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दुख-दर्द

ठीक होने के बाद भी काम पर न जाऊंगा

ब्रजेश्वर मदान

उठने लगे बिस्तर से मदान : डायरी लिखते-लिखते गिर गए थे उस दिन : ‘जैसे उन्हें पता ही न हो कि सुबह हो गई, या नहीं जानते थे कि एक अंधेरा होता है दिन में भी शहर में…’ जिंदगी को इन दिनों शायद कुछ ऐसी ही व्यथा-कथा के साथ जी रहे अपने जमाने के मशहूर फिल्म क्रिटिक-राइटर ब्रजेश्वर मदान अब तेजी से स्वस्थ हो रहे हैं। उनकी सेहत में नब्बे फीसदी तक सुधार है। सहारे से उठ-बैठ भी लेते हैं। लेकिन अब भी खुद से उतने ही स्तब्ध और निरुपाय।

ब्रजेश्वर मदान

ब्रजेश्वर मदान

उठने लगे बिस्तर से मदान : डायरी लिखते-लिखते गिर गए थे उस दिन : ‘जैसे उन्हें पता ही न हो कि सुबह हो गई, या नहीं जानते थे कि एक अंधेरा होता है दिन में भी शहर में…’ जिंदगी को इन दिनों शायद कुछ ऐसी ही व्यथा-कथा के साथ जी रहे अपने जमाने के मशहूर फिल्म क्रिटिक-राइटर ब्रजेश्वर मदान अब तेजी से स्वस्थ हो रहे हैं। उनकी सेहत में नब्बे फीसदी तक सुधार है। सहारे से उठ-बैठ भी लेते हैं। लेकिन अब भी खुद से उतने ही स्तब्ध और निरुपाय।

पैरालिसिस अटैक ने शरीर के बाएं हिस्से को दबोच रखा है। जैसे-तैसे मुंह से बोल फूटते हैं, लेकिन किसी के समझ नहीं आता कि क्या कह रहे हैं, क्या कहना चाहते हैं। बमुश्किल उनके अबूझ उच्चारण के सांकेतिक भाव समझाते हुए परिजन बताते हैं कि वह कह रहे हैं- ‘मैं अपने बारे में क्या बताऊं। मेरी बात कोई समझ नहीं पाता। कहानियां लिख रहा था, अधूरी रह गईं हैं।’

ब्रजेश्वर मदानवह पहली जून की सुबह थी। दफ्तर जाने से पहले का समय। लिखते-लिखते कुर्सी से गिर पड़े थे उस दिन। इतना तेज अटैक हुआ फालिज का कि एक झटके में संज्ञाशून्य से हो गए थे। दो सप्ताह तक नोएडा के सत्या मेडिकल सेंटर में आईसीयू में पड़े रहे। अपने रचना-संसार से डेढ़ माह से ज्यादा का अज्ञातवास भोगते हुए मदान लड़खड़ाती जुबान से बताने की कोशिश करते हैं कि ‘उस दिन दफ्तर जाने से पहले अपनी डायरी लिख रहा था। …..अब ठीक हो रहा हूं।…. पत्नी की यादें परेशान करती हैं। ……कोई प्रेस वाला नहीं आता मेरे पास। अब ठीक हो जाने के बाद भी काम पर नहीं जाऊंगा।’

अटैक के बाद काफी दिनों तक नली से, फिर सिरिंज से तरल पेय आदि दिया जाता रहा। अब हाथ से खाना खाने लगे हैं, लेकिन गले में दिक्कत बनी हुई है। रोजाना चिकित्सक घर आते हैं। एक्सरसाइज, फीजियोथैरेपी से तेजी से स्वास्थ्य लाभ हो रहा है। शरीर का पूरा दाहिना हिस्सा अब भी निश्चेष्ट है। पत्र-पत्रिकाएं भी पढ़ने लगे हैं, लेकिन दायां हाथ लकवाग्रस्त होने से लिखने की टीस रुलाती रहती है। जो कविताएं हाल के महीनों में जिंदगी का हिस्सा हो चली थीं, वे अब न लिखी, न पढ़ी जा पा रही हैं। लाख शारीरिक अपंगता के बावजूद भावनाओं की मथानी भला कैसे थमे। ‘ लेटर बॉक्स,…. सूली पर सूर्यास्त,… बावजूद, ….अल्मारी में रख दिया है घर’ की पंक्तियां भी मन में टोहती-टहलती होंगी, लेकिन वह करें क्या, सिवाय शून्य में घूरते रहने के। जैसे सब कुछ थम-सा गया हो। कोई ऐसी आहट नहीं, जिसमें उन्हें याद आए फिर से वह ‘गांव….जहां मिट्टी के दीयों में फूलती थी सरसों, अब तो इस शहर में हो गए हैं बरसों, जहां सिक्‍कों के शोर में खो गई है जीवन की भोर।’ कोई ऐसा स्पंदन नहीं, जिसमें फिर से रचने का मन करे, वही आलू की भूख। ‘अब तक है याद उस आलू का स्वाद, जो तुम्हारे खाने से उठाकर खाया और लगा कि आलू का एक छोटा-सा टूकडा भी मिटा सकता है सदियों की भूख।’

