‘न्यू मीडिया’ से बौखालाये और होलियाये आलोक मेहता ने होली के बहाने इस मीडिया की जोरदार तरीके से ऐसी की तैसी करने की कोशिश की। इसके लिये तमाम तरह के तर्क और कुतर्क गढ़े, और इस न्यू मीडिया की लानत-मलानत में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा, जो उनके लिए स्वाभाविक था। न्यू मीडिया के खिलाफ वह पूरी तरह से कुर्ता धोती फाड़ो वाले अंदाज में थे। उनके लिए मौका भी था और दस्तूर भी। लेकिन हुड़दंगई के मूड में आने के बाद जाने या अनजाने में वे न्यू मीडिया की अपार शक्ति का भी बखान भी ‘नईदुनिया’ अखबार की संडे मैग्जीन ‘संडे नईदुनिया’ में करते चले गये। और साथ में उन्हें इस बात का मलाल भी था कि न्यू मीडिया पुरातन मीडिया के मुकाबले सेंसर की परिधि से बाहर है। उन्हीं के शब्दों में, ‘ब्लॉग प्रभुओं का एक शब्द, अमेरिकी, चीनी राष्ट्रपति या ब्रिटिश प्रधानमंत्री तक, नहीं कटवा सकता है… खासकर हिंदी ब्लॉग पर उनका बस ही नहीं चल सकता…’।
जिस स्वतंत्रता को पाने में पुरातन मीडिया को एड़ी चोटी का बल लगाना पड़ा है (और अभी भी स्वतंत्रता के क्लाइमेक्स पर नहीं पहुंच सका है), उसे तकनीकी क्रांति की बदौलत न्यू मीडिया ने सहजता से प्राप्त कर लिया है। इसे एक उदाहरण से समझना आसान होगा। अखबार ‘अमृत बाजार पत्रिका’ का प्रकाशन क्षेत्रीय भाषा में बंगाल से होता था। सर एस्ले एडन उन दिनों बंगाल के लेफ्टिनेंट गर्वनर थे। जोड़ घटाव करके उन्होंने बाबू क्रिस्टो दास को ‘हिन्दू पैट्रियोटिक’ का संपादक बनवा दिया, ताकि उस अखबार को वह अपने तरीके से नचा सके। उस समय ‘अमृत बाजार पत्रिका’ के संपादक बाबू शिशिर कुमार सरकारी महकमों में जारी धांधलेबाजी और नील-खेती के नकारात्मक पक्षों पर बेबाक तरीके से अपने अखबार में लिख रहे थे। उस समय आज के ‘न्यू मीडिया’ की तरह प्रिंट मीडिया कई मायनों में स्वतंत्रता का भरपूर उपभोग कर रहा था।
भारत में काम करने वाले अंग्रेज संपादकों और पत्रकारों की वजह से अखबारों पर हुकूमत की पकड़ थोड़ी ढीली थी। बाबू शिशिर कुमार को अपने पक्ष में मिलाने के लिए एस्ले साहब ने सम्मान के साथ उन्हें अपने पास बुलाया और बोला, “मैं, आप और क्रिस्टो दास मिलकर बंगाल का शासन चलाएंगे। मेरे निर्देश में अपना अखबार चलाने के लिए किशोर दास तैयार हो गये हैं। आपको भी यही करना होगा। जो सहायता मैं ‘हिंदू पैट्रियोट’ को देता हूं, वह आपको भी मिलेगा। और सरकार के खिलाफ कुछ भी प्रकाशित करने से पहले उस आलेख की प्रति आपको मेरे पास भेजनी होगी। इसके बदले सरकार बहुत बड़ी संख्या में आपका अखबार खरीदेगी और सरकारी मामलात में बाबू क्रिस्टो दास की तरह मैं आपकी राय लेता रहूंगा।”
