महिला पत्रकार के साथ ममता के तथाकथित लोगों द्वारा रेप करने की बात पर पुण्य प्रसून वाजपेयी जी कुछ ज्यादा ही सेंटिमेंटल हो गये हैं। सत्ता का दमन तो उन्हें दिखाई दे रहा है लेकिन सैद्धांतिक रूप में पत्रकारिता की सीमा को निर्धारित करने से वह परहेज करते हुये दिखते रहे हैं। साथ ही यह स्वीकार कर रहे हैं कि व्यवहारिक तौर पर पत्रकारिता मीडिया हाउसों मालिकों की लौंडी हो चली है, और उसकी सारी अकुलाहट मीडिया मालिकों पर अपना प्यार न्योछावर करने के लिए है। छद्म रूप में ही सही पुण्य प्रसून वाजपेयी पत्रकारिता के जमीनी हकीकत को स्वीकार तो कर ही रहे हैं। एक सधे हुये कलमची की तरह वह लिखते हैं, ‘लेकिन यहां सवाल उस राजनीति की है, जो पहले संस्थानो को मुनाफे या धंधे के आधार पर बांटती है और उसके बाद उसमें काम करने वाला पत्रकार अपनी सारी क्रियटीविटी इसी में लगाना चाहता है कि वह भी संस्थान या मालिक से साथ खड़ा है।’
पुण्य प्रसून वाजपेयी जी यह तो स्वीकार कर रहे हैं कि मीडिया हाउस में काम करने वाले एक पत्रकार की सारी क्रिएटीविटी संस्थान के मालिक के साथ खड़ा होने में लगती है। अब प्रश्न उठता है कि संस्थान का मालिक किस स्टफ पर खड़ा है। अपने हितों की पूर्ति करने के लिए वह किस राजनीतिक प्लेटफार्म पर जमा हुआ है। संस्थान मालिकों के लिए संस्थान शुद्ध मुनाफा का धंधा है, वह इसी मनोवृत्ति से संचालित होता है। इसके साथ ही राजनीतिक सत्ता से जुड़े अन्य फायदे पर भी वह जीभ लपलपाता रहता है। यदि पुण्य प्रसून जी की माने तो एक पत्रकार की क्रियटीविटी मुनाफाखोर मालिको की महत्वकांक्षा में स्वत स्वंय को आत्मसात कर लेती है। तो क्या यह मान लिया जाये कि आज पत्रकारिता मुनाफे के धंधे से जुड़ चुकी है, और इसी में इसका भविष्य निहीत है। पत्रकारिता में पद दर पद सफलता पाने के लिए यह जरूरी शर्त है कि आप भी मालिकों के साथ मुनाफे के आधार पर खड़े हो जाइये, और खबरों को निर्धारित करने का आधार इसी मुनाफे को बनाना चाहिये, जैसा कि बनाया जा रहा है। वैसे संस्थानों को मुनाफे के धंधे के आधार पर बांटना राजनीति का काम नहीं है, बल्कि यह तो वर्तमान पत्रकारिता का स्वाभाविक चरित्र है, जिसके हिस्सेदार सभी पत्रकार हैं। ऊंचे पदसोपान पर बैठे पत्रकार की भागीदारी कुछ ज्यादा है। अब प्रश्न उठता है कि मुनाफाखोर मालिकों के हित को गार्ड करते हुये कोई पत्रकार जनहित वाली पत्रकारिता के लिए अपने कितने प्रतिशत उर्जा का इस्तेमाल कर पाता है। और मालिकों के हित और जनहित में विरोधाभाषी स्थिति उत्पन्न होने की स्थिति में वह किस जमीन पर खड़ा होने का मादा रखता है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मालिकों के साथ खड़ा होने का भ्रम पैदा करते हुये वह खुद उन सुविधाओं और मलाई के हित में खड़ा होता है, जिसका स्वाद उसे पत्रकारिता मे डग भरने के दौरान उसे कब लगा है उसे खुद भी पता नहीं होता ?
