एक कहानी (5) : धंधा बंद होने के एक हफ्ते बाद, डीआईजी रामशंकर त्रिपाठी का काफिला फिर मड़ुवाडीह पहुंचा। आगे उनकी बिल्कुल नई हरे रंग की जिप्सी थी। पीछे खड़खड़ाती जीपों में कई थानों के प्रभारी और लाठियों, राइफलों से लैस सिपाही थे। सबसे पीछे एक रिक्शे पर माइक और दो भोंपू बंधे हुए थे। शाम को जब यह लाव-लश्कर वहां पहुंचा तो मकानों की बत्तियां जल चुकी थी। आसमान पर छाते कुहरे के धुंधलके में बदनाम बस्ती के दोनों तरफ भरे पानी के गड़ढों के पार एक-एक बुलडोजर रेंग रहे थे। कोई कंस्ट्रक्शन कंपनी इस खलार जमीन को पटवा रही थी। कुहरे में हिचकोले खाते बुलडोजर बस्ती की तरफ बढ़ते मतवाले हाथियों की तरह लग रहे थे। एक जीप के बोनट पर मुश्किल से चढ़ पाए एक तुंदियल सिपाही ने माइक से ऐलान किया, ‘मानव-मंडी के सभी बंशिंदे फौरन यहां आ जाएं, डीआईजी साहब उनसे बात करेंगे, उनकी समस्याएं सुनेंगे और उनका निदान करेंगे।’ मडुवाडीह थाने में मानव-मंडी बाकायदा एक बीट थी।
थाने में एक रजिस्टर में वहां रहने वाले सभी लोगों के नाम पते और अतीत दर्ज था। नए आने और जाने वालों का रिकार्ड भी उसमें रखा जाता था। रेड लाइट एरिया के देसी विकल्प के रूप में सब्जी मंडी, गल्ला मंडी, बकरा मंडी के तर्ज पर रखा गया यह नाम कितना सटीक था। मानव देह ही तो बिकती थी, वहां। चेतावनी की लालबत्ती जलती तो कभी देखी नहीं गई। नगर वधुओं को बुलाने के लिए सिपाहियों का एक जत्था बस्ती में घुस गया। थाने के ये वे सिपाही थे जो इन मकानों की एक-एक ईंट को जानते थे। वेश्याओं ने सोचा था कि धंधा बंद कराना, पुलिस की हफ्ता बढ़वाने की जानी पहचानी कवायद है। आमतौर पर थानेदार एक आध कोठे पर छापा डालता, दो चार दलालों से लप्पड़-झप्पड़ करता। कोई लड़की पकड़ कर थाने पर बिठा ली जाती और तय-तोड़ हो जाता था। लेकिन डीआईजी खुद दूसरी बार आए थे। उन्हें अंदाजा हो गया था कि इस बार मामला गंभीर है।
सबसे पहले बच्चे आए। उनके साथ एक युवक आया, जिसने दो साल पहले उन्हें पढ़ाने के लिए बस्ती में स्कूल खोला था। बच्चे उसे मास्टर साहब कहते थे। पीछे बस्ती के दुकानदार, साजिंदे, भड़ुए, सबसे बाद में वेश्याएं आईं। इतनी भीड़ हो गई कि उसमें अचानक गुम हो गए डीआईजी की फोटो खींचने के लिए प्रकाश को एक मकान की छत पर चढ़ना पड़ा। भीड़ के बीच छोटे से घेरे में, चार पांच बूढ़ी औरतें और उनकी नकल करते बच्चे, बलैया लेते हुए, गिड़गिड़ाते हुए, नाटकीय ढंग से डीआईजी के पैरों की तरफ लपक रहे थे। सिपाही उन्हें डांटते हुए आगे बढ़ते, वे उनसे पहले ही तपाक से वापस अपनी जगह चले जाते थे। एक चाय की दुकान से लाए गए बेंच पर, हाथों में माइक थामकर डीआईजी खड़े हुए तो सन्नाटा खिंच गया। बस्ती के किनारों पर रेंगते बुलडोजरों की गड़गड़ाहट फिर सुनाई पड़ने लगी। उन्होंने कहा ‘भाईयों और बहनों।’ बहनों के ‘ओं’ में जैसे कोई चुटकुला छिपा था, भीड़ हंसने लगी, वेश्याएं हंसते-हंसते एक दूसरे पर गिरने लगीं।
