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जिंदगी जीने को जोखिम उठाते ये मासूम

कब जायेगी इन पर नजर : यूं तो घटनाएं होती रहती हैं, कुछ घटनाएं भुला दी जाती हैं तो कुछ घटनाएं अपनी छाप और सवाल छोड़ जाती हैं। मैं यहां एक ऐसी घटना का जिक्र करने जा रहा हूं जो सरकारी योजनाओं की पोल खोलने के लिए काफी है। मैं रोज विश्वविद्यालय से घर को लौटता हूं। आज का दिन कुछ सवाल और कुछ दर्द मेरे लिए छोड़ गया। शाम के वक्त देखा कि एक 6 साल की लड़की अपने उम्र से ज्यादा ही जोखिम भरे करतब दिखा रही है। करतब भी ऐसे कि रुह कांप जाए। अपनी ऊंचाई से कई गुना ऊंची तनी रस्सी पर इस अबोध बालिका का चलना इसकी मजबूरी और गरीबी को दर्शा रही थी। सोचा- पूछ लूं कि वो क्यों ऐसा कर रही है, जिस उम्र में पढ़ने का जज्बा, खेलने की उमंग और हसीन सपने देखे जाते हैं, उस उम्र में वह इतना जोखिम क्यों उठा रही है।

<p align="justify"><font color="#993300">कब जायेगी इन पर नजर : </font>यूं तो घटनाएं होती रहती हैं, कुछ घटनाएं भुला दी जाती हैं तो कुछ घटनाएं अपनी छाप और सवाल छोड़ जाती हैं। मैं यहां एक ऐसी घटना का जिक्र करने जा रहा हूं जो सरकारी योजनाओं की पोल खोलने के लिए काफी है। मैं रोज विश्वविद्यालय से घर को लौटता हूं। आज का दिन कुछ सवाल और कुछ दर्द मेरे लिए छोड़ गया। शाम के वक्त देखा कि एक 6 साल की लड़की अपने उम्र से ज्यादा ही जोखिम भरे करतब दिखा रही है। करतब भी ऐसे कि रुह कांप जाए। अपनी ऊंचाई से कई गुना ऊंची तनी रस्सी पर इस अबोध बालिका का चलना इसकी मजबूरी और गरीबी को दर्शा रही थी। सोचा- पूछ लूं कि वो क्यों ऐसा कर रही है, जिस उम्र में पढ़ने का जज्बा, खेलने की उमंग और हसीन सपने देखे जाते हैं, उस उम्र में वह इतना जोखिम क्यों उठा रही है। </p>

कब जायेगी इन पर नजर : यूं तो घटनाएं होती रहती हैं, कुछ घटनाएं भुला दी जाती हैं तो कुछ घटनाएं अपनी छाप और सवाल छोड़ जाती हैं। मैं यहां एक ऐसी घटना का जिक्र करने जा रहा हूं जो सरकारी योजनाओं की पोल खोलने के लिए काफी है। मैं रोज विश्वविद्यालय से घर को लौटता हूं। आज का दिन कुछ सवाल और कुछ दर्द मेरे लिए छोड़ गया। शाम के वक्त देखा कि एक 6 साल की लड़की अपने उम्र से ज्यादा ही जोखिम भरे करतब दिखा रही है। करतब भी ऐसे कि रुह कांप जाए। अपनी ऊंचाई से कई गुना ऊंची तनी रस्सी पर इस अबोध बालिका का चलना इसकी मजबूरी और गरीबी को दर्शा रही थी। सोचा- पूछ लूं कि वो क्यों ऐसा कर रही है, जिस उम्र में पढ़ने का जज्बा, खेलने की उमंग और हसीन सपने देखे जाते हैं, उस उम्र में वह इतना जोखिम क्यों उठा रही है।

उस लड़की का जबाब मुझे रुला गया। उसका जबाब था- “साहब, ये सब ना करेंगे तो इस पेट को कैसे भरेंगे।” ये सुना तो सोचा, इतनी सी बच्ची और इतनी बड़ी सोच। उसके साथ आए उसके भाई से पूछा कि तुम इससे क्यों यह सब करा रहे हो तो उसका जबाब था- “साहब बच्ची के करतब दिखाने से ज्यादा कमाई होती है।”

सोचता हूं कि जब बाल कल्याण के लिए सरकार इतना काम कर रही है तो ऐसे में ये बच्चे कहां छूट जाते हैं और योजनायें बनती भी हैं तो फिर किन व्यक्तियों के लिए। बजट में करोड़ों रुपये बीपीएल और ऐसे बच्चों के लिए होते हैं तो वो कहां चले जाते हैं। फिर मुझे ध्यान आई मध्य प्रदेश सरकार की ‘लाडली योजना’, जो बनाई गई है ऐसे ही बच्चों के लिए जो असमर्थ हैं। शिक्षा प्राप्ति के लिए, पालन-पोषण के लिए बनी ये योजनाएं शायद कागज पर ही सज-संवर कर रह गई।

जब सरकार ऐसी योजनाएं भली भांति चला बना नहीं सकती तो बनाती ही क्यों है? शिक्षा के अधिकार समेत कई बाल कल्याण की योजनाओं से कितने बच्चे छूट गए हैं, यह जानने के लिए कौन प्रयास करेगा। इन गरीब बच्चों को अधिकार तो बाद में चाहिए, पहले तो इनके पेट को निवाला चाहिए ताकि वो चैन से सो सकें, जी सकें। सड़क किनारे चल रहा ये तमाशा जो लोग भी देख रहे थे, उसमें कई लोग पढ़े-लिखे और धनवान भी थे। ऐसे समूह जो वैलेंटाइन-डे के विरोध में सड़कों पर आतंक मचाते हैं, वे इन गरीब बच्चों के भले के लिए क्यों नहीं काम करते। गरीबों की मदद में उनका जोश ठंडा क्यों पड़ जाता है। गरीबी और अशिक्षा के चलते न जाने कितने ही मासूम अपनी भूख मिटाने के लिए ऐसा जोखिम उठा रहे हैं, पर हमारी सरकारें सब देख के भी अनजान बनी रहती हैं। अंधी बनी हुई है। सरकारी अफसर यदि आंकड़े दुरुस्त करने की बजाय क्षेत्रों में जाकर देखे कि योजनाओं की क्या स्थिति है और कौन-कौन लाभ की प्रतीक्षा में है को देश-समाज का ज्यादा भला होगा। मासूमों की स्थिति यदि ऐसी ही रही तो अब्दुल कलाम के 2020 के भारत का सपना सपना ही रह जायेगा।


लेखक आशुतोष शर्मा माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के छात्र हैं। उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।
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