पुण्य प्रसून जी आगे लिखते हैं, ‘मुझे याद नहीं आता कि किसी पत्रकार को किसी संस्थान से बीते एक दशक में जब से न्यूज चैनल आये है, इसलिये निकाल दिया गया हो कि उसने मीडिया हाउस के राजनीतिक लाभ वाली सोच के खिलाफ स्टोरी की हो।’ इस सवाल का सीधा सा जवाब है कि मीडिया हाउस के खिलाफ राजनीतिक लाभ वाली सोच रखने वाले पत्रकार अप्रत्यक्षरूप से उस मीडिया हाउस के हित में ही काम कर रहे होते हैं, और सोच रखने से यह थोड़े ही होता है कि उनकी इतर सोच वाली खबरें प्रसारित हो रही हो। प्रश्न खबरों को बनाना या बुनना नहीं है, प्रश्न है खबरों का प्रसारण किस सोंच पर हो रहा है। खबरों के साथ मामला एंगल का है, और इस एंगल पर किसका अधिकार है, पत्रकारों का? पत्रकार से प्रबंधक और मालिक बन चुके मीडिया कर्मियों का ?? मैकेनिज्म में खबरों को ठोक पीट कर दर्शनीय बनाने वाले टेक्निकल पत्रकारों का ?? या सत्ता से चिपककर राजनीतिक लाभ के लिए जोड़तोड़ करने वाले मीडिया हाउस मालिकों ?? और खबरों को प्रसारित करने के नीति निर्धारण में जनहित को लेकर इनलोगों के दिमाग में क्या कुछ उमड़ता घुमड़ता है।
संजय कुमार सिंह मीडिया से जुड़े एक ओपेन सेक्रेट पर से सहज शब्दों में पर्दा उठाते हुये लिखते है, ‘पुराने और मंजे हुए लोग जान गए हैं कि मीडिया की आजादी जितनी समझी जाती और दिखाई देती है, उतनी दरअसल है नहीं। इनका यह वाक्य एक साथ कई सारे सवाल खड़े करता है, हालांकि नये पत्रकारो को प्रशिक्षित करने की बात कह कर इस सबंध में वह आगे कुछ नहीं कहते हैं। मीडिया की आजादी की सीमा कहां पर आकर खत्म होती है, और कैसे खत्म होती है इस तथ्य पर वह प्रकाश नहीं डालते हैं, पुराने पत्रकारों के लिए इसे अंडरस्डूट मानकर चलते हैं।
पत्रकारिता कैसे की जाये,…पत्रकारों की प्रजाति को रेखांकित किये बिना पत्रकारिता इस सवाल का उत्तर का निकाल पाना थोड़ा कठिन हो सकता है। पिछले एक दशक में इस मौलिक सवाल के कोई कलेक्टिव उत्तर पर कामन विल बन पाया है कि पत्रकारिता है क्या ??
राजकुमारी डायना को पत्रकारिता ही निगल गई थी, पैपराजियों का करतूत था। उसकी निजता में घुस रहे थे। यदि ममता खुद को पैपराजियों से बचाती है, तो इसमें पत्रकारिता और पत्रकार पर सवाल क्यों ??? सच है खबरों को तलाश करने की कोई सीमा नहीं है, लेकिन खबरों को तलाशते हुये इसके व्यवहार को प्रभावित कर देना खबरनवीसी के मौलिक व्याकरण का उल्लंघन तो है ही। एक महिला पत्रकार को रेप करने की बात की जाती है, पत्रकारिता को लिंग भेद पर न बांटकर देखना इसके साथ क्रूर मजाक है, नाचती घूमती खबरों के बीच वो भी खूब घूमती हैं, और खबरों के साथ-साथ खबरों को तय करने वालों को भी घूमाती हैं। क्या कभी यह हेड लाइन बन सकता है कि एक पूरूष पत्रकार का रेप हुआ है ???