उन्होंने गला साफ करके कहीं दूर देखते हुए कहना शुरू किया, प्रशासन को मानव मंडी के बशिंदों की समस्याओं का पूरा ध्यान है, वेश्यावृत्ति गैर-कानूनी है इसलिए उस पर सख्ती से रोक लगा दी गई है। मड़ुवाडीह थाने में अलग से एक सेल खोला गया है। आप लोग वहां जाकर सरकारी लोन के लिए आवेदन करें। आप लोगों को छूट के साथ, कम ब्याज पर भैंस, सिलाई-मशीन, अचार-पापड़ का सामान दिलाया जाएगा। अपना रोजगार शुरू करें, जो काम करने के लायक नहीं हैं, उन्हें नारी संरक्षण गृह भेज दिया जाएगा ताकि आप लोग यह बेइज्जती का पेशा छोड़कर सम्मान के साथ…। सरकार के नारी संरक्षण गृह का नाम सुनकर वेश्याएं फिर आपस में ठिठोली करने लगी। डीआईजी ने अपने फालोअर को डपटा, जाओ पता करो, वे क्या कह रही है। फालोअर थोड़ी देर वेश्याओं के बीच जाकर हंसता रहा लेकिन पलटते ही उसका चेहरा पहले की तरह सख्त हो गया। लौटकर अटेंशन की मुद्रा में खड़ा होकर बोला, ‘सर, कहती हैं फ्री में समाज सेवा नहीं करेंगे।’
डीआईजी समझ नहीं पाए, वेश्याओं ने सिपाही से कहा था कि संरक्षण गृह जाने से बेहतर तो जेल है क्योंकि वहां फ्री में समाज सेवा करनी पड़ती है। कुछ दिन पहले संरक्षण गृह में संवासिनी कांड हुआ था। वहां की सुपरिटेडेंट नेताओं, अफसरों और अखबारी भाषा में सफेदपोश कहे जाने वाले लोगों को लड़कियां सप्लाई करती थीं। जब यह मामला खुला तो एक के बाद एक मारकर पांच लड़कियां गायब कर दी गईं। ये वे लड़कियां थी जिन्होंने मुंह खोला था। इन दिनों सीबीआई इस मामले की जांचकर रही थी।
भीड़ के पीछे एक बुढ़िया गश खाकर गिर पड़ी थी। झुर्रियों से ढके उसके चेहरे पर सिर्फ बेबस खुला मुंह दिखाई दे रहा था। एक मरियल औरत बैठकर आंचल से उसे हवा करते हुए गालियां दे रही थी, करमजले, मिरासिन की औलाद…मार डाला बेचारी को… जब जवानी थी तब यही पुलिस वाले रोज नोंचने आ जाते थे। कसबिन की जात अब चौथेपन भैंस चराएगी…. पेड़ा बनाएगी। कोई जाकर पूछे मरकीलौना से रंडी के हाथ का कौन पापड़ खाएगा, कौन दूध पिएगा, कौन कपड़ा पहिनेगा…यह सब, हम लोगों से घर-बार छीनकर भीख मंगवाने का इंतजाम है और कुछ नहीं… शहर छोड़कर चले जाओ, जैसे हम हाथ पकड़ कर लोगों को घर से बुलाने जाते हैं। लोगों को ही क्यों नहीं मना कर देते कि यहां न आया करें। जो हमें भगाने के लिए धरना देकर बैठे हैं, वही कहीं और जाकर क्यों नहीं बस जाते। हमें कौन अपने पड़ोस में बसने देगा। यहां की तरह वहां भी छूत नहीं लगेगी क्या?
