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पत्रकारिता की काली कोठरी से (9)

Alok Nandanजालंधर में अमर उजाला की लैबोरेटरी से

भाग (1),  (2), (3)(4), (5), (6), (7), (8) से आगे

सुबह तीन बजे ट्रेन जालंधर प्लेटफार्म पर रुकी। ट्रेन से बाहर निकलते ही हवा में ठंडक का अहसाह हुआ। सामान के नाम पर एक छोटा सा बैग था। सांसों में गर्मी लाने के लिए मैं प्लेटफार्म पर ही एक चाय की दुकान की ओर बढ़ चला। प्लेटफार्म पर दैनिक जागरण के बड़े-बड़े होर्डिंग चारों तरफ दिखाई दे रहे थे, अमर उजाला का कहीं नामो-निशान नहीं था।

Alok Nandan

Alok Nandanजालंधर में अमर उजाला की लैबोरेटरी से

भाग (1),  (2), (3)(4), (5), (6), (7), (8) से आगे

सुबह तीन बजे ट्रेन जालंधर प्लेटफार्म पर रुकी। ट्रेन से बाहर निकलते ही हवा में ठंडक का अहसाह हुआ। सामान के नाम पर एक छोटा सा बैग था। सांसों में गर्मी लाने के लिए मैं प्लेटफार्म पर ही एक चाय की दुकान की ओर बढ़ चला। प्लेटफार्म पर दैनिक जागरण के बड़े-बड़े होर्डिंग चारों तरफ दिखाई दे रहे थे, अमर उजाला का कहीं नामो-निशान नहीं था।

इस पंजाबी बेल्ट में हिन्दी के अखबार उस वक्त अपना पैर पसारने में लगे थे। जालंधर के रेलवे प्लेटफार्म पर चारों तरफ दैनिक जागरण की होर्डिंग देखकर स्पष्ट हो रहा था कि जागरण की मार्केटिंग टीम अपने प्रोडक्ट को लेकर स्पष्ट रणनीति अपनाये हुए है, जबकि अमर उजाला अपने ब्रांड के प्रति लोगों को जागरूक करने की होड़ में पीछे था। 

चाय की चुस्की लेने के बाद जब प्लेटफार्म से बाहर निकला तो नजर एक अखबार वाले स्टॉल पर पड़ी। उस स्टॉल पर हिंदी और अंग्रेजी के कई अखबार थे। वहां आने वाले ग्राहक दैनिक जागरण और अमर उजाला की बजाय पंजाब केसरी को तवज्जो दे रहे थे। मेरे सामने ही 30 लोगों ने अखबार खरीदे जिनमें 25 लोग पंजाब केसरी खरीदने वाले थे। मैं तीनों अखबार की एक-एक प्रति खरीदकर सोने के लिए ठिकाने की तलाश करने लगा। शहर से मैं पूरी तरह अनजान था। एक रिक्शे वाले ने मॉडल टाउन के एक गेस्ट हाउस में मुझे ले जाकर पटका। वहां मैं कंबल तान कर  गहरी नींद में सो गया।

नहाने-धोने के बाद मूली के पराठे खाकर सुबह दस बजे कपूरथला रोड पर स्थित अमर उजाला दफ्तर में कदम रखा। रिस्पेशन पर मेरी मुलाकात अनिल गुप्ता से हुई। जब मैंने उसे बताया कि मैं यहां ज्वाइन करने आया हूं और मुझे रामेश्वर पांडे से मिलना है तो उसने हंसकर मेरा स्वागत किया और बताया कि सभी लोग तीन बजे के बाद मिलेंगे। काफी देर तक उसके साथ बैठा रहा, और बातचीत के दौरान जब उसे पता चला कि यहां मेरे पास रहने के लिए कोई जगह नहीं है, तो उसने अपने साथ रहने के लिए मुझे आमंत्रित किया।

मुझे समय काटना था, इसलिए मैं टहलने के लिए बाहर निकल गया। बाहर एक चाय की टपरी पर अमरीक सिंह कुछ पत्रकारों के साथ बैठे हुये थे। बातचीत की पहल उन्होंने ने ही की। कुछ देर तक उनके साथ बैठने के बाद मैं यूं ही सड़कों पर चलते हुये एक दूर गांव की ओर निकल पड़ा। पक्की सड़क पर लंबी यात्रा के बाद उस गांव में जाने पर मुझ सुखद आश्चर्य हुआ। उस गांव के हर घर पक्के थे और नालियां भी बहुत ही व्यवस्थित थी। पूरा गांव घूमने के बाद तीन बजे के करीब वापस अमर उजाला के दफ्तर की ओर चल पड़ा।

ऑफिस के अहाते में घुसते ही मेरी नजर रामेश्वर पांडे पर पड़ी। मेरी ओर देखकर उन्होंने मुस्कराते हुये पूछा, “यात्रा कैसी रही?”

