बृजेश सिंह का लिखा मेरा मकसद हंगामा खड़ा करना नहीं पढ़ा। उन्हें कुछ तथ्य बताने जरूरी हैं, सो उनकी सेवा में हाजिर हैं-
जनसत्ता 1987 में शुरू हुआ था और आपातकाल 1977 में खत्म हो गया था.
तूफान में तिनके की तरह जनसत्ता आकाश में नहीं गया था, जनसत्ता तो खुद तूफान था.
प्रभाष जी जनसत्ता के संपादक नहीं हैं. ओम थानवी हैं जिनके पास अखबार छोड़ कर हर धतकरम के लिए वक्त है.
मेरी भाषा में गाली-गलौज किधर है? मूर्ख शब्द गाली नहीं बल्कि विशेषण है.
मैं तिहाड़ गया तो पत्रकारिता के मानकों की रक्षा करते हुए गया. इलाके के थानेदार को सेल्यूट करने वाले नहीं समझेंगे कि दिल्ली के पुलिस आयुक्त के कालर पर हाथ डालने का मतलब क्या होता है.
जनसत्ता से जुदा होना कहां छिपाया है? मैंने खुद लिखा है और कई बार लिखा है.
प्रभाष जी को वास्तव में लोगों की पहचान नहीं है. सब पर सहज विश्वास कर बैठना उनका स्वभाव है.
मुझे भाषा का शऊर नहीं है, ये यहां लिख दिया सो लिख दिया, मगर खुद अपने आप से पूछ कर देखिए.
दलालों को हक नहीं कि वे प्रभाष जी जैसे आन्दोलन से निकले व्यक्ति को आन्दोलन का रास्ता बताएं.
प्रभाष जी हर किसी के सवाल का जवाब देने के लिए बाध्य नहीं हैं.
जनसत्ता, बोले तो, एक महाघटना जो इतिहास के पन्नों में दर्ज है. कोई जागरण या उजाला इसे दोहरा नहीं पाया.
आन्दोलन जैसे शब्द वही बोलें जिनके दामन काले न हुए हों वरना आंदोलन शब्द को शर्म आ जाएगी.
और आखिर में, प्रभाष जी को किसी प्रवक्ता की जरूरत नहीं है. उनका लिखा एक-एक शब्द हमारी पूरी जिंदगी की मेहनत पर भारी पड़ जाएगा.