बरेली में हिंदुस्तान और अमर उजाला की तरफ से एक दूसरे के लोगों के खिलाफ इज्जतनगर थाने में मीडिया इंडस्ट्री की बेइज्जती कराने वाला मुकदमा दर्ज कराया जा चुका है। हिंदुस्तान के लोगों ने धारा 395, 397 में रिपोर्ट दर्ज कराई है तो अमर उजाला वालों ने धारा 395 में। हिंदुस्तान ने हमले की खबर प्रकाशित की पर शालीनता यह बरती कि अमर उजाला का नाम नहीं प्रकाशित किया। सूत्र बताते हैं कि अमर उजाला में यह खबर छपी ही नहीं। समझौते के प्रयास चल रहे हैं पर बरेली जैसे समझदार और संभ्रांत कहे जाने वाले शहर के मीडिया वाले खुद को इस एपिसोड से शर्मसार पा रहे हैं। कुछ लोग किस्सा भी बता रहे हैं कि बीस साल बाद यह कुदृश्य देखने को मिला है।
सन 89 में जागरण और आज के बीच बरेली में मारामारी हुई थी। तब आज और जागरण में पूर्वी उत्तर प्रदेश में उखाड़ने-पछाड़ने का खूब खेल चला करता था। पहलवानी का वही भूत बरेली तक पहुंचा था। सिविल लाइंस में मार हुई थी। उन दिनों भी अमर उजाला हुआ करता था लेकिन अमर उजाला अपनी संभ्रांत और समझदार छवि के तहत चुपचाप खेल-तमाशे को दूर से ही देखता रहा।
पर बीस साल बाद जब गंगा का काफी पानी प्रदूषित हो चुका हो तो अमर उजाला कैसे शुद्ध रह सकता है। वह हिंदुस्तान के बरेली में आने पर ताव खाया फन काढ़े था। मौका देख अमर उजाला के लोग टूट पड़े। हिंदुस्तान वाले पैसे और पब्लिसिटी से खेलते हैं, वो मसल पावर में इसलिए भरोसा नहीं करते क्योंकि उनका स्वभाव कारपोरेट वाला है- मीठी छुरी से हलाल करने वाला। पर बदले वक्त में अमर उजाला ने जिस तरह अपनी शालीनता छोड़ी है, वह आश्चर्यजनक के साथ-साथ दुखदायी और दुर्भाग्यपूर्ण भी है।
मशहूर कवि और पत्रकार वीरेन डंगवाल के इस शहर में लोग एक दूसरे को शांतिप्रियता और विनम्रता से पराजित करते हैं, लाठी-चाकू-छुरे से नहीं। पर हिंदुस्तान-अमर उजाला में जो कुछ हुआ, वह शहर को बड़े मीडिया घरानों की लोभ की होड़ के हवाले होने की शुरुआत की कहानी बयान करता है। भले ही दोनों अखबारों में समझौता हो जाए पर हारा तो बरेली शहर ही है।
चलिए, दुआ करते हैं कि इन मीडिया मालिकों को सदबुद्धि आए और इनके अखबार के कर्मचारी आपसी बैर भुलाकर पाठकों को असली व जन-जन की खबरों से रूबरू कराने के अभियान में जुट जाने पर दिमाग और ताकत जाया करें।
बरेली से एक पत्रकार की रिपोर्ट