मैंने पूछा, ‘आप मुझे जम्मू कब भेजेंगे ?’

‘जल्दी क्या है, भेज देंगे। कुछ दिन यहां रह लो। अभी घूम फिर लो, थोड़ी देर बाद मेरे पास आना।’

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कुछ देर बाद इधर-उधर घूमने के बाद मैं फिर उनके पास पहुंचा। उस समय तक अखबार में काम करने वाले लोग धीरे-धीरे करके आने लगे थे। संपादकीय विभाग के एक छोटे से केबिन में रामेश्वर पांडे ने अपना अड्डा जमा रखा था। उनके टेबल पर पड़ा हुआ कंप्यूटर बंद था और की-बोर्ड उलटा पड़ा था, जिसे देखकर सहजता से यह अनुमान लगाया जा सकता था कि कंप्यूटर को ठोक-पीट करने की जरूरत वह नहीं समझते थे। केबिन के एक कोने में पड़े हुये एक बड़े से टेलीवीजन पर कोई खबरिया चैनल चल रहा था। मुझसे सामने की कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुये उन्होंने पूछा,

‘कंप्यूटर चलाना जानते हो?’ 

‘नहीं।’ मेरा जवाब था।

‘फिर खबर कैसे लिखोगे? यहां का सारा काम तो कंप्यूटर पर होता है। कल से कंप्यूटर सीखना शुरू कर दो। फिलहाल तुम्हारा यही काम होगा।’

वहीं से आवाज देकर उन्होंने न्यूज एडिटर शिव कुमार विवेक को बुलाया और कहा, ‘इसे भी उन्हीं लड़कों के बैच में डाल दीजिये, जो कंप्यूटर चलाना सीख रहे हैं।’

थोड़ी देर बाद शिव कुमार विवेक ने मेरी मुलाकात इष्टदेव पांडे से करा दी, जिन्हें इस नई टीम को कंप्यूटर का गुर सिखाने के लिए लगाया गया था। इष्टदेव पांडे कल से आने की बात कह कर अपने काम में लग गये। उस वक्त मैं नहीं जानता था कि समय पर पेज निकालने की चुनौती अखबार में क्या होती है, मैं तो फील्ड का बंदा था। सड़कों पर से खबर को लपकने में माहिर था, लेकिन पन्ने पर हेडिंग की सेटिंग लगाना तो दूर, हिन्दी में ‘क’ अक्षर भी टाइप करना नहीं आता था। कल इष्टदेव पांडे क्या कुछ कहने-सुनने वाले थे, मुझे नहीं पता था। 

कपूरथला मार्ग पर अमर उजाला की दो मंजिली बिल्डिंग एक बहुत बड़े कैंपस में दूर तक फैली हुई थी। इमारत के निचले तल्ले के अगले भाग में संपादकीय और पेज मेकिंग विभाग था, जबकि दूसरे भाग में अखबार छापने की बड़ी-बड़ी मशीनें लगी हुई थीं, और इन मशीनों से सटे हुए एक गोदाम में कागजों के मोटे-मोटे रोल रखे हुये थे। इष्टदेव पांडे से मिलने के बाद मैं इन्हीं मशीनों और कागजों के बंडलों में गुम हो गया। देर रात तक अखबार छपने की पूरी प्रक्रिया को समझने की कोशिश करता रहा, कुछ पल्ले पड़ा और कुछ नहीं। कागजों के बंडलों को चट करती हुई मशीनों को रंग-बिरंगे पेज उगलते देख मैं रोमांचित हो रहा था। कटे पेपर की ताजी खुश्बू मदहोश कर रही थी। उन अखबारों की कच्चे रंगों की स्याही मेरे हाथ पर में लग रही थी। अखबारी मशीनों को इतने बड़े पैमाने पर चलते हुये पहली बार देख रहा था, और बार-बार यही ख्याल आता था कि इन मशीनों को बेधड़क चलाने के लिए यूरोप में कितना हंगामा हो चुका है। चलती मशीनों से अबाध निकलने वाली संगीत में उन हजारों, लाखों और करोड़ों लोगों की आवाजें सुनाई दे रही थीं, जिन्हें इन मशीनों को इस रफ्तार से चलाने के लिए बहुत कुछ सहना पड़ा था। इन बेधड़क चलती मशीनों को देखकर दुनिया भर में अखबारों के दमन की दास्तां के गम को मैं पूरी तरह से भूल गया था। चलती हुई ये मशीनें बहुत बिजली खाती थीं। दो लोग सिर्फ बिजली वाले बटन पर ही केंद्रित थे। लोगों की एक टोली मशीनों से निकलने वाले अखबारों को समेट कर एक ओर रखने में लगी हुई थी, जबकि कई टोलियां इन्हें अखबारों के रूप में गढ़ रही थी। एक के बाद एक इन बंडलों को लॉरियों में डालने का सिलसिला भी कम रोचक नहीं था। उस कैंपस से रात भर पंजाब के विभिन्न शहरों के लिए अखबारों से भरी लॉरियां निकलती रही। मेरे लिए पूरी प्रक्रिया चमत्कृत करने वाली थी।      

