अचानक लोगों को हिंदी के सिद्ध और प्रसिद्ध संपादक प्रभाष जोशी के बौद्धिक अस्तित्व पर आपत्ति होने लगी है। वे विनम्र होने का अभिनय करते हुए प्रभाष जोशी से जो सवाल कर रहे हैं, वे हमलावर तो हैं मगर हमले के लिए हिम्मत के अलावा तर्क और तथ्य का बारूद भी चाहिए जो हमारे इन मित्रों के पास नहीं हैं। एक मित्र बृजेश सिंह ने लिखा है कि अगर पत्रकार और अखबार मालिक पैसा ले कर राजनेताओं की खबरे छाप रहे हैं तो इसमें क्या गुनाह कर रहे हैं? उनका आशय यह है कि प्रभाष जोशी इन मामलों पर सवाल करने वाले होते कौन हैं? उनका सवाल यह भी है कि प्रभाष जी अरविंद केजरीवाल द्वारा आरटीआई यानी सूचना के अधिकार संबंधी घोषित पुरस्कार की जूरी में एक लांछित अखबार के संपादक-मालिक के होने पर ऐतराज क्यों कर रहे हैं?
चलिए, शुरू से चलें। पहली बात तो यह है कि बृजेश सिंह उसी समाचार पत्र समूह में काम करते हैं जिस पर सबसे ज्यादा लांछन लगे हैं। मुझे पक्का भरोसा है कि अगर ये लांछन सही हैं और उनके अखबार ने पैसा कमाया है तो उसमें से बृजेश भाई को एक हिस्सा मिला है। उनकी स्वामिभक्ति की तारीफ करनी पड़ेगी। ये भी कहा गया कि प्रभाष जी एक असफल अखबार के सफल संपादक हैं। जरा मुहावरे में कहें तो प्रभाष जी को पिटी हुई फिल्म का सुपरस्टार बताया गया है।
बात जनसत्ता की हो रही है और जनसत्ता के जन्म से जुड़ा होने के कारण एक भावनात्मक लगाव आज तक मेरा है इसलिए कुछ शब्द उसके बारे में। जनसत्ता जब निकला था तो बहुत सारे विद्वान बुद्धिजीवियों ने कहा था कि एक सड़क छाप अखबार निकल रहा है। उन्हें जनसत्ता की सरल भाषा और सीधी अभिव्यक्ति पर ऐतराज था। लेकिन यही जनसत्ता सस्ते कागज पर छप कर, बिना हीरोइने की अधनंगी तस्वीरें छापे सिर्फ दिल्ली संस्करण सवा तीन लाख बिका और अखबार के पहले पन्ने पर लिखना पड़ा कि हमारी छापने की मशीनें जवाब दे गई हैं और अब पाठक अखबार मिल बांट कर पढ़ें। यह सब दो साल के भीतर हो गया था। जितना समय जमे जमाए अखबार को भी नया संस्करण जमाने में लगता है।
प्रभाष जी का पहला और आखिरी सरोकार पत्रकारिता है। इस मामले में वे अपने प्रति और अपनों के प्रति बराबर निर्मम हैं। वे जनसत्ता से मुझे नौकरी से निकाल चुके हैं इसलिए मैं यह बात प्रमाणिक तौर पर कह सकता हूं। दुनियादारी की प्रतिष्ठा उन्हें चाहिए होती तो वे पीवी नरसिंह राव से ले कर अटल बिहारी वाजपेयी तक के साथ उठते बैठते और खाना खाते रहे हैं। जयप्रकाश नारायण के प्रताप से जब बिजली के खंभे भी संसद में पहुंच गए थे तो प्रभाष जी के कहने पर जिन लोगों का राजनैतिक उद्धार हुआ था उनमें लालू यादव जैसे लोग भी हैं। ऐसा व्यक्ति अवार्ड या जूरी को लेकर ईर्ष्या में सवाल उठाएगा, यह कोई कैसे सोच सकता है?
जनसत्ता असफल अगर हुआ तो उसकी धारावाहिक कई वजहे हैं। पहली और निर्णायक वजह तो यह है कि रामनाथ गोयनका के निधन के बाद जब कमान विवेक गोयनका के हाथ में आई और उन्होंने सूत्रधार उन शेखर गुप्ता को बनाया जिन्हें चंडीगढ़ में एक्सप्रेस के दफ्तर के सामने मैदान में क्रिकेट खेलते प्रभाष जी ने देखा था और खेल संवाददाता नियुक्त कर दिया था, तो एक्सप्रेस समूह की प्राथमिकताओं में जनसत्ता नहीं रहा। एक्सप्रेस बिल्डिंग में विवाद था तो एक्सप्रेस का ऑफिस कुतुब इंस्टीट्यूशनल एरिया में लिया गया और जनसत्ता को नोएडा में पटक दिया गया।
इसके अलावा प्रभाष जी ने जिन लोगों का चयन किया और उत्तराधिकारी बनाया उनमें से ज्यादातर निकम्मे और कई तो बाकायदा भ्रष्ट निकले। मैं खुद से शुरू करूंगा। मुझे टीम चलाना नहीं आता। क्रिकेट की भाषा में कहें तो मैं सोलो प्लेयर हूं। मगर प्रभाष जी ने बाइस साल की उम्र में मुझे चीफ रिपोर्टर बना दिया। मेरी टीम में ज्यादातर या तो अंकल जी थे या बड़े भाई। मैं जनसत्ता के इतिहास का सबसे निकम्मा चीफ रिपोर्टर साबित हुआ। मगर उसके फौरन बाद उन्होंने मुझे मुंबई संस्करण की टीम में भेज दिया जहां उनके एक पुराने शिष्य जयंत मेहता संपादकीय प्रभारी थे और दिन में ऑफिस में दारू पी कर आया करते थे। वे अश्लील चुटकुले सुनाया करते थे। एक दिन उनकी ठुकाई कर दी तो मुझे मुंबई से बुला लिया गया और बुला कर सजा देने की बजाय प्रमुख संवाददाता बना दिया गया।