उन दिनों बाबू शिशिर कुमार की माली हालत ठीक नहीं थी। वैसे भी इस तरह के आफर पर अच्छे-अच्छे संपादकों के लार टपकने लगते (होली टिप्पणी- पता नहीं आलोक मेहता ऐसी स्थिति में क्या करते!) लेकिन बाबू शिशिर कुमार दूसरी मिट्टी के बने हुये थे। इस शानदार आफर के लिए एस्ले साहब को धन्यवाद देते हुये उन्होंने कहा, “जनाब इस धरती पर कम से कम एक ईमानदार पत्रकार को तो रहना ही चाहिये।” एस्ले साहब पर गुस्से का दौरा पड़ गया और फुंफकारते हुये बोले, “आपको पता है कि आप किससे बात कर रहे हो। इस सूबे का प्रमुख होने के नाते मैं किसी भी दिन आप को जेल की हवा खिला सकता हूं।”
यह कोरी भभकी नहीं थी। इसी घटना से वर्नाकुलर प्रेस एक्ट की नींव पड़ी। एस्ले साहब लार्ड लिटन से मिले और एक ही बैठक में वर्नाकुलर प्रेस एक्ट लाने की तैयारी हो गई। इसका मुख्य उद्देश्य अमृत बाजार पत्रिका के मुंह पर ताला लगाना था। (होली टिप्पणी- लगता है न्यू मीडिया को लेकर आलोक मेहता भी एस्ले साहब की मानसिकता में जी रहे हैं, वैसे फगुहाट का रंग भी हो सकता है।) लेकिन बाबू शिशिर कुमार एस्ले साहब से चार कदम आगे थे। 1878 में इस एक्ट के लागू होने के पहले ही उन्होंने अमृत बाजार पत्रिका को अंग्रेजी भाषा में तब्दील कर दिया, और लार्ड लिटन के वर्नाकूलर प्रेस एक्ट को ठेंगा दिखाते हुये निकल गये, क्योंकि अंग्रेजी अखबार इसके जद से बाहर था।
कहने का अर्थ यह है कि जिस स्वतंत्रता के लिए बाबू शिशिर कुमार को अपने अखबार की भाषा बदलनी पड़ गई, उसका मजा न्यू मीडिया को ऐसे ही मिल रहा है। अमेरिकी, चीनी राष्ट्रपति या ब्रिटिश प्रधानमंत्री जब इसके सामने विवश हैं तो क्या यह एस्ले साहब की मानसिकता की स्वाभाविक हार नहीं है? एस्ले साहब तो सरकारी अधिकारी थे, उनका इस तरीके से सोचना लाजिमी था, वो भी एक गुलाम देश के बारे में, लेकिन अपार स्वतंत्रता यंत्र पर होली हुड़दंगई करना एक संपादक के हाइपोक्रेसी का ही खुलासा करता है। उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जयगान करने वाला काफिला नहीं दिखाई दे रहा है, बस चंद पोस्ट पढ़कर अपने मनमाफिक निष्कर्ष निकाल कर खुद की पीठ थपथपाने में लगे हैं। दोष उनका नहीं है। तात्कालिक लाभ को दांत से पकड़ने वाले लोगों की दूरदृष्टि वैसे ही कुंद पड़ जाती है।
आने वाले 20-25 सालों में जब बिजली और नेट घर-घर पहुंच जाएगा तब इस तरह के क्रिएटिव लोगों को अपने वजूद को बचाने के लिए इसी न्यू मीडिया के शरण में आना पड़ेगा। न्यू मीडिया के प्रति विकसित होने वाली एस्लेवादी मानसिकता को यदि आप लोग रात में अगजा में नहीं डाले हैं तो सुबह उसे जरूर डाल दें। और फिर उसमें आलू पका के खाइये और होली के रंग में सराबोर हो जाइये….