इसी बीच अनिल गुप्ता से फिर बात हुई। वह बोला कि यदि नींद आये तो मेरे साथ चलकर सो लेना, चाहो तो चाभी ले लो। लेकिन कमरा तो आपने देखा नहीं है। आप चाहो तो अभी मेरे साथ चल सकते हो। रात में गुप्ता के कमरे पर अपने बैग के साथ पहुंचा और चादर तानकर सो गया।

दूसरे दिन इष्टदेव पांडे ने अपनी नई टोली में मुझे भी शामिल कर लिया। इस टोली में मीनाक्षी, प्रीति कर्मयोगी, अर्जुन निराला, संतोष पांडे आदि पहले से टाइपिंग का अभ्यास कर रहे थे। इष्टदेव पांडे ने मुझे भी एक कंप्यूटर पर बैठा दिया और कहा, ‘टाइपिंग सिर्फ अभ्यास का खेल है। शुरू में थोड़ी परेशानी होगी, फिर सब कुछ सहज हो जाएगा।’

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इसके बाद सुबह दस बजे से शाम चार बजे तक मैं लगातार टाइपिंग का अभ्यास करता रहता था। मेरी उंगलियां बहुत जल्द ही सहज तरीके से की-बोर्ड पर चलने लगी थीं। उस टोली के लोग आपस में इंटरेक्ट करने लगे थे, लेकिन मैं उनकी बातों में शरीक होने की बजाय दूर रहना ही ज्यादा पसंद करता था। इष्टदेव पांडे के साथ तालमेल बैठ गया था। अखबारों में सिंगल, डीसी और टीसी कॉलम के लिए तकनीकी तौर पर हेडलाइन और सब-हेड बनाने का गुर उन्हीं से सीखा। वह हेडिंग को तकनीकी तौर पर मजबूती से कसने को कहते थे, साथ में शब्दों के चयन का अधिकार व्यक्ति विशेष पर छोड़ देते थे।   

लंबी-लंबी कविताएं और साहित्यिक बातें सुनाकर अमरीक सिंह टोली के सदस्यों पर अपनी धाक जमाने की पूरी कोशिश करते थे। कुछ लोग उनकी नेकी की बातें सुनकर पूरी तरह से उनके मुरीद हो गये थे, जबकि अपने अनुभवों के आधार पर मैं बहुत पहले ही सीख चुका था कि जो नेकी का दम भरता हो उससे दूर रहो।

शाम होते-होते संपादकीय कक्ष की कुर्सियां भर जाती थीं। इन कुर्सियो पर काम करने वाले लोगों का नेतृत्व भूरी सिंह करते थे। उन्हीं के दिशा निर्देश में खबरें बनती थी। क्षेत्रीय खबरों के इन्चार्ज वही थे। जनरल डेस्क को अलग रखा गया था। इस पर दो शिफ्ट में ६-७ लोग काम करते थे। पीटीआई की खबरें रॉल के शक्ल में निकलती रहती थी। इन्हें काट-काट करके अलग करने के बाद इनका अनुवाद किया जाता था। पहले पेज की खबरों पर रामेश्वर पांडे की कड़ी नजर होती थी। 