यह बुढ़िया अकेली रहती थी। उसने सबेरे से कुछ खाया पिया नहीं था। सुबह से ही वह दोनों छोरों तक घूम-घूम कर आंदोलन करने वालों को गालियां बक रही थी। उसके दो बेटे थे जो कहीं नौकरी करते थे। चोरी छिपे साल-दो साल में मिलने आ जाते थे। सबके सामने उसे वे अपनी मां भी नहीं कह सकते थे।
पीछे हंगामा देखकर सिपाही उधर लपके तभी न जाने कहां से एक अधेड़ नेपाली औरत झूमते हुए आकर डीआईजी के पीछे खड़ी हो गई। उसके बाल खुले थे, साड़ी धूल में लिथड़ रही थी, वह पीकर धुत्त थी। अगल- बगल की औरतें उसे खींच रही थी। अचानक वह चिल्लाने लगी और उसके गालों पर गंदले आंसू बहने लगे, ‘आस्तो न गर बड़ा साहब… आस्तो न गर दाज्यू.. अपाना हुकुम माथे पर लिया।’
डीआईजी चौंक कर पीछे घुमें तो उसने हाथ जोड़ लिए, ‘साहेब, मेरा साहेब। पहले यहां नई लड़की लोग का लाना तो बंद करो साहेब! हम लोग खुद तो नहीं आया साहेब… बहुत बड़ा-बड़ा लोग लेकर आता है। नेपाल से, बंगाल से, ओड़िसा से… हर नई लड़की पीछे थाना को पैंतीस हजार पूजा दिया जाता है। पुराना का तो घर है, बाल-बच्चा है, बूढ़ा होके नहीं तो बीमारी से मर जाएगी। लेकिन नया लड़की आता रहेगा तो यहां का आबादी बढ़ता जाएगा। जहां से लड़की आता है, रास्ते भर सरकार को बहुत रुपया मिलता है।’
डीआईजी ने घूरकर पुलिस वालों की तरफ देखा जो हंस रहे थे। पहले वे सकपकाए फिर तुरंत उन्होंने कतार बनाकर डंडों से भीड़ को बस्ती के भीतर ठेलना शुरू कर दिया। जो बस्ती के नहीं थे, सिपाहियों को धकेलकर सड़क की ओर भागने लगे। इन भागते लोगों पर पीछे खड़े सिपाहियों ने डंडे जमाने शुरू कर दिए। इसी बीच गुस्से से तमतमाए डीआईजी अपने फालोअर और ड्राइवर को लेकर निकल गए। बस्ती में स्कूल चलाने वाला लड़का डंडों के ऊपर इस तरह झुका हुआ था जैसे लाठियां उसके पंख हों और वह उड़ रहा हो। वह वहीं से चिल्लाया, ‘आप उनसे खुद ही बात कर लीजिए, मैडम! पता चल जाएगा… शरीफ औरतें वेश्याओं के बारे में बात नहीं करतीं। वे गुड़िया पीटने और विश्वसुंदरी प्रतियोगिता के विरोध में बयान दे सकती हैं बस। यहां आएंगी तो उनके पति घर से भगा देंगे, सारा नारीवाद फुस्स हो जाएगा।’
एक महिला रिपोर्टर उससे पूछ रही थी कि आप लोग महिला संगठनों से बात क्यों नहीं करते, तभी लाठियां चलनी शुरू हो गई थीं। अब वह पुलिस वालों के पीछे घबराई खड़ी हुई उसे लाठियों, शोर और बस्ती के अंधेरे में गायब होता देख रही थीं।
