वरिष्ठ और बुजुर्ग पत्रकार सतीश चंद्र ने 1947 में झारखंड की धरती पर कदम रखा था। तब से वह लगातार देश औऱ प्रदेश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े रहे। उन्होंने ‘इंडियन नेशन’ और ‘आर्यावर्त’ अखबारों में नौकरी की और धनबाद में ‘आवाज’ नामक साप्ताहिक अखबार निकाल रहे ब्रह्मदेव सिंह शर्मा के साथ मिलकर उसे दैनिक अखबार का स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने सन् 1982 में ‘आवाज’ से अलग होकर ‘जनमत’ नामक दैनिक अखबार निकाला। 50 वर्षों के पत्रकारीय जीवन में उन्होंने देश के शायद ही किसी पत्र-पत्रिका में न लिखा हो।
उनका मजदूर आंदोलन से भी नजदीकी रिश्ता था। कांतिभाई मेहता के साथ काफी काम किया। उनकी साहित्यिक कृतियों में कोयला मजदूरों की जिंदगी पर अनुसंधानपरक और मार्मिक उपन्यास ‘वन पाथर’ और ‘काली माटी’ को खूब सराहा गया। इन्हीं 85 वर्षीय सतीश बाबू को भ्रष्टाचार में डूबी संवेदनहीन झारखंड सरकार ने नहीं बख्शा। सत्ता में चाहे राजग की सरकार रही हो या यूपीए की, किसी ने इस बुजुर्ग पत्रकार के साथ न्याय नहीं किया। इसके उलट उन्हें परेशान ही किया गया। व्यवस्था के खिलाफ कई दशकों तक अपनी आवाज मुखर करने वाले सतीश चंद्र इस सड़ी-गली व्यवस्था के शिकार तब बने, जब सन् 2004 में झारखंड सरकार के माध्यमिक शिक्षा निदेशालय के आग्रह पर राज्य सरकार के पुस्तकालयों में अपनी चर्चित पुस्तक ‘अपना देश’ की पांच सौ प्रतियों की आपूर्त्ति कर दी। माध्यमिक शिक्षा निदेशालय के संबंधित अधिकारी ने सतीश चंद्र को लिखे अपने पत्र में कहा था कि वे पत्र में उल्लिखित राज्य पुस्तकालयों को बताई गई संख्या के मुताबिक अपनी पुस्तकों की आपूर्ति सीधे कर दें और बिल निदेशालय को भेज दें।
सतीशचंद्र ने ऐसा ही किया। महीनों बीत जाने के बाद भी जब बिल का भुगतान नहीं हुआ तो उन्होंने इसकी चर्चा इस लेखक से की। इसके बाद से अनेक पत्रकार इस मामले में रांची स्थित माध्यमिक शिक्षा निदेशालय में गए। घंटों खड़े रहने पर भी सिर उपर की ओर नहीं उठाने वाले क्लर्कों और अधिकारियों को झेला। कम से कम चार बार कहा गया कि बाद में आइएगा। अभी फुर्सत नहीं है। चौदह महीने बीत जाने पर बड़ी आरजू मिन्नतों के बाद एक अधिकारी का दिल पसीजा तो उन्होंने इतना भर बताया कि चेक तो बन गया था, लेकिन फाइल में पुस्तकालयों की पावती रसीदें नहीं होने के कारण चेक को डिस्पैच करना संभव नहीं हो सका है।
राज्य सरकारों से लेकर भारत सरकार तक के विभागों में प्रावधान है कि लेखकों से पुस्तकों की केंद्रीय खरीदारी करके विभागीय स्तर पर उन्हें संबंधित पुस्तकालयों मे भेजा जाता है। लेकिन झारखंड सरकार ने एक अतिरिक्त काम से बचने के लिए नायाब तरीका निकाल रखा है। खैर, सतीशचंद्र के शिष्य पत्रकारों ने चिलचिलाती धूप में पलामू से चतरा तक धूल फांकते हुए पुस्तकालयों से फिर से पावती रसीदें हासिल की। हालांकि यह काम काफी टेढ़ा था। जिस किसी पुस्तकालय से दोबारा पावती रसीद की मांग की गई, पुस्तकालयाध्यक्षों ने यह कहते हुए डुप्लीकेट पावती रसीद जारी करने में आनाकानी की कि यह उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर है। डीसी साहब आदेश देंगे तभी वे डुप्लीकेट रसीद दे पाएंगे। काफी मान-मनौव्वल करने पर ही डुप्लीकेट रसीदें हासिल करना संभव हो सका था।