रात में जल्दी-जल्दी पेज बनवाने के लिए भागमभाग मची रहती थी। पेज मेकरों की एक लंबी-चौड़ी टीम इस काम में लगी रहती थी। संपादकीय और पेज मेकिंग विभाग में बेहतर तालमेल था, हालांकि इन दोनों विभागों के लोग अक्सर एक-दूसरे की टांग खिंचाई भी करते रहते थे। 

अमर उजाला के इस दफ्तर में रामेश्वर पांडे ने संपादकीय विभाग की प्रभुसत्ता को बहुत ही मजबूती से कायम कर रखा था। लोगों की मानसिकता को समझकर उन्हें अपने तरह से हांकने की कला वह खूब जानते थे। इस अखबार में एक संपादक के अलावा वह अन्य कई भूमिकाओं को वहन कर रहे थे। व्यक्तिगत स्तर पर लोगों के वजूद को मान्यता प्रदान करते हुये उनकी अच्छाइयों का इस्तेमाल करना उन्हें खूब आता था, और शायद यही गुण था, जिसके कारण लोग उनका स्वत: अनुसरण करते थे। सामने वाले व्यक्ति को अपनी बात कहने का वह न सिर्फ पूरा मौका देते थे, बल्कि इसके लिए प्रेरित भी करते थे। चश्मे के पीछे उनकी अनुभवी आंखें हर व्यक्ति को बहुत ही बारीकी से स्कैन करती थी।

कंप्यूर के की-बोर्ड पर हाथ साफ करने का दौर चलता रहा। इष्टदेव पांडे की सबसे बड़ी खासियत उनकी सहजता थी। इसके अलावा शब्दों को वैज्ञानिक तरीके से तोड़ने और जोड़ने की उनकी अदभुत काबिलियत ने मुझे बेहद प्रभावित किया। समय के साथ मैं भी उनके साथ खुलकर बातें करने लगा था। टाइपिंग के बीच में पूरी टोली छोटे से कैंटीन के बाहर एक आम के पेड़ के नीचे जमा हो जाती थी। चाय के दौर के साथ बातों का सिलसिला चलता रहता था। 

शाम को जब सभी लोग अखबार निकलने में व्यस्त हो जाते थे, तो मैं बाहर दूर तक सैर पर निकल पड़ता था। इस इलाके में चप्पल-जूतों और तमाम तरह की वस्तुओं के छोटे-बड़े बहुत सारे कारखान थे। सूरज ढलते ही मटमैले कपड़ों में लोग तेलचट्टों की तरह इन कारखानों से निकलकर सड़कों पर फैल जाते थे। इनमें अधिकतर उत्तर प्रदेश, बिहार और नेपाल के लोग होते थे। कुछ देर इधर-उधर घूमने के बाद मैं अक्सर किसी गंदे से शराबखाने में बैठता था। इनकी बातों को सुनते हुये मैं देर रात तक पीता था। अपने क्षेत्र से रोजगार की तलाश में पलायन करने वाले इन लोगों की वास्तिवक स्थिति से मैं बहुत जल्द ही अवगत हो गया था। खतरनाक रसायनों के संपर्क में आकर कई लोगों के हाथ पूरी तरह से गल चुके थे। मशीन पर काम करते हुये अंग भंग होने के भी कई मामले मेरे सामने थे, जिन्हें बिना मुआवजा दिये ही चलता कर दिया गया। काम करते हुये एक मजदूर की मौत के बाद रातों रात उसकी लाश को बिहार उसके घर भेज दिया गया था। सड़कों के किनारे बने झोपड़ीनुमा दुकानों में असंख्य संख्या में छोटे-छोटे बच्चे काम करते थे। रात में इनके यौन शोषण की भयावह कहानियों से भी मैं अवगत हो चुका था। इन सब पर लिखने की खूब इच्छा होती थी, लेकिन अपनी इस इच्छा को मैं दबा देता था, क्योंकि मेरा उद्देश्य जम्मू-कश्मीर के लिए प्रस्थान करना था।

शिव कुमार विवेक को पता था कि मेरी नियुक्ति जम्मू के लिए हुई है। अन्य अखबारों के जम्मू संस्करणों का एक बंडल प्रतिदिन उनके पास आता था। उस बंडल को वह मेरे हवाले कर देते थे। लगभग प्रत्येक दिन उन अखबारों पर मैं एक नजर डाल ही लेता था। 


लेखक आलोक नंदन से [email protected]   के जरिए संपर्क किया जा सकता है।

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