कचोटता है नैतिकता का पुल

[caption id="attachment_17129" align="alignleft" width="99"]अभय तिवारीअभय तिवारी[/caption]‘…क्योंकि नगर वधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’ : बनारस और रंडियों का रिश्ता इतना पुराना है कि उसकी दखल कहावतों में भी हो गई है। फिर रंडियों से जुड़े मामले हमेशा दिलचस्प होते हैं। न सिर्फ़ इसलिए कि वे हमारे स्वभाव की मूल वृत्ति से जुड़ा व्यापार करती हैं बल्कि इसलिए भी कि एक आम शरीफ़ आदमी को उनके जीवन के बारे में अधिक कुछ मालूम नहीं होता। जिज्ञासा अलबत्ता ज़रूर होती है।

अनिल यादव, अब ऐतराज भी सुनिए

[caption id="attachment_17124" align="alignleft"]दयानंद पांडेयदयानंद पांडेय[/caption]कहानी का साजन तो उस पार था : माफ़ करिए डियर अनिल यादव क्योंकि ”…क्योंकि नगर वधुएं अखबार नहीं पढतीं” को लेकर अभी तक आप प्रार्थना सुन रहे थे, अब ऐतराज़ भी सुनिए। अव्वल तो इस विषय की स्थापना ही बसियाई हुई है। आप जानिए कि आज की नगर वधुएं अखबार ही नहीं, इंटरनेट भी बांचती हैं। यकीन न हो तो आप कुछ साइटों पर जाइए, बाकायदा उनकी प्रोफ़ाइल की भरमार है, किसिम-किसिम की फ़ोटो, व्योरे और देश, शहर सहित। डालर फूंकिए और इस नरक में कूद जाइए।

आदमी से स्टोरी हो गए लोगों की कहानी

[caption id="attachment_17123" align="alignleft" width="78"]सिद्धेश्वर सिंहसिद्धेश्वर सिंह[/caption]इस कहानी को एकाधिक बार पढ़ने बाद अब जब कि कुछ गुनने का समय आया है तब लग रहा है कहानी की काया के बीच इतना कुछ और इतनी तरह से कुछ-कुछ बुना गया है उसके रेशे को उधेड़ने के अब तक जो कुछ भी ज्ञान कथा साहित्य के आचार्यों व सर्जकों द्वारा तैयार पोथी-पतरा के जरिए अपने तईं विद्यमान है उसमें ‘अनुभव की प्रामाणिकता’, ‘भोगा हुआ यथार्थ, ‘शाब्दिक जीवन प्रतिबिम्ब’, ‘अँधेरे में एक चीख’  जैसे सूत्र वाक्य कथा के खुलासे के बाबत कुछ खास मदद करते जान नहीं पड़ते हैं।

जहां रेडलाइट एरिया, वहां रेप नहीं!

[caption id="attachment_17117" align="alignleft" width="71"]पंकजपंकज[/caption]“….क्योंकि नगर वधुएं अखबार नहीं पढ़ती” को जब शुरू-शुरू में पढ़ा तो लगा, एक पत्रकार को अपने संस्मरण सहेजने की सहसा ही इच्छा जाग उठी है। आगे पढ़ता गया तो लगा- नहीं, ये सामान्य संस्मरण नहीं है। ये कड़ियां समाज के उस तबके की वेदना और सहनशीलता की परछाई हैं, जिनकी तरफ लोगों का ध्यान नहीं जाता।

सिर्फ नौकरी नहीं, आंख भी है पत्रकारिता

[caption id="attachment_17109" align="alignleft"]अशोक पांडेयअशोक पांडेय[/caption]पत्रकार लिखेंगे नई सदी का साहित्य : कहानी लेखन के (अगर अनिल यादव की इस रचना को अपनी सुविधा भर के लिए सिर्फ कहानी कहा जाए तो) तमाम स्थापित मूल्यों को चुनौती देती नगरवधुओं की यह अतियथार्थवादी तिलिस्मी दास्तान अपने कथ्य के कारण बहुत महत्वपूर्ण है।

