोन का। वहां से फोन करके मैं नौकरी का जुगाड़ करता था। लखनऊ छोड़कर मैं मेरठ आ गया अमर उजाला में। धनराज बहुत खुश हुए थे। सहारनपुर जाना था तो मेरठ में मुझसे मिलकर गए।
धनराज पिछले दो चुनाव हार गए। खरा बोलना उनका गुण होता था, वो दोष बन गया। पहले खरी खरी सुनाते थे तो उनमें लोगों को अपना नेता नजर आता था, लेकिन जब लालबत्ती लेकर सुनाते थे तो लोगों में संदेश गया कि धनराज को घमंड हो गया। खैर, चुनाव हार गए और खुश भी हुए। पिछले दिनों विश्व हिंदू परिषद के कुछ कार्यक्रमों में गए और निराश हो गए। कथनी और करनी में फर्क से उनका मन खट्टा हो गया। बीएचपी के एक बड़े नेता से उन्होंने कहा- हे साहब, (ये उनके संबोधन की खास स्टाइल थी) अरे ये भी सोचिए कि ऊपर जाकर राम को क्या जवाब देंगे।
धर्म को लेकर धनराज यादव बड़ा खुला दिमाग रखते थे। हिंदू धर्म में पूरी आस्था थी और धर्मनिरपेक्षता नाम के शब्द से उन्हें एलर्जी थी। वो मुझसे कहते थे कि मैं धर्मनिरपेक्षता शब्द के खिलाफ मुकदमा करना चाहता हूं। लेकिन पार्टी किसे बनाऊं। उनका मानना था कि पंथनिरपेक्षता होनी चाहिए। धर्मनिरपेक्षता बेहूदा शब्द है। धनराज ने एक किताब लिखी, जिसका नाम है-धर्म संस्थापनार्थाय। इसकी भूमिका उन्होंने मुझसे लिखवाई थी, जबकि वो किसी को भी कह देते तो लिख देता।
पिछले दिनों कल्याण सिंह बीजेपी छोड़कर मुलायम के साथ हो गए। धनराज का फोन आया मेरे पास। बोले-हे साहब, इनके जाने से बीजेपी का नुकसान तो होगा, लेकिन अब कल्याण सिंह ने राजनीतिक रूप से आत्महत्या कर ली है। ये बात आपसे ही नहीं कह रहा हूं, कल्याण सिंह से भी कहूंगा। यहां बता दूं कि कल्याण सिंह से धनराज के बहुत अच्छे संबंध रहे हैं।
धनराज के अच्छे मित्रों में शामिल थे गाजियाबाद के पूर्व विधायक और पूर्व मंत्री बालेश्वर त्यागी। उनके यहां वो अक्सर आते थे, मुझसे भी मुलाकात होती थी। धनराज गोष्ठी का मौका कभी चूकते नहीं थे। हाल ही में गोविंदाचार्य ने धनराज को एक गोष्ठी में वृंदावन बुलाया था, वो वहां गोविंदाचार्य को ही ललकार आए थे।
2005 में मैं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आ गया था। तनख्वाह वगैरह भी अच्छी हो गई थी। यकीन मानिये, मुझसे ज्यादा खुशी धनराज के चेहरे पर दिखाई देती थी। पिछले अक्टूबर महीने में वो दिल्ली आए थे। बालेश्वर त्यागी का ही एक कार्यक्रम था। मैं भी वहां पहुंचा था पत्नी के साथ। वो यूपी भवन में रुके थे। कौन उन्हें वहां तक छोड़े, मैंने कहा मैं चल रहा हूं। गाड़ी में बैठे, मैंने कहा कि पहले घर चलते हैं, फिर यूपी भवन। घर पहुंचे तो धनराज बोले- हे साहब, मैं बड़ा संकोच में था, लेकिन लगता है आपने मेरे दिल की बात समझ ली। जबसे आपने घर खरीदा है, तभी से इसे देखने की इच्छा थी। आपकी अपनी कमाई की गाड़ी में घूम लिया, आपकी अपनी कमाई का घर देख लिया। बहुत कुछ देख लिया, अब ऊपर का टिकट कट जाए तो कोई गम नहीं होगा।
बतकही चल रही थी, पत्नी ने कहा- आपकी किताब मैंने पढ़ी है, अगली किताब कब आ रही है।
