एक जमाने में पत्रकारिता को समझने वाले और जीने वाले खादी का कुरता पहने, चप्पल पहने, आंखों में चश्मा लगाए, एक झोले में खबरों के साथ विचारों को लेकर सीना तान कर चलते हुए दिख जाया करते थे। देखने से ही लगता था कि हां ये तो पत्रकार महोदय ही हो सकते हैं। तब वे समाज का आइना कहे जाते थे। तब के दौर में पत्रकारिता को समाज और विश्व का फोर्थ पिलर कहने में कुछ बुराई नजर नहीं आती थी। किसी पत्र-पत्रिका में छपी खबर से जन आन्दोलन हो जाया करते थे। सरकारें गिर जाती थीं।
समाज परिवर्तित हो जाया करता था। रोड पर न्यूज पेपर बाटने वाला हाकर भी खबरों की महत्ता को समझ कर हेडलाइन को खूब चीख-चीख कर पढ़ता था और जन समूह उस अखबार को खरीदने के लिए टूट पड़ता था। आखिर कहां गए वो दिन? क्यों बदल गई वो सोच? खादी का कुरता आखिर कहां खो गया? महात्मा गांधी के जैसे चश्मा पहने कोई पत्रकार मुझे क्यों नहीं मिला? आज आइना हमें देख कर आंखों से आंखें मिलाने क्यों नहीं देता? क्योंकि अब पत्रकारिता उनके पास नहीं रही जिनके पास विचारों का तो भंडार है लेकिन पैसा नहीं है। जिनके पास खबर लिखने के लिए हाथों में दम तो है पर वो पेपर नहीं है जो उसकी खबर छाप सके। शासन और प्रशासन की जी-हजूरी करने वाले पत्रकारों के लिए तो उनका खुद का फाउंटेन पेन अपनी कोख से स्याही निकालते घबराता होगा। दिया बुझने वाला है – फिर जला दो इस दिए को – तेरा कलम कह रहा है – बदल दो बदली सोच को।