उन सभी पावती रसीदों को सतीशचंद्र के पत्र के साथ माध्यमिक शिक्षा निदेशालय में जमा करवा दिया गया। संबंधित अधिकारियों ने कहा कि अब जल्दी ही बिल का भुगतान कर दिया जाएगा। लेकिन वह घड़ी आज तक नहीं आई है। तीन महीने पहले जब उक्त बिल की खोजबीन फिर से की गई तो एक अधिकारी ने वही पुराना रोना रो दिया कि फाइल में पावती रसीदें तो हैं ही नहीं। बिल का भुगतान कैसे होगा? अब समस्या यह है कि तीसरी बार पावती रसीदें कैसे हासिल की जाएं। दो बार में ही तो सारा तेल निकल चुका है।
पिछले चार सालों में मात्र एक ही अधिकारी माध्यमिक शिक्षा निदेशालय में संवेदनशील दिखा, जिसने अपने मातहत अधिकारियों को लिखित निर्देश दिया कि वे बिल का भुगतान अविलंब करें। उस अधिकारी का नाम है मणिकांत आजाद। इस भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी ने मिलने गए पत्रकारों से कहा कि वह खुद भी साहित्यकार हैं और एक ईमानदार पत्रकार व साहित्यकार के दर्द को समझ सकते हैं। उन्होंने यह भी कहा था कि वह इस पूरे घटनाक्रम से काफी दुखी हैं। मुझे लगता है कि श्री आजाद अपने पद पर कुछ दिन और बने रह गए होते तो शायद बिल का भुगतान हो जाता। लेकिन दुर्भाग्य से उनका जल्दी ही तबादला हो गया और उनके मातहत अधिकारियों ने फिर से फाइल को ठंडे बस्ते में डाल दिया।
झारखंड मे करोड़ों का वारा-न्यारा आम बात है। लेकिन एक मेहनतकश पत्रकार को महज 63 हजार रुपए के भुगतान के लिए ढेर सारे कानूनी पेंच खड़े कर दिए गए हैं। 85 वर्षीय इस पत्रकार को ऐसे समय में झारखंड सरकार की लालफीताशाही का शिकार होना पड़ रहा है, जब वह शारीरिक रूप से अस्वस्थ हैं। पत्रकारीय धर्म का निर्वहन करते हुए साहित्य सर्जना और उत्तरी छोटानागपुर के विकास के लिए अनवरत लंबी लड़ाइयां लड़ने वाले सतीश बाबू उम्र के इस पड़ाव पर थक गए हैं। इस बीच उनके साथ दो-दो घटनाएं हुईं हैं। वह एक बार गंभीर रूप से बीमार हुए और काफी टूट गए। दूसरी बार घर में गिर पड़े थे, जिससे उन्हें काफी चोटें आई थीं। परिणाम यह हुआ कि 85 साल की उम्र में भी सक्रिय रहने वाले सतीश बाबू के लिए पिछले कुछ दिनों से घर से बाहर नहीं निकलने की मजबूरी हो गई है।
लंबे समय तक संवेदनहीन राजनीतिज्ञों के हाथों में सत्ता की बागडोर होने के कारण अफसरशाही भी कितनी असंवेदनशील हो गई है, इसका जीता-जागता उदाहरण माध्यमिक शिक्षा निदेशालय में देखने को मिला। एक अधिकारी ने मुस्कुराते हुए यह कहने की हिम्मत की कि व्यवस्था के विरूद्ध लिखकर सहयोग की अपेक्षा करना बड़ी भूल है। प्रतिरोध करने पर वहां उपस्थित बाकी अधिकारी करने लगे कि ये बाहरी आदमी हैं। इनकी बातों से उन्हें लेना-देना नहीं। सवाल है कि वह बाहरी आदमी था तो निदेशालय में किस लिए था और उसे पुस्तक के कंटेंट के बारे में कैसे जानकारी थी? क्या सरकार में बैठे लोग ‘अपना देश’ पुस्तक के कंटेंट को नहीं पचा पाए? नीचे के मुलाजिम आदतन रिश्वत के चक्कर में फाइलों से रिकार्ड गायब कर-करके बुजुर्ग पत्रकार को परेशान करते रहे हैं? वैसे तो इस पुस्तक में देश की व्यवस्था पर सवाल उठाया गया है लेकिन पुस्तक का कंटेंट ऐसा है कि झारखंड के भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों को भी उसमें अपना चेहरा नजर आता है।
झारखंड के मौजूदा मुख्यमंत्री शिबू सोरेन के आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में उनकी बड़ी भूमिका रही है। सतीश बाबू ने ही पहली बार दिनमान साप्ताहिक पत्रिका में शिबू सोरेन पर स्टोरी की थी। अब शिबू सोरेन सत्ता में हैं, सतीश बाबू को भरोसा है कि वह उनके साथ न्याय करेंगे। पर देखना है कि नौकरशाही जीतती है या दिशम गुरू यानी मुख्यमंत्री शिबू सोरेन।
लेखक किशोर कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं। उनसे उनकी मेल आईडी [email protected] के जरिए संपर्क किया जा सकता है।