पत्रकारिता के कबीर पुरुष का अवसान : कोई चालीस साल पहले, गांधी शताब्दी वर्ष के दौरान, तब बत्तीस-तैंतीस वर्ष के प्रभाष जोशी इंदौर के निकट स्थित कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट के कार्यकारी मंत्री स्व. श्यामलालजी की एक सिफारिशी चिट्ठी गांधी स्मारक निधि, राजघाट के सचिव देवेन्द्र कुमार गुप्ता के नाम लेकर महानगर दिल्ली पहुंचे थे। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपने दिल्ली आने पर कभी अफसोस भी जाहिर नहीं किया। बस अपनी मेहनत और असीमित ऊर्जा के दम पर मालवा की संस्कृति, उसकी जुबान और उसके मुहावरे को किसी की भी कद्र नहीं करने वाली दिल्ली की छाती पर स्थापित कर दिया। वर्ष 1991 में राजेन्द्र माथुर के असामयिक निधन के कोई अट्ठारह सालों के बाद प्रभाष जोशी का यूं चुपचाप चले जाना हिन्दी पत्रकारिता के लिए दूसरा बड़ा घाव है। जो लोग प्रभाषजी को नजदीक से जानते रहे हैं उनके लिए यकीन करना मुश्किल है कि वे इस तरह से दबे पांव चले जाएंगे, बिना किसी को खबर किए हुए। उनका ऐसा स्वभाव ही नहीं था। वे जब कहीं प्रवेश करते या कहीं से प्रस्थान करते, पता चल जाता था कि प्रभाषजी आए और गए हैं।
प्रभाष जोशी और राजेन्द्र माथुर जैसे सम्पादकों की इस विशेषता का पूरी तरह से बखान होना बाकी रहेगा कि अंग्रेजी पत्रकारिता की मंडी वाले महानगर दिल्ली में उन्होंने हिन्दी में व्यक्त किए जाने वाले शब्द की शंकराचार्य स्थापना की और राजनीति तथा नौकरशाही के दरबारों में अस्पृश्यों की तरह दूसरी और तीसरी पंक्तियों में धकियाए जाने वाले पत्रकारों और हिन्दी पत्रकारिता को अधिकारपूर्वक उसका वाजिब हक दिलाया। इसके लिए उन्होंने कोई लड़ाई नहीं लड़ी कोई षड्यंत्र नहीं किए, दूसरों को अपने से पीछे भी नहीं धकेला। सब कुछ उस ईमानदारी और साहस के दम पर किया जिसे वे मालवा की जमीन से अपने साथ सहेज कर दिल्ली लाए थे। इंदौर शहर में भी जूनी इंदौर के एक पुराने इलाके मोती तबेला में कच्चे-पक्के मकान से निकलकर दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़, अहमदाबाद आदि महानगरों में हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में सफलतापूर्वक पत्रकारिता कर लेना : रामायण महाभारत पर अधिकारपूर्वक संवाद कर लेना और गांधी-विनोबा- जयप्रकाश को एक साथ जीते हुए कुमार गंधर्व को गा लेना या क्रिकेट की एक-एक बॉल को अपनी सांसों में आत्मसात कर लेना किसी प्रभाष जोशी के ही बस की बात हो सकती थी।
एक साथ सैकड़ों रथों पर सवार होकर भी एक ही दिशा में यात्रा करते हुए आगे बढ़ते रहना और सारी थकान को केवल अपने साथ ही बांटते रहने की खूबी केवल प्रभाष जोशी में थी। इंदौर-उज्जैन-भोपाल ही नहीं देश भर में हजारों की संख्या में फैले हुए हिन्दी के पत्रकार, सर्वोदय और गांधीवादी संस्थानों में अपना जीवन खपा रहे रचनात्मक कार्यकर्ता, स्वयंसेवी संस्थाओं में जुटे लोग, विभिन्न आंदोलनों में संघर्षरत युवा… न जाने कितने लोगों के साथ प्रभाष जोशी एक साथ जुड़े हुए थे।
प्रभाषजी को भी शायद अंदाज नहीं रहा होगा कि इस तरह चले जाने के बाद वे अपने पीछे इतनी उदासी छोड़ जाएंगे। एक ऐसे वक्त जब भाषायी पत्रकारिता से सम्पादकों की संस्था ही धीरे-धीरे समाप्त हो रही हो और छपे हुए शब्दों की विश्वसनीयता लगातार संदेहों के अंधेरों में धकेली जा रही हो, प्रभाष जोशी जैसे पत्रकारों की कमी उन लोगों को अवश्य ही सालेगी जिन्हें उनके साथ काम करने का अवसर मिला है। जब कुमार गंधर्व ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’ गाते थे, तब प्रभाषजी आंखे बंद करके कबीर में खो जाते थे। प्रभाष जोशी ने भी शायद कुमारजी की तरह ही अपने कबीर को प्राप्त कर लिया था।