मरियल क्लर्क, थ्रिल और पुराने रंडीबाज

[caption id="attachment_17094" align="alignright"]अनिल यादवअनिल यादव[/caption]एक कहानी (अंतिम) : निहलानी आंखों में मोरेलिटी ब्रिज : प्रकाश की हालत उस सांप जैसी हो गई जिसने अपनी औकात से काफी बड़ा मेढक अनजाने में निगल लिया हो, जिसे न वह उगल पा रहा है न पचा पा रहा है। वह दिन में जिला कचहरी के सामने धरने पर बैठे नेताओं के पास बैठकर लनतरानियां सुनता, घर आकर रात में तस्वीरों में उनके चेहरों का मिलान करता। हर दिन उनके बयान पढ़ता और रात में रजिस्ट्री के कागजों पर उनके हलफनामे देखता। स्नेहलता द्विवेदी, डीआईजी के पिता के साथ इस बीच लखनऊ जाकर दो बार मुख्यमंत्री और कई विधायकों से मिल आई थीं। दिन में कई बार गाड़ियों से उतरने वाले सोने की चेनों, पान मसाले के डिब्बों, मोबाइल फोनों से लदे-फंदे लोग उनका हाल पूछ जाया करते थे। प्रशासन की सारी अपीलें ठुकराकर उन्होंने ऐलान कर रखा था कि यह धरना तभी उठेगा जब मड़ुवाडीह की सारी वेश्याएं शहर छोड़कर चली जाएंगी।

हमारी दारू, हमारा मुर्गा, आंदोलन उनका

[caption id="attachment_17071" align="alignleft"]अनिल यादवअनिल यादव[/caption]एक कहानी (9) : साड्डे नाल रहोगे तो ऐश करोगे : एक दिन चुपचाप प्रकाश ने अभिजीत के सामने प्रस्ताव रखा, मैं तुम्हारे साथ वहां चल सकता हूं लेकिन मुजरा कराना पड़ेगा, फोटो खींचना चाहता हूं। उसके मन में मुजरा देखने सुनने की भी बहुत पुरानी दबी इच्छा थी जो इस समय आसानी से पूरी हो सकती थी। इस इच्छा से भी बड़ी वह गुत्थी थी जिसे खोलने के लिए मड़ुवाडीह जाना शायद जरूरी था। एक शाम रुटीन के फोटो प्रेस में डाउनलोड करने के बाद वह जल्दी निकल गया और मड़ुंवाडीह की उस बस्ती में पहुंचकर उसने पाया कि वहां की बिजली काटी जा चुकी है। बस्ती के दोनों तरफ भरे पानी के उस पार बुलडोजरों की गड़गड़ाहट और छपाक-छपाक मिट्टी फेंकने की आवाजें आ रही थीं।

महावर, आशिक का बैनर और पुतलियां

[caption id="attachment_17053" align="alignleft"]अनिल यादवअनिल यादव[/caption]एक कहानी (8) : पुलिस वाले मंड़ुवाडीह की बदनाम बस्ती से फिर किसी लड़की को न घसीट ले जाएं, इसकी चौकसी के लिए टोलियां बनाकर रात में गश्त की जा रही थी। डर कर भागने वालियों को मनाने के लिए पंचायत हो रही थी। अदालत जाने के लिए चंदा जुटाया जा रहा था। पुराने ग्राहकों और हमदर्दों से संपर्क साधा जा रहा था। शहर में फैली इस कचरघांव के बीच मड़ुंवाडीह की बदनाम बस्ती में चुपचाप अखबारों पर रोशनाई और महावर से अनगढ़ लिखावट में ‘हमको वेश्या किसने बनाया, ‘काशी में किसने बसाया, जो किस्मत से लाचार-उन पर भी बलात्कार, पहले पुनर्वास करो-फिर धंधे की बात करो जैसे नारे लिखे जा रहे थे। पुआल, पॉलीथीन और कागज के अलावों पर एल्यूमिनियम की पतीलियों में पतली लेई पक रही थी।

हवा-हवाई टीवी के लिए मैं चिन्मय चिलगोजा…

[caption id="attachment_17051" align="alignleft"]अनिल यादवअनिल यादव[/caption]एक कहानी (7) : सी. अंतरात्मा का कौतुक : सी. अंतरात्मा को कंडोम बाबा बहुत दिलचस्प आदमी लगे, उस शाम अनायास उनका स्कूटर सर्किट हाउस की तरफ मुड़ गया और वह इंटरव्यू करने के बहाने उनसे मिलने चले गए। वे इस विचित्र आदमी को एक बार फिर देखना और उसकी छवि अपने मन में ठीक से बिठा लेना चाहते थे। उन्होंने सोचा था, लगे हाथ कंडोम के आठ-दस पैकेट भी मांग लेंगे। घर में पड़े रहेंगे, कभी-कभी काम आएंगे। सी. अंतरात्मा हमेशा इतने चौकन्ने रहते थे कि उन्हें अचूक ढंग से पता रहता था कि काम की कोई भी चीज मुफ्त में या कम से कम दाम में कहां मिल सकती है। उनमें अगर यह काबिलियत नहीं होती तो प्रेस की तनख्वाह से उनकी गृहस्थी का चल पाना असंभव था। दवाओं के मुफ्त सैंपल वे फार्मासिस्टों, डाक्टरों के यहां से लेते थे, बच्चों की किताबें सीधे प्रकाशकों से मांग लाते थे, कपड़े कटपीस के रियायती दाम पर लेते थे, प्रेस कांफ्रेंसों में मिलने वाले पैड और कलमें साग्रह बटोरते थे जो बच्चों के काम आते थे।