जनसत्ता में राजनैतिक संपादक के तौर पर काम कर रहे और राजस्थान में बहुत सारी खदानें खरीदने वाले हरिशंकर व्यास, जिन्हें अपना नाम भी ठीक से लिखना नहीं आता, से झगड़ा हुआ और लगभग गाली गलौज हुई। मुझे पक्का भरोसा था कि इस बार प्रभाष जी नौकरी से बाहर ही कर देंगे। मगर पता चला कि ठीक प्रभाष जी के बगल में एक केबिन बना और उसमें मैं विराज गया। मुझे सिर्फ अपनी मर्जी की विशेष समाचार कथाएं लिखनी थीं। इस सबके बावजूद उस जमाने में जब इंटरनेट आया भी नहीं था, गूगल की मदद से हिंदी टाइप नहीं की जा सकती थी और आज तक मैं अपना नाम भी टाइप नहीं कर सकता, एक लेख में मेरे पासवर्ड से पैरे के पैरे बदल दिए गए और मैं बेरोजगार हो गया।
प्रभाष के अस्तित्व पर और उनके सरोकारों पर सवाल उठाने की हैसियत जब रामनाथ गोयनका की नहीं थी तो जो लोग सेठों की नौकरियां-दलालियां कर रहे हैं, वे कैसे उठा रहे हैं, समझ में नहीं आ रहा। जितनी पत्रकारिता प्रभाष जी कर चुके हैं उतनी चाह कर भी पूरी जिंदगी में हम नहीं कर पाएंगे। प्रभाष जी उन लोगों में से हैं जिन्होंने अपना वेतन बढ़ने के खिलाफ मैंनेजमेंट को शिकायत की थी। प्रभाष जी उन लोगों में से हैं जिनके बेटे संदीप रणजी और इंग्लैंड में काउंटी खेल चुके हैं और सुनील गावस्कर व कपिल देव से दोस्ती के बावजूद प्रभाष जी ने संदीप को भारत की टीम में शामिल करवाने की पहल नहीं की। मेरे कहने पर स्वर्गीय माधव राव सिंधिया ने स्पोर्ट्स कोटे में संदीप को एयर इंडिया में नौकरी दे दी तो प्रभाष जी ने मुझसे बोलना बंद कर दिया। प्रभाष जी आधुनिक युग के कबीर हैं और भले ही कभी सूट पैंट और टाई पहन लेते हों और कभी धोती कुर्ता मगर मन से वे पूरे देहाती है।
इसलिए साथियों से निवेदन है कि प्रभाष जी के आशय पर कभी संदेह करने का दुस्साहस मत करना। पत्रकारिता का इतिहास आप पर हंसेगा। संदीप एयर इंडिया में है ही, छोटा बेटा सोपान न्यूयार्क टाइम्स में हैं और बेटी सोनाल एनडीटीवी के मुंबई के ऑपरेशंस में सबसे बड़े पदों में से एक पर हैं। फिर भी प्रभाष जी लिख कर रोजी कमाते हैं और अक्सर अगर जहाजों में बैठे दिखते हैं तो उन्हें निमंत्रण के साथ टिकट भेजा जाता है। बाकी टीवी चैनलों पर मेहमान बन कर जाते हैं और ज्यादातर से अच्छी खासी फीस मिलती है। उन्हें किसी लाल जी टंडन या मनमोहन सिंह से मदद नहीं चाहिए। चलते-चलते यह भी कि बहुत सारे लोग इस भ्रम में हैं कि प्रभाष जी राज्यसभा में जाना चाहते थे। उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि राज्यसभा में मौजूद राजीव शुक्ला और संजय निरुपम भी प्रभाष जी के जनसत्ता से निकले हैं और प्रभाष जी चाहते तो कब के राजनीति के गलियारों में एक ताकतवर पात्र के तौर पर नजर आते।
प्रभाष जोशी के बाद आपको दूसरा प्रभाष जोशी नहीं मिलने वाला। आलोक तोमर, देशपाल सिंह पंवार और बृजेश सिंह बहुत मिल जाएंगे। हम अपने संस्कारों के हिसाब से अगर चलें और हैसियत से आगे बढ़ कर सूरज को आइना न दिखाएं, उसी में हम सबकी खैरियत है। रही बात पत्रकारिता में दलाली करने वालों की तो सच सुन कर उन्हें पसीना क्यों आ जाता है? दलाली करो, पत्रकारों को थोड़ा बहुत वेतन दो, जब चाहे मंदी का बहाना बना कर उन्हें निकाल दो और इसके बावजूद अपने अखबरों की दम पर सरकार से ठेके और टेंडर के अलावा फैक्ट्रियों के लाइसेंस लेते रहो। यह आपका रास्ता है। आपको मुबारक। लेकिन अपने ‘दलाल पथ’ को जमाने के लिए ‘सत्य पथ’ की ओर उंगली मत उठाओ। प्रभाषजी ने जो आजीवन किया, वो उनका सत्याग्रह था। आप जैसे लोग जो कर रहे हैं उसे दुराग्रह या दुष्टाग्रह ही कहा जा सकता है।
लेखक आलोक तोमर मशहूर पत्रकार हैं और न्यूज एजेंसी ‘डेटलाइन इंडिया’ के संपादक हैं। उनसे संपर्क के लिए आप [email protected] पर 09811222998 का इस्तेमाल कर सकते हैं।