न्यू मीडिया हो गई सस्ती
छा गई सब पे मस्ती
बोलो सब भोल बम बम
लिखो खूब, नाचो छम छम
भांग-धतूरा होवा ना कम
छेड़ो ना बेसुरा सरगम
जोगिरा सरररर, जोगिरा सरररर
लेखक आलोक नंदन प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में कई वर्षों तक काम करने के बाद कारपोरेट पत्रकारिता को गुडबाय बोल दिया. वे आजकल आजाद पत्रकारिता की अलग जगाए हुए हैं.
prabhat
March 5, 2010 at 5:36 am
please don’t favour any one blindly.
prabhat
March 5, 2010 at 5:35 am
Tewaree jee,
You may be right but I am not sure if U had read that particular article written by Alok jee. He was totally wrong in that article. Blog is an emerging medium and having lot of pros and con. Every blog is not just a dust bin. Many blogger are contly writting seriously and sometime they expressed/exposed those facts which were unexpressed/unexposed in spite of so many media Mogal. I know them. 90 percent blogger is writting on their inner demand without expecting any kind of profit .hence,they are serving for the society. But Alok jee has rejected all of them in a snap.
that piece was a blunder, a mindless and biased article. If Alok jee is really a great media-man he shuld must apolige.
anil pande
March 4, 2010 at 7:18 am
It was soft and polite remark for media devils
written by anil pande, March 04, 2010
Tewari ji,
get up now and dust your bottom.
anil pande
March 4, 2010 at 2:18 am
Tewari ji,
get up now and dust your bottom.
Sapan Yagyawalkya
March 2, 2010 at 2:31 am
Nai hawa se chidne-kudne ki jagah yadi ise sahajta ke sath sweekar karliya jaye tokya buri hai. Sapan Yagyawalkya BARELI (MP)
पंडित दुखहरण दास
March 2, 2010 at 2:36 am
आलोक जी,
(होली टिप्पणी- पता नहीं आलोक मेहता ऐसी स्थिति में क्या करते!) भाई नंदन जी आलोक जी दन्न से अपने लिए एक रायबहादुर की पदवी का जुगाड़ करवा लेते। उस समय पद्मश्री थोड़े ही थी।
(ये भी होली टिप्पणी है)
लेकिन ये होली की टिप्पणी नहीं है। आलोक मेहता एक भी रिपोर्ट ऐसी दिखा दें जिसे आसानी से एक रौ में पढ़कर रोमांचित और उत्साहित हुआ जा सके। दरअसल होली के बहाने आलोक जी ने नई मीडिया की उत्साही पत्रकारिता के सामने खुद की पत्रकारिता के बारे में मान ही लिया है कि उनमें कोई कुव्वत नहीं है। वे सिर्फ जुगाड़ी जीव हैं।
anil pande
March 2, 2010 at 4:40 am
लिखने के मामले मे आलोक मेहता मृणाल पांडे का महिला संस्करण हैं.
फ्रीलांसर होते तो इनके लेख कोई 50 रुपये मे नही छापता.
अल्ला मेहरबान तो आलोक मेहता पहलवान !
ranjesh
March 2, 2010 at 8:31 am
bhai sach me likhne ki quality behad kharab hai
ranjesh
radheshyam Tewai
March 2, 2010 at 12:14 pm
blunt remarks about respectable Mrinal ji and Alok ji shocked me for a while Then I remembered God to forgive them. They do not know the use of the language That is Bramha. Whether IKGujral Looks like Dev Gaura or Dev Gaura is like IK, It is immaterial. They are the ex Prime Ministers. They are on a highest point of achievements where many of us want to reach and feel envious But all are not capable of getting what they intend to get. Both are superior in Knowledge , smart in mangerial skill and a power to walk with the time. So they are there. I can say I am talented like any body, with more than 40 years of experiences in print and electronisc,both. But I do not know so many things what is required in the struggle of life. They won the race ,I salute them. But at the same time I disagree with them. When Mrinal ji Joined as an editor of Hindustan one of my colunm in Rangoli was axed, I din’t mind. I never felt any time to beg that again as long as she remained as the editor..They are bests,so they are there. One who has got a dirty habit of spitting , he can do any time at any body.even at the sky.