थोड़ी ही देर में वह जगह खाली हो गई जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं था। अगले दिन अखबार में हेडलाइन थी, ‘वेश्याओं ने पुलिस की टोपी उछाली, लाठी चार्ज, बाइस घायल।’ अखबारों और चैनलों की भाषा में यह मामला अब ‘हॉटकेक’ बन चुका था जिसे वे अपने ही ढंग से परोस और बेच रहे थे। चैनलों ने इसे कुछ इस तरह पेश किया जैसे देश में यह अपने ढंग की अकेली घटना हुई हो जिसमें वेश्याओं ने एक डीआईजी के साथ ग्राहक से भी बुरा सलूक करने के बाद उन्हें खदेड़ दिया हो। अखबार के दफ्तर में जो संगठन बधाईयां दे रहे थे, अब उनकी तरफ से वेश्याओं के इस कृत्य के निन्दा की विज्ञप्तियां बरसने लगीं। कई और संस्थाएं कचहरी पर चल रहे धरने में शामिल हो गईं और स्नेहलता द्विवेदी आमरण अनशन पर बैठ गईं। मड़ुवाडीह के दोनों छोरों पर अब एक-एक प्लाटून पीएसी भी लगा दी गई। बदला चुकाने और वेश्याओं का मनोबल तोड़ने के लिए पुलिस वालों ने एक लड़की के साथ बलात्कार कर डाला।
चौदह साल की यह लड़की डीआईजी की मीटिंग के बाद से खाने का सामान लाने के लिए सड़क के उस पार जाने देने के लिए पहरा दे रहे सिपाहियों की विनती कर रही थी। दो-तीन बार आई तो डपटकर भगा दिया। अगले दिन फिर आईं तो सिपाही उससे बतियाने और चुहल करने लगे, उसे लगा कि शायद अब जाने देंगे इसलिए वह भी दिन भर इतराती और हंसती रही।
अंधेरा होने के बाद सिपाहियों ने उसे एक छोटे लड़के के साथ सड़क पार करने दी। वे सामानों की गठरियां लेकर जैसे ही लौटे सिपाहियों ने डंडे पटकते हुए दोनों को दूर तक खदेड़ दिया। वे डर गए, क्योंकि बस्ती से कभी बाहर निकले ही नहीं थे। दोनों वहीं सड़क के किनारे बैठकर रोने लगे, कई घंटे बाद जब दुकानें बंद हो गईं। तब एक सिपाही लड़की को बुलाकर एक लारी के भीतर ले गया। वहां एक सिपाही ने उसका मुंह बंद कर दिया और दो ने टांगे पकड़ लीं। बारी-बारी से चार सिपाहियों ने उसके साथ बलात्कार किया फिर उसे बच्चे और पोटलियों के साथ बस्ती में धकेल दिया गया। वेश्याएं रात भर सड़क के मुहाने पर जमा होकर गालियां देती रहीं और पुलिस वाले यह कहकर हंसते रहे कि उन्होंने लड़की को बढ़िया ट्रेनिंग दे दी है, अब आगे कभी कोई दिक्कत नहीं होगी।
स्कूल चलाने वाले युवक ने अखबार के दफ्तर में आकर सारा वाकया सुनाया। यह लड़की उसके स्कूल में पढ़ती थी। रिपोर्टरों ने कहा कि वह एफआईआर की कॉपी लाए तब खबर छप सकती है, कोई तो सबूत होना चाहिए। उसने बहुत समझाया कि जब पुलिस ने ही रेप किया है तो वे कैसे सोचते हैं कि अपने ही खिलाफ एफआईआर भी दर्ज कर लेगी। वे चाहें तो लड़की को अस्पताल ले जाकर या किसी डाक्टर को बस्ती में ले जाकर मेडिकल जांच करा सकते हैं। उसकी हालत अब भी बहुत खराब है। खबरों के बोझ के मारे रिपोर्टर इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते थे और वे जानते थे कि कोई डाक्टर बस्ती में जाने को तैयार नहीं होगा। एक रिपोर्टर ने शरारत से कहा, ‘और मान लो मेडिकल जांच हो भी तो क्या निकलेगा क्या?’
‘मतलब हाइमन ब्रोकेन, खरोंच, खून ये सब तो रिपोर्ट में आएगा नहीं।’
दूसरे रिपोर्टर ने हंसी दबाते हुए घुटी चीख के स्वर में कहा, ‘रिपोर्ट में आएगा एवरीथिंग ओवर साइज, ट्यूबवेल डीप, अनेबल टू फाइंड एनीथिंग!’