ममता के लोगों ने कितने पत्रकारों को तोड़ा फोड़ा ?? सीमा तोड़ने पर सत्ता का सिस्टम खुद पत्रकार और पत्रकारिता को उसकी औकात बता देती है। दुनिया के इतिहास में यदा कदा ही होता है कि कोई पत्रकार किसी महल को जनता द्वारा लूटे जाने के बाद उस पर एक तख्ती टांग देता है कि किराये के लिए यह महल खाली है।
संजय कुमार सिंह आगे जूनियर पत्रकारों को बचाने और संवारने की बात करते हुये लिखते हैं,” आप चैनल को दोष दीजिए, उसके वरिष्ठों को कटघरे में लाइए पर नए या जूनियर पत्रकार की नीयत पर शक मत कीजिए। उसे तो यह बताए जाने की जरूरत है घाघ पत्रकारों और लालची मीडिया मालिकों से बचने की जरूरत है। और कैसे बचें। ” संजय कुमार सिह घाघ पत्रकारों का जिक्र तो करते हैं लेकिन उनके लक्षणों की पहचान नहीं करते हैं। यदि वह घाघ पत्रकारों के लक्षणो की व्याख्या करते तो शायद तथाकथित जूनियर पत्रकार खुद ब खुद बचाव का रास्ता खोज लेते या फिर एक घाघ पत्रकार के लक्षणों को आत्मसात करके पत्रकारिता के उस खेल में शरीक होने के लिए कमर कस लेते जिसे सीखते हुये समय के साथ कई लोग जूनियर पत्रकार की यात्रा से घाघ पत्रकार तक का सफर तय कर चुके हैं।
अरविंद शेष जी एक लिंक देते हुये कहते हैं, ‘The office-bearers of the Press Club, Kolkata and several senior editors were seen giving phone-ins and TV interviews condemning the action by the Trinamul Congress, however, all the ire was directed against the politicians without any sign of introspection. Wouldn’t it have been more effective to send a clear message to journalist employees not to tolerate or support the violation of their and other journalists’ rights to work, information and expression?’’
वह मीडिया के लिए आत्मनिरीक्षण की बात करते हुये पत्रकारो के कार्य करने के अधिकार की बात करते हैं, यानि सूचना बटोरने और उन्हें प्रसारित करने का अधिकार। सूचना बटोरने को लेकर पत्रकारों को अलग से कोई अधिकार नहीं दिया गया है। जो साख पत्रकारों ने बनाई है उसे संभालने के लिए यह जरूरी है कि पत्रकार लोग अपनी गरिमा को खुद समझे और उसे बनाये रखे।
गोविंद गोयल बड़ी बेबाकी से पत्रकारों की वर्तमान स्थिति को रखते हुये कहते हैं, ‘वह ज़माने लद गए जब पत्रकारों को सम्मान की नजर से देखा जाता था। आजकल तो इनके साथ जो ना हो जाए वह कम। यह सब इसलिए कि आज पत्रकारिता के मायने बदल गए हैं। मालिक को वही पत्रकार पसंद आता है जो या तो वह बिजनेस दिलाये या फ़िर उसके लिए सम्बन्ध बना उसके फायदे मालिक के लिए ले।‘ जो बात यह कह रहे है उससे सीधा सा सवाल उठता है कि पत्रकारों का सम्मान क्या था, और वे किस तरह अपने सम्मान पर बट्टा लगाते जा रहे हैं। वाजपेयी जी क्या संस्थान मालिकों से इतर हटकर पत्रकार अपनी क्रिएटीविटी का स्वतंत्र तरीके से इस्तेमाल कर पाएंगे, कई संस्थानों में सलामी ठोक चुके पत्रकारों को सीधे सीधे इस प्रश्न से रू-ब-रू होना चाहिये। सत्ता के खेल में शामिल होकर पत्रकारिता करने से रेप की धमकी और मार कुटाई जैसा साइड इफेक्ट तो पत्रकार और पत्रकारिता को झेलना ही पड़ेगा।