मैं ‘न्यूज़24’ पर एंकरिंग कर रहा था। दिल्ली बम धमाकों पर ‘विशेष’ था। हम सवाल ये उठा रहे थे कि क्या हमारे देश को शिवराज पाटिल जैसे लाचार और बेबस गृहमंत्री की ज़रूरत है? इस सवाल के जवाब में दर्शकों के ढेरों फोन आए। किसी ने शिवराज पाटिल को ‘हारा हुआ सिपाही’ बताया तो किसी ने कहा कि ‘शिवराज पाटिल सिपाही होने लायक हैं ही नहीं’। खैर, दर्शक हैं, उनकी अपनी निजी राय भी है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल-अधिकार भी।
इसी बीच केन्द्रीय गृह-राज्य मंत्री डॉ.शकील अहमद का फोन लग गया। उनसे बातचीत शुरू हुई। एक दो सवालों तक तो मामला गुडी-गुडी रहा, लेकिन जैसे ही मैंने तीखे सवाल किए, वे हत्थे से उखड़ गए। लगे चांय-चांय करने। बेसिर-पैर की बातें करने लगे। चीखने लगे। चिल्लाने लगे।
उनके तेवर देखकर तो एकबारगी मुझे ऐसा लगा कि अगर मैं डॉ.शकील अहमद साहब के सामने होता तो वो मेरी गिरेबान पकड़ कर मुझसे गुत्थम-गुत्था होने पर उतारू हो जाते। मैनें ये महसूस किया कि उनकी खीझ इस बात पर थी कि मैंने उनसे तीखे सवाल क्यों पूछे? क्यों मैनें उन्हे भाषणबाज़ी नहीं करने दी? क्यों उन्हें विरोधियों को बुरा-भला नहीं कहने दिया?
लगे हाथों शकील अहमद साहब ने ये तक पूछ डाला कि मीडिया को क्या अधिकार है हमसे सवाल-जवाब करने का? आप जैसे टीवी चैनल वाले टीआरपी के लिए ये सब कर रहे हैं?
लेकिन जब मैनें उनसे कहा कि टीआरपी के लिए हम क्या कर रहे हैं, ये तो आपको मालूम है लेकिन आप और आपकी नेता बिरादरी के सफेदपोश लोग वोट हथियाने के लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाते हैं, ये आपको मालूम है? इस सवाल का जवाब न तो उन्हे देना था और न ही उन्होने दिया लेकिन उनकी आवाज़ में तल्खी और बढ़ गई। स्वर और तेज़ हो गया। मान-मर्यादा भूलते से लगे मंत्री जी। गाली-गलौच भर नहीं की उन्होंने लेकिन लगा कि अगर मैं उनके सामने होता तो वो कैमरा बंद करवा कर, जी भर गरियाने से गुरेज़ न करते।
मैंने जब उन्हें याद दिलाया कि इस वक्त आप नेशनल टेलीविज़न पर हैं, संयमित रहें तब जाकर ज़रा नरम हुए।
मैनें अगला सवाल किया कि मंत्री जी, आप जांच के दावे कर रहे हैं, आतंकियों को न बख्शने का राग अलाप रहे हैं लेकिन आप पिछले सवा चार साल से ज्यादा वक्त से सरकार में हैं, इस दौरान देश भर में डेढ़ दर्जन जगहों पर आतंकियों ने धमाके किए हैं, कितने आतंकियों को पकड़ पाए आप? इस सवाल का जवाब भी नहीं था मंत्री जी के पास। गनीमत रही कि उन्होंने ये नहीं कहा कि मैं कोई आंकड़े लिए थोड़े ही बैठा हूं।
मेरा अगला सवाल था ‘फैशन’ मंत्री शिवराज पाटिल के संदर्भ में। पूछा कि दिल्ली में इंसानी खून सड़कों पर बह रहा था और केन्द्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल साहब तीन घंटों में तीन बार अलग-अलग सूट में नज़र आए थे, ऐसा क्यों? इसके जवाब में फट पड़े शकील अहमद। ‘शिवराज भक्त’ शकील अहमद ने कहा कि ये पाटिल साहब का निजी मामला है। वो आपको बता कर कपड़े बदलेंगे क्या?
देखिए, कितना शर्मनाक बयान है देश के केन्द्रीय गृह-राज्य मंत्री का। अरे भई, जनता गाज़र-मूली की तरह काटी जा रही है, इंसानी मांस के लोथड़े सड़कों पर बिखरे पड़े हैं, लोग चीख-पुकार, करुण-क्रंदन कर रहे हैं और देश का गृहमंत्री मीडिया कैमरों के सामने चमाचम तरीके से आने के लिए तीन घंटे में तीन बार सूट बदल रहा है। वॉटर-प्रूफ मेकअप कर रहा है ताकि पसीने में भी चेहरा दमकता रहे।
मीडिया कैमरों के सामने गृहमंत्री का बयान ऐसा लगा मानों टेप-रिकॉर्डर चालू कर दिया हो पाटिल साहब ने। ऐसा बयान जो पिछली कई दफा दे चुके हैं मंत्री जी। ऐसा बयान जो आतंकी हमले में भी फिट हो जाता है, रेल-हादसे में भी और प्राकृतिक आपदा के वक्त भी। बावजूद इसके ‘शिवराज भक्त’ शकील अहमद जी को शायद ये सब कुछ नज़र नहीं आया। वो लगातार चीखते रहे, असंयमित भाषा का इस्तेमाल करते रहे। ‘न्यूज़24’ समेत पूरी मीडिया पर तोहमतें मढ़ते रहे लेकिन ये नहीं बताया कि कब सुकून से सो पाएंगे भारत के आम-लोग? ये भी नहीं बता पाए शकील अहमद साहब कि क्या आम हिंदुस्तानियों का खून इतना सस्ता है कि जिसे जब आतंकी चाहेंगे सडकों पर बहाएंगे और हमारे स्वंय-भू ज़िम्मेदार नेता सास-बहू की तरह से चों-चों, चें-चें करते रहेंगे?