धनराज चहक उठे, बोले- बेटी, आपने तो मुझे ताकत दे दी। मैं जरूर लिखूंगा। जब तक जिंदगी है, लिखता रहूंगा..।
देर रात हम लोग उन्हें यूपी भवन छोड़ आए। वहां भी खूब बातें हुईं। धनराज मुझे बहुत मानते थे और पब्लिकली मुझे यह कहकर शर्मिंदा भी कर देते थे– विकास जी मेरे पोलिटिकल गुरु हैं।
मेरी और उनकी उम्र में करीब आधे का फासला था। ऐसी कोई बात नहीं, जो मैंने कही हो, उन्होंने मानी न हो। विधानसभा में या कहीं गोष्ठी में क्या बोलना है, इसके बारे में भी वो मुझसे राय लेते थे। ये उनका बड़प्पन था, सादगी थी। 79 साल की उम्र, शरीर साथ देने से इनकार करता था। लेकिन वो खूब घूमते थे। कहते थे कि सरकार ने फ्री में यात्रा का इंतजाम कर दिया है। ईश्वर का संदेश है कि घूमो। ये सच भी था कि सक्रिय रहना ही उनकी जिंदगी थी। वो खूब सक्रिय रहते थे। वो लोकोक्तियों और मुहावरों का कोष तैयार करना चाहते थे। लोक प्रचलित शब्दों का मूल ढूंढ़ने में लगे थे। एक लम्बी सूची तैयार कर ली थी। उसकी पांडुलिपि मेरे पास पड़ी है।
धनराज अगर राजनीति में नहीं आते तो शायद संन्यासी होते या फिर क्रांतिकारी फकीर। राजनीति ने उन्हें बांध दिया। शायद राजनीति का खूंटा बहुत गहरे गड़ा होता है, धनराज यादव ने कई बार पगहा तुड़ाने की कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हो पाए। राजनीति में लक्ष्मी की प्रबलता होती है, लेकिन धनराज पूरी जिंदगी सरस्वती की उपासना में लगे रहे। बोलने और पहल करने में उनका भरोसा था। कहते थे-जब तक बोल रहा हूं, तब तक जिंदा हूं। यहां न्यूजरूम में जब कोई राजनीतिक खबर आती थी तो मैं उनसे फोन पर बातचीत करता था। खूब विश्लेषण होता था। शुक्रवार को बीजेपी का घोषणा पत्र आया था। राम की शरण में चली गई थी बीजेपी। मैंने धनराज को फोन लगाया। पूरी रिंग गई, लेकिन फोन रिसीव नहीं हुआ। पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। थोड़ी ही देर बाद मेरे घर से फोन आया कि धनराज यादव नहीं रहे। सुबह ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा था इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता, सांसों की डोर टूट गई।
भगवान राम में प्रबल आस्था थी धनराज यादव की। वो राम में रमते थे। भाजपा के नेताओं की तरह नहीं, कबीर की तरह। और संयोग देखिए उन्होंने जिस दिन आखिरी सांस ली, वो रामनवमी थी। शायद राम ने अपने खास दिन ही धनराज के लिए बुलावा भेज दिया। धनराज निःसंतान थे, लेकिन उन्हें इसका मलाल नहीं रहा। हजारों नौजवानों को वो अपने पुत्र की ही निगाह से देखते थे। धनराज फकीर की तरह दुनिया में आए थे, फकीर की तरह दुनिया से चले गए। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।
लेखक विकास मिश्र बहुमुखी प्रतिभा के धनी पत्रकार हैं। इन दिनों वे हिंदी न्यूज चैनल ‘न्यूज 24’ में सीनियर प्रोड्यूसर पद पर कार्यरत हैं। उनसे संपर्क [email protected] या 09873712444 के जरिए किया जा सकता है।