जिंदगी के पैसठवें पायदान पर बस यूं ही सामने खुली टीवी पर टकटकी बांधे हुए लगते ही नहीं कि ये वही ब्रजेश्वर मदान हैं, जिनके शब्दों की खनक ने 1988 में सिनेमा पर कलम चलाने के लिए पहली बार नेशनल अवॉर्ड का गौरव हासिल किया था। नोएडा की निजी नीरवता में अब सब कुछ दुखी और चिंतित करने भर को शेष रह गया है। जैसे अलमारी में रख लिया हो खुद को। सिरहाने पड़े एक हिंदी दैनिक के पन्ने फड़फड़ा रहे हैं। मानो, उसकी खबरों के शीर्षक अगल-बगल से झांक-देख कर आपस में जिरह कर रहे हों बीते दिनों के मदान पर। और अब! मायावी मुंबई से आज तक!! पत्नी, चार बेटों के दुनिया से विदा हो जाने के बाद भी दुखों की गठरी जस-की-तस लदी-फदी जा रही है। ‘खाली हाथ, चमेली की जो बेल लगाई थी तुमने दूसरी मंजिल पर, दरवाजे तक आ गई है, तुम्हारे जाने के बाद।’

ब्रजेश्वर मदानऔर कितना निर्मम होना है जीवन के अवसान का पूर्वाभ्यास। ऐसे ही कई सवाल बेचैन करने लगते हैं, उन सभी को, जो मदान जी के सामने कुर्सियों पर बैठे हुए हैं। तभी कोई फ्लैश चमकता है, लेकिन अपने इर्द-गिर्द पर पलकें वैसे ही झपकती रहती हैं जानी-पहचानी सी। मन-ही-मन कुछ बुदबुदाते हैं और अचानक कुछ याद कर चेहरे पर फिर वही खिन्नता फैल जाती है। बाएं हाथ से अपना बायां पैर मोड़कर अपाहिज दाएं पैर के घुटने तक ले जाने की बार-बार कोशिश करते हैं। उठ-बैठना चाहते हैं, लेकिन कुछ भी नहीं कर पाते। व्यथा के हजार हाथ। आखिर एक हाथ से करें भी तो क्या।

लिखते-लिखते गिर गए थे उस दिन। वह क्या था, जो पूरा लिखा नहीं जा सका, अधूरा रह गया है। कोई बताने वाला नहीं। वह तो अभी बताने से रहे। कुछ बोलने-बतियाने से रहे। परिजन बताते हैं कि ज्यादातर पत्नी के बारे में बातें करना चाहते हैं। पूरी तरह स्वस्थ हो जाने के बाद आगे क्या करने का विचार है? शायद, इशारे से कहते हैं, जैसा समय होगा, देखा जाएगा। चेहरे पर फिर वही न बोल पाने की छटपटाहट तैर जाती है। अनबूझ खामोशी में डूब जाते हैं।

उनके स्वास्थ्य में तेजी से हो रहा सुधार कई-एक उम्मीदें जगाता है कि लिखने-कहने को जो कुछ अधूरा रह गया, पूरा कर सकें। अपने समय को एक बार फिर से बता सकें कि ‘दोष तुम्हारा नहीं… बाजार का है जो बदल देता है एटीट्यूड। जहाँ हर चीज होती है यूज एंड थ्रो के लिए। देखता हूँ मैं अपने आप को।’ परिजनों का कहना है कि अभी उन्हें पूरी तरह स्वस्थ होने में महीनों लग जाएंगे।

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