मूर्धन्य पत्रकार ने पत्रकारिता को सार्वजनिक रूप से शर्मशार किया : पहले भ्रष्ट राजनेता पत्रकारों को कुत्ता कहते थे। अब भ्रष्ट पत्रकार खुद को कुत्ता कहने लगे हैं। दरअसल ऐसा कर वे कुत्ता जाति का भी अपमान कर रहे हैं। कुत्ता स्वामीभक्त और वफ़ादार होता है, जबकि उक्त स्वयंभू कुत्ता न स्वामीभक्त है और न ही अपने पेशे के प्रति वफ़ादार। सरकारी सुविधा पाने के लिए अपनी चदरिया सत्ता के चरणों में बिछाने वाले इस पत्रकार ने पचास वर्षों तक पत्रकार का चोला पहनकर पूरे समाज के साथ छल किया। 23 अगस्त को मध्य प्रदेश जनसंपर्क विभाग द्वारा भोपाल के भारत भवन में आयोजित एक संगोष्ठी में देश के एक कथित मूर्धन्य पत्रकार ने पत्रकार जगत को जिस प्रकार से सार्वजनिक रूप से शर्मसार किया है, उससे मेरे जैसे पत्रकार को बहुत पीड़ा हुई है। इससे भी बुरी बात ये है कि उसका ये चेहरा समाज के सामने तब आया जब उसने पत्रकारिता के नाम पर मिलने वाली तमाम सरकारी और गैर सरकारी सुविधाओं को जमकर भोग लिया। सरकारी मंच से अपने को कुत्ता कहने वाला ये पत्रकार गर्व के साथ बताता है कि उसको अपने परिवार को पालने के लिए किस प्रकार से अख़बार मालिकों और सत्ता के सामने दुम हिलाना पड़ती है। उसने ये भी कहा कि कभी-कभी तो स्वार्थ इतने हावी हो जाते हैं कि दुम कुत्ते को हिलाती है।
इन पत्रकार महोदय से मैं पूछना चाहता हूं कि तुम्हें किसने विवश किया था इस पवित्र मिशन में आने के लिए। क्या किसी डॉक्टर ने बताया था कि तुम पत्रकार बन जाओ। काश! इस पवित्र मिशन में घुसने से पहले तुमने इतिहास पढ़ा होता और जाना होता कि किस प्रकार से सुराज जैसे अख़बारों में पत्रकार दो सूखी रोटी और एक गिलास पानी में नौकरी करते थे। बावजूद इसके कि उस अख़बार के आठ में से चार संपादकों को काले पानी की सज़ा हो चुकी थी। क्या उनके अपने परिवार नहीं थे। क्या उन्हें अपने परिवार से मोहब्बत नहीं थी। क्या उनके मन में अच्छा जीवन जीने की उमंग नही थी। क्या परिवार को लेकर उनकी आंखों में सपने नहीं थे। वो भी तुम्हारी तरह इंसान थे। लेकिन तुममें और उनमें बड़ा फ़र्क यह था कि वे सच्चे देशभक्त की तरह अपनी मातृभूमि की आन-बान और शान के लिए पत्रकारिता करते थे और तुम अपनी मां की आन-बान और शान को पूंजीपतियों के हाथों नीलाम कर रहे हो। केवल अपने मुट्ठी भर परिजनों का जीवन संवारने के लिए। इस मिशन को कलंकित करने से तो अच्छा था कि तुम परचून या पान की दुकान खोल लेते। इससे भी परिवार नहीं चलता तो एक रात में पांच हजार का नोट छापने वाला कोई दूसरा धंधा कर लेते, लेकिन इस मिशन को तो पवित्र बने रहने देते।
संतोष की बात यह है कि तुम गुलामी के दौर में पत्रकार नहीं थे वर्ना तुम अपने परिवार की खातिर देश का सौदा करने से भी नहीं चूकते। तुम्हारी इस बिकाऊ प्रवृत्ति के कारण ही एक मिशन बाज़ार बन गया और धीरे-धीरे यह बाज़ार किसी रंडी का कोठा बनता जा रहा है। शायद तुम नहीं जानते कि तुम जो लिखते हो उसे सवेरे-सवेरे नल के आने के इंतजार में सड़क के किनारे खड़ा इंसान कितने विश्वास से पढ़ता है। उसे क्या मालूम कि परिवार की चिंता में जीने वाले कथित क़लमवीर उसके विश्वास के साथ कितना बड़ा छल कर रहे हैं। पचास वर्ष तक इस स्वयंभू कुत्ते ने पत्रकार का चोला पहनकर पत्रकारिता को कलंकित किया और अब अपने को कुत्ता कहकर कुत्ता जाति का अपमान कर रहा है। शायद इसे पता नही है कि कुत्ता जिस जगह बैठता है उस जगह को साफ़ करके बैठता है, लेकिन ये स्वयंभू कुत्ता जिस जगह बैठता है, उस जगह को भी गंदा कर देता है। कुत्ते की वफ़ादारी से इतिहास भरा पड़ा है, लेकिन जिस अख़बार ने इसे नाम दिया और पहचान दी इसने हमेशा उसके विरुद्ध झण्डा उठाने वालों का साथ दिया।
चिंता इस बात की भी है कि कार्यक्रम को सफ़ल बनाने के लिए माखनलाल चतुर्वेदी पत्राकारिता विश्वविद्यालय के जिन बच्चों ने ये नंगा नाच अपनी आंखों से देखा वो अपना भविष्य किस दिशा में तय करेंगे? यदि वे इन तथाकथित कलमवीरों के बताए मार्ग पर चल पड़े तो पत्राकारिता को कुत्ताकारिता बनने में अधिक समय नहीं लगेगा।
हमसे पूछो कि सहाफ़त मांगती है कितना लहू,
लोग कहते हैं धंधा बड़े आराम का है।