कंडोम बाबा की करूणा

[caption id="attachment_17040" align="alignleft"]अनिल यादवअनिल यादव[/caption]एक कहानी (6) : बनारस में धंधा बंद होने की खबर पाकर दिल्ली से कंडोम बाबा आए। साठ-बासठ साल के बुजुर्ग बाबा वेश्याओं को सेक्सवर्कर कहते थे और उन्हें एड्स आदि यौन बीमारियों से बचाने के लिए देशभर के वेश्यालयों में घूमकर कंडोम बांटते थे। ये कंडोम उन्हें सरकार के समाज कल्याण विभाग और कई विदेशी संगठनों से मिलते थे। वे लड़कियों की तस्करी और वेश्याओं के पुनर्वास की समस्याओं को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाते थे। वे समर्पित, फक्कड़ सोशल एक्टिविस्ट लिखे जाते थे। उन्हें फिलीपींस का प्रतिष्ठित मैगसायसाय पुरस्कार मिल चुका था। वे सर्किट हाउस में ठहरे। तड़के उठकर उन्होंने गंगा-स्नान और विश्वनाथ मंदिर में दर्शन किया। फिर फूलमंडी गए। वहां एक ट्रक से ताजा कटे लाल गुलाबों के बंडल उतर रहे थे। उन्होंने गिनकर एक सौ छिहत्तर फूलों का बंडल बंधवाया और सर्किट हाउस लौटे। प्रेस और टीवी वालों के साथ दनदनाता हुआ उनका काफिला मड़ुवाडीह से थोड़ा पहले सड़क किनारे रुक गया जहां उन्होंने अपना श्रृंगार किया।

लड़की लाना बंद करो दाज्यू

[caption id="attachment_17037" align="alignleft"]अनिल यादवअनिल यादव[/caption]एक कहानी (5) : धंधा बंद होने के एक हफ्ते बाद, डीआईजी रामशंकर त्रिपाठी का काफिला फिर मड़ुवाडीह पहुंचा। आगे उनकी बिल्कुल नई हरे रंग की जिप्सी थी। पीछे खड़खड़ाती जीपों में कई थानों के प्रभारी और लाठियों, राइफलों से लैस सिपाही थे। सबसे पीछे एक रिक्शे पर माइक और दो भोंपू बंधे हुए थे। शाम को जब यह लाव-लश्कर वहां पहुंचा तो मकानों की बत्तियां जल चुकी थी। आसमान पर छाते कुहरे के धुंधलके में बदनाम बस्ती के दोनों तरफ भरे पानी के गड़ढों के पार एक-एक बुलडोजर रेंग रहे थे। कोई कंस्ट्रक्शन कंपनी इस खलार जमीन को पटवा रही थी। कुहरे में हिचकोले खाते बुलडोजर बस्ती की तरफ बढ़ते मतवाले हाथियों की तरह लग रहे थे। एक जीप के बोनट पर मुश्किल से चढ़ पाए एक तुंदियल सिपाही ने माइक से ऐलान किया, ‘मानव-मंडी के सभी बंशिंदे फौरन यहां आ जाएं, डीआईजी साहब उनसे बात करेंगे, उनकी समस्याएं सुनेंगे और उनका निदान करेंगे।’ मडुवाडीह थाने में मानव-मंडी बाकायदा एक बीट थी।

तो बहनों, धंधा बंद

एक कहानी (4) : मडुवाडीह के आसपास के गांवों- मोहल्लों से लोकल नेताओं के बयान और अफसरों के पास ज्ञापन आने लगे कि वेश्याओं को वहां से तुरंत हटाया नहीं गया तो वे आंदोलन करेंगे। आंदोलन से प्रशासन नहीं सुनता तो वे खुद खदेड़ देंगे। रातों रात कई नए संगठन बन गए, राजनीति के कीचड़ में कुमुदिनी की तरह अचानक उभरी एक सुंदर और गदबदी महिला नेता स्नेहलता द्विवेदी आस-पास के इलाकों का दौरा कर औरतों को गोलबंद करने लगीं। उनका कहना था कि वे जान दे देंगी लेकिन काशी के माथे से वेश्यावृत्ति का कलंक मिटाकर रहेंगी। कई रात बैठकें और सभाएं करने के बाद वे एक दिन कई गांवों की महिलाओं को लेकर कचहरी के सामने की सड़क पर धरने पर बैठ गईं। तैयारी लंबी थी, यह धरना पहले क्रमिक फिर महीनों चलने वाले आमरण-अनशन में बदल जाने वाला था।