कानफाड़ू ठहाकों के बीच वह युवक हक्का-बक्का रह गया। थोड़ी देर बाद उसे सांत्वना देने के लिए एक रिपोर्टर ने पुलिस सुपरिटेंडेंट को फोन मिलाया तो वे हंसे, वेश्या के साथ बलात्कार! विचित्र लीला है। अरे भाई साहब, वे आजकल ग्राहकों के लिए पगलाई घूम रही हैं, सामने मत पड़ जाइएगा। नहीं तो आपही का बलात्कार कर डालेंगी। यह पुलिस को बदनाम करने का रंडियों का खास पैंतरा हैं। यह खबर नहीं छपी न ही किसी चैनल में दिखी, क्योंकि किसी के पास कोई सबूत नहीं था कि बलात्कार हुआ है। दरअसल सुपरिटेंडेंट की तरह पत्रकारों को भी यह समझ मे नहीं आ रहा था कि आखिर, किसी वेश्या के साथ बलात्कार कैसे संभव है।
प्रकाश ने अचानक खुद को उस युवक जैसी हालत में पाया जिसका हुचुर-हुचुर हंसते अपने साथियों के सामने यह भी कहना व्यर्थ था कि वह खबर दे पाने में लाचार है लेकिन उसे यकीन है कि लड़की के साथ बलात्कार हुआ है। तब शायद अगला निर्मम जुमला यह भी आ सकता था कि वह भविष्य की एक अनुभवी पोर्न मॉडल तक पहुंचने का सूत्र बना रहा है।
तभी फोन की घंटी बजी, यह छवि थी जो कह रही थी कि उसे अब फोटो खींचने की तमीज सीख ही लेनी चाहिए। शायद आवाज के कंपन से उसे तीव्र पूर्वाभास हुआ कि उसे लड़की के साथ बलात्कार की घटना का पता है। उसने जब यूनिवर्सिटी में ब्यूटीशियन का कोर्स कर रही छवि की पहली बार फोटो खींचने की कोशिश की थी तो उसके भरे-भरे होंठों पर नाचती रहस्मयमय हंसी, आंखों की शरारत और बांह पर खरोंच के दो निशानों से अकबका गया था। कैमरे का शटर खोलना ही नहीं, उस पर लगा ढक्कन भी हटाना भूल गया था और लगातार फोटो खींचते, लगभग हकलाते हुए उसे तरह-तरह के पोज देने के लिए कह रहा था। छवि ने जब कहा कि कई दिन से उसका टेली लेंस उसके पार्लर में ही पड़ा हुआ है तो लगा शायद उसे नही पता है। उससे फोन पर बात करते हुए उसे लगातार लग रहा था कि दुनिया में बहुत सारे लोग हैं जो अपने साथ घट चुके को कभी साबित नहीं कर पाएंगे और वह भी उन्हीं में से एक है। वह उनकी आवाज कभी नहीं बन सकता जो कमजोरी के कारण बोल नहीं पाते, वह सिर्फ उनकी आवाज को दुहरा सकता या चेहरे दिखा सकता है, जिनके पास ताकत है। उसकी कलम में किसी और की स्याही है, कैमरे के पीछे किसी और की आंख है। फोन रखने के काफी देर बाद तक वह कैमरे का शटर खोलता, बंद करता यूं ही बैठा रहा।
खटाक….पता है। खटाक….नहीं पता है। खटाक…पता है। उसका दिमाग झूला हो चुका था।
…जारी…
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jitendra
March 6, 2010 at 8:00 am
CHAA GAYEE GURU,
YEHI UMMED THI,
HUM SAATH HAI
Pankaj Tripathi
March 21, 2010 at 3:36 pm
Lajawaab !
Regards,
Pankaj Tripathi,
9654444004.
M.haneef khan
April 24, 2011 at 2:06 pm
achhi kahani.