शकील अहमद साहब क्या ये बताएंगे कि उनके वरिष्ठ केन्द्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने तीन घंटे में जो तीन बार सूट बदले, उसकी वाकई ज़रूरत थी क्या? अगर नहीं थी तो फिर शकील अहमद साहब देश की सवा सौ करोड़ जनता के सामने ये क्यों नहीं कह पाए? क्यों शकील अहमद साहब ने कुतर्क दिया? क्यों शकील अहमद साहब ने कहा कि कपड़े बदलना शिवराज पाटिल का निजी मामला है?
शकील साहब, आप और शिवराज पाटिल साहब दोनों जनता के नुमाइंदे हैं, जनता वोट देती है आपको। अपनी सुरक्षा की खातिर अधिकार सौंपती है आपको। जनता के पैसों से आपकी शानो-शौकत होती है इसीलिए आप लोगों को भी चाहिए कि जनता की भावनाओं को ठेस न पहुंचाएं और अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने के चक्कर में जनता को उल्लू न बनाएं। क्योंकि लगातार उल्लू बन रही जनता अगर जाग गई तो फिर समझ जाइए कि वो किसको उल्लू बनाएगी?
शकील अहमद साहब ये भी दलील दे रहे थे कि राज्य की सुरक्षा का ज़िम्मा राज्य सरकार के ऊपर होता है। हम कुछ नहीं कर सकते। और ये कहते हुए लगे वो सियासी बातें करने। नरेन्द्र मोदी और आडवाणी को निशाना बनाने लगे। शायद वो भूल गए थे कि दिल्ली में बीजेपी की नहीं, खुद उन्ही की पार्टी कांग्रेस की सरकार है और राजधानी होने के नाते दिल्ली की सुरक्षा का ज़िम्मा केन्द्र सरकार के कंधों पर है। अरे भई, अगर आप नाकाम हुए हैं, आपका खुफिया तंत्र फेल हुआ है, सारी दुनिया हकीकत को देख भी रही है तो फिर आपको कुबूल करने में क्या दिक्कत है?
और जिस वक्त शकील अहमद साहब चीख-चीख कर खुद को सही साबित करने की कोशिश कर रहे थे उसी वक्त हमारे पास दर्शकों के फोन भी आ रहे थे। शकील अहमद साहब ने सिर्फ अपनी बात कही और झल्ला कर फोन काट दिया लेकिन उसके बाद जितने भी फोन हमारे पास आए, सभी दर्शकों ने कहा कि शिवराज पाटिल साहब और शकील अहमद साहब के भीतर अगर ज़रा सी भी नैतिकता बाकी है तो उन्हें अपने पदों से इस्तीफा दे देना चाहिए? शकील अहमद साहब हालांकि जनता के सवालों का जवाब देने के लिए हमारे साथ नहीं थे लेकिन उन्होंने अपने आलीशान सरकारी बंगले में बैठकर जनता की बातें ज़रूर सुनी होंगी तो पब्लिक सब जानती है की दुहाई देने वाले शकील अहमद साहब, क्या जनता की मांग पर इस्तीफा देंगे?
वाकई, ऐसे तमाशाई, फैशन-परस्त गृहमंत्री की हमें कतई ज़रूरत नहीं। एक शख्स को तो मैनें ये कहते भी सुना कि ‘अच्छा होता कि संसद भवन पर हमला कामयाब हो जाता और सारे नक्कारे नेता मार दिए जाते’। मैं ये नहीं कहता कि वो शख्स सही कह रहा था लेकिन ज़रा सोच कर देखिए आप, कितना ज्यादा गुस्सा है लोगों के मन में, बावजूद इसके हमारे नेता सत्ता-सुख भोगने में लगे हुए हैं। आम इंसानों का खून सड़कों पर बहाया जा रहा है, इंसानी मांस के लोथड़े यहां-वहां बिखरे हुए हैं लेकिन नेताओं को गाल-बजाने से फुर्सत नहीं मिल रही। हर हमले के बाद कहते हैं- शांति-धैर्य बनाए रखें। आतंकी कायर हैं।
मैं पूछता हूं क्यों और कैसे शांति बनाए रखें वो लोग जिन्होने अपने-अपनों को खोया है। अगर गृहमंत्री शिवराज पाटिल या उनके डिप्टी श्रीप्रकाश जायसवाल और डॉ.शकील अहमद के घर का कोई करीबी रिश्तेदार मारा जाता तो क्या तब भी ये खद्दरधारी ऐसे ही बयान देते? क्या अपने करीबी रिश्तेदारों की लाशों को देखकर भी आप यही कहते कि हमें शांति बनाए रखनी है? हमारे नेताओं के इन नालायक बयानों पर शर्म आती है हमें। शर्म आती है हमें इस बात पर कि ऐसे रीढ़-विहीन लोगों के हाथों में है हमारी सुरक्षा और विकास का ज़िम्मा।
रमज़ान के पाक महीने में परवरदिगार से दुआ तो यही है कि हमारे चोंचलेबाज़ नेताओं को अकल आए और वो बयानबाज़ी के बजाय आम लोगों को सुरक्षा मुहैया कराने के फिक्रमंद हों… इंशाअल्लाह…।
लेखक टीवी चैनल न्यूज़24 में एंकर/सीनियर प्रोड्यूसर हैं। उन तक अपनी बात [email protected] के जरिए पहुंचा सकते हैं।