मठ, खंजन चिड़िया, मिस लहुराबीर

[caption id="attachment_17027" align="alignleft"]अनिल यादवअनिल यादव[/caption]एक कहानी (3) : डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी के भव्य, फोटोजेनिक, रिटायर्ड आईएएस पिता परिवार की प्रतिष्ठा, बेटे के कैरियर की चिंता के आवेग से मठों, अन्नक्षेत्रों और आश्रमों की परिक्रमा करने लगे। बनारस में ब्रिटिश जमाने के भी पहले से अफसरों और मठों का रिश्ता टिकाऊ, उपयोगी और विलक्षण रहा है। कमिश्नर, कलेक्टर, कप्तान आदि पोस्टिंग के पहले दिन काशी के कोतवाल कालभैरव के आगे माथा नवाकर मदिरा से उनका अभिषेक करते हैं। जो दुनियादार, चतुर होते हैं वे तुरंत किसी न किसी शक्तिपीठ में अपनी आस्था का लंगर डाल देते हैं, क्योंकि वहां अहर्निश परस्पर शक्तिपात होता रहता है। इन शक्तिपीठों में देश भर के ‘हू इज हू’ नेता, उद्योगपति, व्यापारी, माफिया, मंत्री भक्त या शिष्य के रूप में आते हैं।

आप कौन सा मसाला खाती थीं मेमसाहेब

एक कहानी (2) : एक हफ्ते बाद सिर मुड़ाए डीआईजी का बयान आया कि यह आत्महत्या नहीं, महज एक दुर्घटना थी। उनकी पत्नी पान मसाले की शौकीन थीं। बिजली जाने के बाद अंधेरे में उन्होंने पान मसाला के धोखे में, घर में पड़ा सल्फास खा लिया था।  साथ ही खबर आई कि लवली त्रिपाठी के पिता ने डीआईजी पर अपनी बेटी को प्रताड़ित करने व आत्महत्या के लिए उकसाने का मुकदमा किया है और अदालत जाने वाले हैं। क्राइम रिपोर्टर यह खबर फीडकर रहा था और सी. अंतरात्मा पान का चौघड़ा थामे पीछे खड़े थे।

लवली त्रिपाठी की आत्महत्या

एक कहानी (1) : छवि जिसे फोटो समझती थी, दरअसल एक दुःस्वप्न था। रास्ते में चलते-चलते अक्सर उसे प्रकाश के हाथों में एक चेहरा दिखता था और उसके पीछे अपने दोनों हाथ सीने पर रखे, कुछ कहने की कोशिश करती एक बिना सिर की लड़की….। प्रकाश जिसे सपना जानता था, एक फोटो थी जो कभी भी नींद की घुमेर में झिलमिला कर लुप्त हो जाती थी- रात की झपकी के बाद जागते, अलसाए घाट, लाल दिखती नदी और सुबह का साफ आसमान है। एक बहुत ऊंचे झरोखेदार बुर्ज के नीचे सैकड़ों नंगी, मरियल, उभरी पसलियों वाली कुलबुलाती औरतों के ऊपर काठ की एक विशाल चौकी रखी है। उस डोलती, कंपकंपाती चौकी पर पीला उत्तरीय पहने उर्ध्वबाहु एक कद्दावर आदमी बैठा है जिसके सिर पर एक पुजारी तांबे के विशाल लोटे से दूध डाल रहा है। चौकी के एक कोने पर मुस्तैद खडे़ एक मुच्छड़ सिपाही के हाथों में हैंगर से लटकी एक कलफ लगी वर्दी है जो हवा में फड़फड़ा रही है। थोड़ी दूर समूहबद्ध, प्रसन्न बटुक मंत्र बुदबुदाते हुए चौकी की ओर अक्षत फेंक रहे हैं।

…क्योंकि नगर वधुएं अखबार नहीं पढ़तीं

भड़ास4मीडिया पर बहुत जल्द एक लंबी कहानी का प्रकाशन शुरू होगा. लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव लिखित इस कहानी का नाम है ‘क्योंकि नगर वधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’. कहानी कुछ यूं है- उदास, निष्प्रभ तारे जैसा एक फोटो जनर्लिस्ट है. और है उसकी रहस्यमय नक्षत्र सी प्रेमिका. एक आत्महत्या के रहस्यों का पीछा करते हुए, वह दुनिया के सबसे पुराने यानि देह के धंधे के रहस्य जान जाता है. उन्हीं बदनाम गलियों में उसकी आंखें किसी वेश्या से नहीं अपने पेशे (पत्रकारिता) की आँखों से चार हो जाती है. यह आंखों का लड़ना मीडिया के क्रूर यथार्थ से मुठभेड़ है जिसमें शर्मसार होकर दोनों के आंखें फेर लेने के सिवा शायद कोई और रास्ता नहीं है…