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‘यशवंत भाई, बेवजह न करें टांग खिंचाई!’

अजय शुक्लशशिजी को वक्त दीजिए, ये तो एक शुरुआत भर है : यशवंत भाई! आप शशि शेखर जी से जो अपेक्षाएं रखते हैं, असल में उसे पूरा करने के लिए वक्त चाहिए। आपने खुद ही माना है कि उन्हें आये अभी केवल एक माह हुआ है। स्वाभाविक है नये संस्थान में पहुंचने और फिर वहां की चुनौतियों का सामना करने में वक्त लगता है। शशि शेखर जी को मैं जितना जानता हूं, उनका सफर शून्य से शिखर तक पहुंचा है, न कि वह बगैर संघर्ष और चुनौतियों का सामना करे यहां तक पहुंचे हैं। हर कोई दूसरे से अपेक्षा करता है कि वह विवेकानंद की तरह सिद्धांतों और आदर्शों का पालन करे मगर अपनी बारी में पीछे रह जाता है। शशि शेखर ने पत्रकारिता के सिद्धांतों को बचाने का उदाहरण न अमर उजाला में रहते हुए दिया था। उन्होंने कलम को न तो बिकने दिया और न ही किसी क्लास के लिए गिरवी रखा।

अजय शुक्ल

अजय शुक्लशशिजी को वक्त दीजिए, ये तो एक शुरुआत भर है : यशवंत भाई! आप शशि शेखर जी से जो अपेक्षाएं रखते हैं, असल में उसे पूरा करने के लिए वक्त चाहिए। आपने खुद ही माना है कि उन्हें आये अभी केवल एक माह हुआ है। स्वाभाविक है नये संस्थान में पहुंचने और फिर वहां की चुनौतियों का सामना करने में वक्त लगता है। शशि शेखर जी को मैं जितना जानता हूं, उनका सफर शून्य से शिखर तक पहुंचा है, न कि वह बगैर संघर्ष और चुनौतियों का सामना करे यहां तक पहुंचे हैं। हर कोई दूसरे से अपेक्षा करता है कि वह विवेकानंद की तरह सिद्धांतों और आदर्शों का पालन करे मगर अपनी बारी में पीछे रह जाता है। शशि शेखर ने पत्रकारिता के सिद्धांतों को बचाने का उदाहरण न अमर उजाला में रहते हुए दिया था। उन्होंने कलम को न तो बिकने दिया और न ही किसी क्लास के लिए गिरवी रखा।

मुझे यह भी पता है कि उन्हें राज्य सभा तक का रास्ता दिखाया गया था मगर उन्होंने नकार दिया। हम इस बहस में तो उलझ रहे हैं कि आखिर दशा दिशा 2020 की बहस एलीट क्लास के साथ शुरू हुई है मगर यह नहीं देख रहे कि किसी ने शुरुआत तो की है। हम युवा पीढ़ी की बात करते हैं और उद्घाटन तमाम थके हुए कथित माननीयों से कराते हैं, मगर शशि शेखर ने निर्मल हृदय के सच्चे और मेधावी बच्चों को इसके लिए चुना। न न्यायपालिका, न विधायिका और न ही कार्यपालिका। संसद और विधानसभा वातानुकूलित हैं, जहां हमारे लिए नियम कानून बनते हैं। उच्च न्यायपालिका में ईमानदारी अभी बाकी है मगर वहां जज वातानुकूलित कक्षों में बैठते हैं। गरीब तबके तक के लिए योजनाएं वातानुकूलित कक्षों में ही बनती हैं और अधिकतर कल्याणकारी होती हैं, तो क्या मान लें कि ये सही नहीं हैं। जरूरत यह नहीं कि आंदोलन किसी पिछड़े गांव से शुरू किया जाए, जरूरत यह है कि कहीं भी रहकर उनका दर्द महसूस किया जाए और एलीट क्लास को उनकी सुविधाओं के बीच ही इसका अहसास कराया जाए। जरूरी है कि नई पीढ़ी और एलीट क्लास को सच दिखाया जाए और पिछड़ों को आगे लाने के लिए उनकेमन में मजबूत सपने जगाए जायें। शशि शेखर जी ने इसी की पहल की है यशवंत जी।

बात निकली है तो यह भी बता दूं कि शशि जी ने तमाम दर्द सहकर आज अखबार को आगरा में जीवित रखा था। उन्होंने तमाम गरीब तबके के योग्य लोगों को संपादक तक की कुर्सी पर पहुंचाया है। उन्होंने दिशा दी, ईमानदारी की पत्रकारिता की। यह केवल कहने की बात नहीं बल्कि सच है जिसके तमाम उदाहरण हैं। एक बड़े अखबार के समूह संपादक के तौर पर उनकी जिम्मेदारी है कि वह उस समूह की ब्रांडिंग करें। उन्होंने अमर उजाला में रहते उसे नित नई ऊंचाइयां दीं और सिद्धांतों को बखूबी निबाहा। अब वो हिंदुस्तान के साथ हैं तो उसके प्रति उनकी जिम्मेदारी है मगर उन्होंने इसे आम लोगों के बीच उनकी आवाज बनाने के लिए एलीट क्लास को चर्चा के लिए बुलाया। उनकी चर्चा में हिस्सेदारी के लिए उत्तर प्रदेश के तमाम जन और कर्मचारी संगठनों, युवा, बच्चे भी बुलाए गए थे। यह अभियान यहीं तक नहीं है, काफी आगे जाना है मगर वक्त चाहिए। अभी तो एक माह हुआ है।

तो यशवंत भाई, बेवजह टांग खिंचाई के बजाय उनकी सोच पर गौर कीजिए। यह भी बता दीजिए उन लोगों को जो कहते हैं कि ईमानदारी और आदर्श का पालन करना चाहिए कि शशि शेखर अपने निजी ही नहीं सार्वजनिक जीवन में पूरी ईमानदारी जीते हैं। उन्होंने ईमानदारी से यह स्वीकारा की अखबार आम लोगों की जरूरत को पूरा करे, न कि किसी एक वर्ग का भोंपू बने। शशि शेखर शिखर पर हैं तो निचले पायदान के दुख-दर्द की समझ लेकर ही गए हैं और महेश भट्ट या केएल गुप्ता भी लंबा सफर करके इस मुकाम तक पहुंचे हैं। युवा सांसद देश का भविष्य हैं और उनको वही सच दिखाने के लिए बुलाया होगा। गरीब गुरबे की बात भी तो तब ही आगे जाएगी जब इनको उसकी तस्वीर उनके खाके में दिखाई जाएगी…. तो भाई लांछन लगाने के बजाय सोच को बदलने की जरूरत है, जो सच्चे मन से ही हो पाएगी। मैं इतना इसलिए लिख सका क्योंकि मैंने उनकी यह सोच काफी करीब से समझी है और उस दर्द को पंच सितारा होटल में भी महसूस करते देखा है।

तो श्री गणेश तो होने दीजिए फिर देखिये वक्त के साथ क्या आते हैं नतीजे… तब कीजिए समीक्षा…

अजय शुक्ल

पत्रकार

चंडीगढ़

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