दिल्ली के कान्सटीट्यूशन क्लब में पुस्तक ‘आतंकवाद और भारतीय मीडिया‘ का लोकार्पण किया गया। पुस्तक के अंग्रेजी-हिंदी संस्करणों का एक साथ प्रकाशन हुआ है। दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिक विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर राकेश सिन्हा इसके लेखक हैं। इसमें आतंकवाद के प्रश्न पर हिन्दी, अंग्रेजी व उर्दू समाचार-पत्रों के दृष्टिकोणों का तुलनात्मक विश्लेषण किया गया है। हिन्दी-अंग्रेजी के सभी राष्ट्रीय दैनिकों को अध्ययन में शामिल किया गया है। देश के 25 उर्दू अखबारों का विश्लेषण हुआ है।
उर्दू देश के 17 राज्यों में बोला जाता है। इन सभी स्थानों पर उर्दू अखबारों की पहुंच है। उर्दू अखबारों के पास प्रतिबद्ध पाठक वर्ग है। परन्तु उर्दू पत्रकारिता इस बात का भी संकेत करता है कि इसका दायरा सम्प्रदाय विशेष में सिमटता जा रहा है. जो एक दुर्भाग्यपूर्ण बात है, जो भाषा की विरासत से मेल नहीं खाता है। लेखक ने इस संदर्भ में राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त द्वारा औपनिवेशिक काल की उर्दू पत्र-पत्रिकाओं के अध्ययन की चर्चा की है। पुस्तक में आतंकवाद और मीडिया के अन्र्त सम्बन्ध पर पश्चिम में चल रहे विमर्श पर भी प्रकाश डाला गया है। ‘क्या मीडिया आतंकवाद का ऑक्सीजन है’? इस प्रश्न का भारतीय संदर्भ में विश्लेषण किया है।
पुस्तक में चार अध्याय है और अंत में अध्ययन का निष्कर्ष रेखांकित किया गया है। पुस्तक में संदर्भों की भरमार है। इस पुस्तक की विशेषता यह है कि मीडिया के आतंकवाद के प्रति बदलते दृष्टिकोणों का विश्लेषण हुआ है। बाटला हाउस एन्काउंटर, 26/11 और अंतुले के व्यक्तव्य पर मीडिया के दृष्टिकोण को रखते हुए पुलिस, खुफिया तंत्र, राजनीतिक प्रतिष्ठान, आतंकवाद विरोधी कानूनों आदि पर समाचार-पत्रों के दृष्टिकोणों का तुलनात्मक अध्ययन है। उर्दू के जिन समाचार -पत्रों को सम्मिलित किया गया है उनमें ‘रोजनामा राष्ट्रीय सहारा’, ‘मुंसिफ’, ‘सहाफत’, ‘सियासत’, ‘आजाद हिन्द’, ‘जदीद मरकज’, ‘साप्ताहिक नई दुनिया’, ‘उर्दू टाइम्स’, ‘दावत’, ‘हिन्दुस्तान एक्सप्रेस’ आदि प्रमुख है। उर्दू अखबारों ने भी इसके लोकार्पण की खबर को प्रमुखता से छापा है। उर्दू टाइम्स ने तो इसे प्रमुख समाचार बनाया है। उर्दू अखबारों में इस अध्ययन पर प्रतिक्रिया हो रही है रोजनामा राष्ट्रीय सहारा ने 16 मार्च को अपने अंक में संपादकीय पृष्ठ पर एक आलेख इस पुस्तक की आलोचना करते हुए प्रकाशित किया है। परन्तु आलोचना में इसके किसी तथ्य पर प्रश्न खड़ा नही किया गया है। मंशा पर सवाल किया गया है।
लेखक ने पुस्तक के आरंभ में ‘अपनी बात’ के अन्तर्गत मुस्लिम जगत में उर्दू समाचार पत्रों पर चल रहे विमर्श की ओर संकेत किया है। इसके दो उदाहरण दिए गए है। एक ‘कम्यूनलिज्म कम्बैट’ (अक्टूबर 2008) के संपादकीय को उद्धृत किया गया है, जिसमें उर्दू अखबारों की आलोचना करते हुए लिखा गया है कि ‘ये षडयंत्र के सिद्धांत में विश्वास करते हैं’ और ‘यहां तक कि 9/11 को भी इन अखबारों ने यहूदियों का षडयंत्र माना था’। इस अध्ययन में भी यही पाया गया कि भारत के उर्दू अखबारों ने 26/11 के पीछे भी सी.आई.ए, मोसाद और संघ परिवार का हाथ देखा है। दूसरा उदाहरण ज़फरूल इस्लाम खान जो मिल्ली गजट के संपादक हैं, का उद्धरण है। खान ने इन अखबारों को ‘एकतरफा’ एवं ‘सनसनीखेज पूर्ण’ समाचार प्रकाशित करने के लिए दोषी करार दिया है। लेखक ने यह बताने का कोशिश की है कि इन अखबारों को समुदाय विशेष के दायरे एवं पूर्वग्रह से बाहर निकलकर मुख्यधारा के समाचार जगत के साथ एकाग्र होने की आवश्यकता है। पुस्तक में विवाद की गुंजाइश है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। 184 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य 80 रुपये है जिसे दिल्ली की शोध संस्थान भारत नीति प्रतिष्ठान (इंडिया पॉलिसी फांउडेशन) ने प्रकाशित किया है। प्रो. सिन्हा इसके मानद निदेशक भी हैं। पुस्तक को इस पते से प्राप्त किया जा सकता है-
भारत नीति प्रतिष्ठान, डी-51, प्रथम मंजिल,
हौज खास, नई दिल्ली – 110016,
दूरभाष : 011-26524018, ईमेल- [email protected]